Tuesday, November 27, 2012

भिलाई स्टील प्रोजेक्ट में सप्लायर 
रहा है दिनेश त्रिवेदी का परिवार
  


दुर्ग गंजपारा व्हाया कोलकाता रेल भवन का सफ़र


रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी 9-10 फरवरी 2012 को अधिकारिक प्रवास पर भिलाई स्टील प्लांट पहुंचे थे। 
यहां सार्वजनिक सभा के दौरान खुद उन्होंने भिलाई से अपने बचपन के लगाव को जाहिर किया, इसके बाद ही लोगों को पता लगा कि उनका छत्तीसगढ़ से भी नाता रहा है। 
भिलाई-दुर्ग के कुछ एक परिवारों को छोड़कर शायद ही किसी को इस बारे में मालूम था। उनके दौरे के दो दिन की कवायद के बाद त्रिवेदी के स्थानीय परिजनों से मिल कर उनके यहां से जुड़ाव के तथ्य मुझे मिले-

दुर्ग-भिलाई में निवासरत त्रिवेदी के परिजन भी खुद नहीं चाहते थे कि यह बात सार्वजनिक हो। यहां तक कि परिजन उनसे मिल कर रायपुर से लौट भी आए लेकिन यहां किसी को खबर नहीं हुई। 11 फरवरी को जब मीडिया में त्रिवेदी का भाषण परिजनों ने देखा तब कहीं परिजन रेलमंत्री के निजी जीवन से जुड़ी बातें शेयर करने तैयार हुए। 

परिजनों ने बताया कि रेलमंत्री त्रिवेदी के पिता स्व. हीरालाल त्रिवेदी कराची से हिंदुस्तान आए थे। स्व. हीरालाल ने जहां कोलकाता में अपना कारोबार जमाया वहीं उनके तीन भाइयों स्व. रतिलाल त्रिवेदी,स्व. प्रताप त्रिवेदी और स्व. महिपत त्रिवेदी ने दुर्ग गंजपारा में कारोबार शुरु किया। 

भिलाई स्टील प्रोजेक्ट शुरु होने पर हीरालाल त्रिवेदी ने 1955-56 में एक सप्लायर के तौर पर अपने भाइयों को भी साथ जोड़ा। स्व. रतिलाल त्रिवेदी की पुत्रवधू आर्य नगर दुर्ग निवासी हर्षा बेन त्रिवेदी ने इस बारे में बताया कि गंज पारा में मध्यभारत मिल स्टोर्स के नाम से परिवार की फर्म शुरु हुई थी। जहां से बीएसपी निर्माण का ठेका लेने वाली हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी (एचसीसी) को सामानों की आपूर्ति की जाती थी। 

गंजपारा में संयुक्त परिवार था और हीरालाल त्रिवेदी कारोबार लगातार बढऩे की वजह से कोलकाता और दुर्ग-भिलाई आते जाते रहते थे वहीं दिनेश भाई के बड़े भाई स्व. प्रवीण भाई और भाभी चंपा बेन त्रिवेदी यहीं दुर्ग में ही रहे। हर्षा बेन के मुताबिक दिनेश भाई की पूरी पढ़ाई कोलकाता और विदेश में हुई लेकिन जब भी छुट्टी लगती तो वो सीधे दुर्ग चले आते थे। 

1975 में जब उनके पिताजी का कारोबार और ज्यादा बढ़ गया तब पूरा परिवार कोलकाता शिफ्ट हो गया। उसके पहले तक हर गर्मी, दशहरा, दीवाली की छुट्टियों में दिनेश त्रिवेदी गंजपारा वाले घर में होते थे। संयुक्त परिवार में जिस तरह का माहौल होता है, ठीक वैसे माहौल हमारे घर में था और दिनेश भाई भी उसमें पूरी तरह रमे रहते थे। 

 रायपुर में मिले आत्मीयता से 

त्रिवेदी के चाचा रतिलाल के पौत्र गौरव त्रिवेदी ने बताया कि सार्वजनिक जीवन में व्यस्त रहने के बावजूद दिनेश भाई अपने परिवार से ई-मेल, फेसबुक और फोन पर संपर्क कायम रखते हैं। 

रायपुर आने की खबर पर गौरव अपनी मां हर्षा बेन, पत्नी उज्जवला त्रिवेदी और नन्हे बेटे नील त्रिवेदी को लेकर रेलमंत्री से मिलने पहुंचे। गौरव के मुताबिक वहां किसी को पता नहीं चला कि हम उनके परिवार से हैं। हम लोगों ने एक पर्ची भिजवाई तो उन्होंने मीडिया को बाहर जाने का आग्रह कर हमें बुला लिया और सबसे पूरी आत्मीयता से मिले। 

इस्पात नगरी के प्रख्यात कथा वाचक उमेश भाई जानी की पत्नी दिव्या भी रेलमंत्री के चाचा रतिलाल त्रिवेदी की पौत्री है। उमेश-दिव्या किसी कारणवश रायपुर नहीं जा पाए। उन्होंने बताया कि अपने प्रवचनों खास कर नशा मुक्ति अभियान की क्लिपिंग जब वह फेसबुक अपलोड करते हैं तो दिनेश भाई के कमेंट सबसे ज्यादा उत्साहवर्धक होते हैं।

Monday, November 26, 2012

भिलाई के जेएलएन हॉस्पिटल से-9 में जन्में चार बच्चे



अपने चारों बच्चों के साथ माता-पिता अस्पताल की आईसीयू  में 
भिलाई स्टील प्लांट के जवाहरलाल नेहरु चिकित्सालय एवं अनुसंधान केन्द्र में 18 नवम्बर 2012 रात करीब 12.30 बजे राजनांदगांव के भरकापारा की रहने वाली प्रियंका शेंडे पति दिवाकर शेंडे ने एक साथ चार बच्चो को जन्म दिया। भिलाई में अपनी तरह का यह पहला मामला है। नार्मल डिलीवरी से हुए इन बच्चो में दो बेटी और दो बेटे हैं। 
इन चारों स्वस्थ बच्चों को 25 नवम्बर को नियोनेटल इकाई से छुट्टी दे दी गई। जन्म के समय कम वजन वाले इन चारों बच्चों का वजन क्रमश: 1.1, 1.2, 1.3 और 1.7 किलोग्राम था। नवजात शिशु  इकाई के डॉक्टरों और स्टॉफ के अथक और गहन प्रयास से अंततः ये शिशु पूरी तरह स्वस्थ हो गए।   
इस संदर्भ में इस इकाई की प्रभारी डॉ मालिनी बताती हैं कि आरंभ में तो इन चारों शिशुओं की देखभाल चुनौतिपूर्ण लगा परंतु नियोनेटल इकाई के स्टॉफ की मिल-जुलकर काम करने की भावना के फलस्वरूप हम यह कार्य पूरी सफलता के साथ कर सके। इन नवजात षिषुओं के माता-पिता भी शुरू मं यह नहीं सोच पा रहे थे कि इन नन्हें षिषुओं की देखभाल कैसे करें। उन्होंने बताया कि इस इकाई में इन्ट्रॉवेनस फ्लूइड्स लेमिनर फ्लो के तहत तैयार किया जाता है। स्तनपान की शीघ्र शुरुआत अत्यंत कम वजन वाले शिशुओं को थोड़ा-थोड़ा कर ट्रौफिक फीड्स रिपिटेड हैंड वाषिंग और षुरुआती दौर में ही खतरे की स्थिति को पहचान लेने के फलस्वरूप इन बच्चों की स्थिति में सुधार के रूप में हमें सफलता नजर आई।
उल्लेखनीय है कि भिलाई के जवाहरलाल नेहरु चिकित्सालय एवं अनुसंधान केन्द्र में नवजात षिषुओं का जीवन दर 99 प्रतिषत से भी ज्यादा है। यह इकाई देष के सर्वश्रेष्ठ इकाइयों में से एक है। चिकित्सालय से जाते समय इन चार शिशुओं के पालकों ने यहाँ के समर्पित नर्सिंग स्टॉफ चिकित्सक और प्रबंधन को भी चिकित्सालय में रहने के दौरान भरपूर सहयोग और देखभाल के लिए अपना आभार प्रदर्षित किया।

रियाज छूट गया और सुर अल्लाह पर छोड़ दिया

105 साल के उस्ताद राशिद खान ने की दिल की बातें 
प्रोग्राम से ठीक पहले ग्रीन रूम में बातचीत करते हुए उस्ताद राशिद खान 
1908 में जन्मे ग्वालियर घराने के उस्ताद राशिद खान का रियाज पिछले 20 साल से छूट गया है लेकिन आज भी सुर सधते हैं तो यकीन करना मुश्किल होता है कि इन बूढ़ी हड्डियों वाले जिस्म में इतना दमदार जिगर मौजूद है। उस्ताद इसे अल्लाह की नेअमत मानते हुए सब कुछ उसी की मर्जी पर छोड़ देते हैं। 

 16 फरवरी 2012 गुरुवार को भिलाई अपना में कार्यक्रम देने आए उस्ताद राशिद खान ने खास बातचीत की, इस दौरान मेरे साथ भिलाई के ही युवा पत्रकार शेखर झा भी थे । उस्ताद ने कहा की -हमारी यह 23 वीं पीढ़ी है। मैने 5 साल की उम्र में उस्तादों की निगहबानी में तालीम शुरू की थी, अब उम्र के 105 वें साल में हूं और  आज मैं कहां तक संगीत सीख पाया हूं या मुझे और कहां तक पहुंचना है, ये सब उस रब्बुल आलमीन को मालूम है। जैसे हर कलाकार की ख्वाहिश होती है वैसे ही मैं भी चाहता हूं कि बस उपर वाला आवाज सलामत रखे और आखिरी सांस तक गाता ही रहूं। 

 रायबरेली में निवासरत और कोलकाता में आईटीसी अकादमी से जुड़े उस्ताद ने कहा कि 20 साल पहले रियाज छोड़ चुका हूं, इसका मतलब यह नहीं कि मैं सब कुछ जान गया। दरअसल शरीर अब साथ नहीं देता। रोजाना मैं पांचों वक्त की नमाज पढ़ता हूं और सुबह कुरआन की तिलावत करता हूं। इससे जो रूहानी ताकत मिलती है उसी की बदौलत अपनी जिंदगी में जो थोड़ा -बहुत संगीत सीखा था, उसे आज की पीढ़ी में बांट रहा हूं। 'रसन पिया' के नाम से मैने 2 हजार से ज्यादा बंदिशें रची है। यही सब कुछ है जो मैं छोड़ जाऊंगा। अपनी विरासत के बारे में उन्होंने कहा कि घर के बच्चे तो गा ही रहे हैं। एक हमारा बच्चा शुभमय भट्टाचार्य है, बहुत अच्छा गाता है। मैं उसे प्यार से शहाबुद्दीन कहता हूं। ऐसे और भी हैं, जिनसे बहुत उम्मीदें हैं। अपनी सेहत और दिनचर्या पर उन्होंने कहा कि दिन भर में सिर्फ रात में एक वक्त खाना खाते हैं। दांत सलामत हैं इसलिए खान-पान में कोई परहेज नहीं है। सुबह भीगा चना और सूखे मेवे लेता हूं।
पैगंबर और सूफियों ने की संगीत से इबादत
एक सवाल के जवाब में उस्ताद ने कहा कि संगीत को लेकर इस्लाम में स्थिति कुछ अलग है। अल्लाह के पैगंबर दाउद अलैहिस्स्लाम 'लहने दाउदी' बड़ी मशहूर है। दाउद अपना कलाम गा कर खुदा की इबादत करते थे तो परिंदे तक भी खींचे चले आते थे। वहीं हमारे सूफियाए किराम ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती , हजरत साबिर शाह और खुद हमारे पीर का ये हाल था कि जब (सूफी कलाम) गाने वाला सामने बैठता था तो इनकी इबादत की मंजिले तय होती थी। दूसरी तरफ पीराने पीर दस्तगीर गौस पाक के यहां गाना शरई एतबार से ममनुअ (मना) था। इसलिए ये इबादत का एक तरीका भी है और आखिरी सांस तक मैं गाता ही रहूं अब ये अल्लाह की मर्जी है वो गवावे चाहे न गवावे।
उस्ताद की दुआए ऑटोग्राफ की शक्ल में 

श्रोताओं को तार सप्तक तक ले गए उस्ताद
गुरुवार की शाम अंचल के शास्त्रीय संगीत के श्रोताओं के लिए एक दुर्लभ मौका लेकर आई। मंच पर ग्वालियर घराने के दिग्गज 105 वर्षीय उस्ताद राशिद खान जब सुर साधने बैठे तो ऑडिटोरियम में  बैठे श्रोता दंग रह गए। उम्र के इस पड़ाव में सुरों को इस ऊंचाई तक ले जाना और गमक की इस कदर सधी हुई ताने लेना किसी जादूगरी से कम नहीं लग रहा था। 
मौका था सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ इंडियन क्लासिकल म्यूजिक  एंड कल्चर अमंग्स्ट यूथ (स्पिक मैके) की ओर से भिलाई इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी (बीआईटी) में उस्ताद राशिद खान की प्रस्तुति का।
 ज्यादातर श्रोता जिज्ञासावश भी आए थे बुजुर्ग उस्ताद की जादूगरी से रूबरू होने। उस्ताद ने किसी को निराश नहीं किया। सरस्वती वंदना के बाद मंच पर बैठते ही गर्म चाय का घूंट लिया और कहा- जो कुछ उसने दिया है, सब आपके सामने। संगत के लिए शुभ मय भट्टाचार्य, असद अली खां, तबले पर बिलाल अहमद और हारमोनियम पर हाफिज अहमद खां थे। शुरुआत हुई राग मधुवंती में बड़ा ख्याल विलंबित एक ताल में और छोटा ख्याल मध्य लय 3 ताल में। इस बंदिश के बोल थे बाबुल मोरे। इसके बाद बारी आई विलुप्त हो रही बंधी ठुमरी की। 'सावरी सूरत मोरा मन बस कर लीनो' बोल पर आज की श्रृंगारिक ठुमरी से कहीं अलग इस बंधी ठुमरी ने समां बांध दिया। कार्यक्रम के बाद अनौपचारिक चर्चा में उस्ताद राशिद खां ने बताया कि बंधी ठुमरी विलुप्त तो नहीं हुई है लेकिन उनके घराने ने कायम रखी है। उन्होंने उस्ताद चांद खां से इसे सीखा था। इसके बाद एक भोजपुरी गीत 'मोरे पिया गइले हो बिदेसवा' को उस्ताद ने अपने शागिर्द शुभ मय के साथ सुनाया। यह गीत राग मांड में निबद्ध था। राजस्थान से आई मांड गायिकी के अक्स में ढले भोजपुरी गीत का अद्भुत मेल सुन कर श्रोता दंग थे।  समापन हुआ गुरु वंदना से। उस्ताद ने जब आंखें बंद कर के 'मेरा रोम हर-हर बोले हरि ऊं' गाना शुरू किया तो पूरा ऑडिटोरियम रूहानियत से भर गया। 
इस उम्र में ऐसी गायिकी..अद्भुत
समापन पर बीआईटी की ओर से आईपी मिश्रा, पीबी देशमुख, पीआरएन पिल्लई, एमके कोवर और डॉ. संजय शर्मा ने उस्ताद और उनके शागिर्दों का सम्मान किया। कार्यक्रम में मौजूद अंचल के वरिष्ठ संगीतज्ञ पं. कीर्ति व्यास ने टिप्पणी करते हुए कहा कि उम्र के इस पड़ाव में गायिकी का ऐसा अद्भुत रुप अपने आप में दुर्लभ है। पं. व्यास के मुताबिक उस्ताद अपनी गायिकी के दौरान तार सप्तक के स्वरों पर जाकर जिस तरह देर तक कायम रह रहे थे, वह बहुत बड़ी बात है। फिर गमक के लिए जो दम लगाना पड़ता है, उसमें ज्यादातर उम्रदराज लोगों को दिक्कत होती है लेकिन उस्ताद राशिद खां यहां भी बेहद सहज थे। कुल मिला कर एक ऐसा दुर्लभ मौका था जो खुशनसीबों को मिलता है।
16 फरवरी 2012 (c)

मोहम्मद लफ्ज से बढ़ कर नहीं है कोई तहरीर

नातिया कलाम की खुशबू फैला रहे हैं प्रो. साकेत रंजन प्रवीर



एक निजी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापक प्रो. साकेत रंजन प्रवीर इस खूबी से पैगंबर हजरत मोहम्मद की शान में नातिया कलाम कहते हैं कि नबी का कोई भी आशिक इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। गैर मुस्लिम पृष्ठभूमि के होने के बावजूद प्रो. साकेत के कलाम का कोई सानी नहीं है।प्रो. प्रवीर ने अपने खयालात का इजहार कुछ इस तरह से किया-
बिहार के सारण जिले में हम छोटा से कस्बे इनायतपुर के रहने वाले हैं। मेरे दादा श्याम किशोर नारायण 'शाम इनायत पुरी' ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से फारसी में एमए थे। पिता मणिशंकर श्रीवास्तव हिंदी साहित्य के समीक्षक-आलोचक रहे हैं। वहीं हम छह भाइयों में सभी शेरों-सुखन से जुड़े हैं। नातिया कलाम यानि पैगंबर हजरत मोहम्मद की शान में लिखी जाने वाली कविता को लेकर जो समझ आई वह पटना में कॉलेज के दिनों की बात है। 
तब स्वामी प्रेम जहीर से अरबी का छंद शास्त्र (इल्मे अरूज), अलंकार शास्त्र (इल्मे बलागत) और मरहूम कौसर सिवानी से रस शास्त्र (इल्मे सलासत) व सौंदर्य शास्त्र (इल्मे फसाहत) हासिल करने की खुशकिस्मती हासिल हुई। क्योंकि इसके बिना उर्दू शायरी में परफेक्शन आ नहीं सकता था। वहीं पटना में सुल्तान अख्तर, सत्यनारायण और रविंद्र राजहंस जैसे आला दर्जे के नातख्वां से भी सीखने मिला।
नातिया कलाम मेरे लिए  खालिस तौर पर नबी से मुहब्बत ही है। पैगंबर किसी कौम तक महदूद नहीं है। कुरआन में जब उसे रब्बुल आलमीन कहा गया है तो उस रब्बुल आलमीन का भेजा रसूल बेशक सारे आलम के लिए रसूल है। दुनिया में जितनी कौम हैं सबने अपने-अपने अंदाज और लफ्जों-जुबान में हजरते रसूल की प्रशंसा की है।
 इसमें आप अहमद रजा बरेलवी, कृष्ण बिहारी नूर, पंडित दयाशंकर नसीम से लेकर छत्तीसगढ़ में स्व. पं. गया प्रसाद खुदी और आलोक नारंग तक ढेरों नाम है। आज नबी की शान में कुछ कह लेता हूं, ये उन्हीं का करम है। हाल ही में मेरे अजीज दोस्त फजल फारूकी  खाना-ए-काबा (मक्का) में थे। वहां उन्होंने मेरा लिखा एक कलाम वहां एक महफिल में पढ़ा। जब उनका फोन आया तो यकीन मानिए, लगा सारी आरजू पूरी हो गई। चलते-चलते ईद मिलादुन्नबी के मौके पर एक शेर-बेमिस्ल जमाने में है ये  लफ्जे मोहम्मद, इस लफ्ज से बढ़ कर कोई तहरीर नहीं है, हर काम है जागीर इसी लफ्ज की प्यारे, ये लफ्ज किसी कौम की जागीर नहीं है। 4 फरवरी 2012 (c)

Thursday, November 22, 2012

आज के फिल्मवाले ‘सूफी’ का मतलब भी समझते हैं क्या..?


जाने-माने कव्वाल वारसी भाइयों से खास मुलाकात


 स्टील क्लब में  नजीर अहमद खान वारसी और नसीर अहमद खान वारसी 
कव्वाली की 850 साल की विरासत को सहेजने वाले हैदराबाद के वारसी घराने के प्रतिनिधि नजीर अहमद खान वारसी और नसीर अहमद खान वारसी को हिंदी फिल्मों में कव्वाली पेश करने के अंदाज पर एतराज है।  2010 में उपराष्ट्रपति मुहम्मद हामिद अंसारी के हाथों संगीत नाटक अकादमी अवार्ड पा चुके और देश-विदेश के कई प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी कव्वाली पेश करने वाले दोनो भाई फिल्मों में सिर्फ वहीं कलाम गाना चाहते हैं जहां पेश करने का अंदाज भी सलीके का हो। स्पिक मैके के कार्यक्रम में 5 नवंबर 2012 को भिलाई आए वारसी भाइयों ने स्टील क्लब में अपने प्रोग्राम से ठीक पहले की दिल की बातें।  
आपके खानदान में कव्वाली का साथ कब से है? 
हमारे खानदान में कव्वाली का चलन ख्वाजा गरीब नवाज अजमेरी के दौर यानि करीब 850 साल से चल रहा है। हजरत अमीर खुसरो ने जो अपने शागिर्दों को सिखाया, हमारा घराना उन्हीं शागिर्दों की पीढ़ी से ताल्लुक रखता है। उन्ही के शिष्यों की औलादों में हम लोग हैं। हमारे बड़े बुजुर्ग दरगाहों-खानकाहों में भी गाते थे और बादशाहों के पास भी रूहानियत की महफिल सजाते थे। हमारे पूर्वजों मे बड़े दादा मियां एतमाद-उल-मुल्क तानरस खां साहब हुए हैं। उन्हें तानरस का खिताब मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़ऱ ने दिया था। वो हजरत निजामुद्दीन औलिया में गाते भी थे। हमारे ही खानदान के अल्लामा-ए-मौसिक़ी मुहम्मद सिद्दीक खान साहब हैदराबाद के निजाम के शाही गायक थे। हमारे खानदान में सूफी और क्लासिकल दोनों की रिवायत है। हमारे दादा पद्मश्री अजीज अहमद खां वारसी अपने दौर के बड़े सूफी कव्वाल हुए हैं। वहीं हमारे वालिद उस्ताद जहीर अहमद खां वारसी ने भी कव्वाली को नई ऊंचाइयां बख्शी। आज हम दोनों भाई इस दौर की नुमाइंदगी कर रहे हैं। हम अपने तौर पर और स्पिक मैके की ओर से नई जनरेशन को पूरे हिंदुस्तान में घूम-घूम कर अपनी मिट्टी की तहजीब से रूबरू करा रहे हैं। 
आप कव्वाली की जिस 850 साल की रिवायत की बात कर रहे हैं, उसमें आज कितना बदलाव देखते हैं? 
देखिए आज जिसे हम कव्वाली कहते हैं, वो हिंदुस्तान में ही जन्मी है। इसकी शुरूआत 850 साल पहले ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेरी रहमतुल्लाह अलैहि ने की थी। कव्वाली शब्द बना है कौल से, जिसके मायने है दोहराना। जो अल्लाह ने और सरकारे दो आलम मोहम्मद मुस्तफा ने कहा उसको दोहराने का नाम ही है कव्वाली। लेकिन शुरूआती दौर में कव्वाली को महफिले समा और गाने वाले को मुतरिब कहते थे। तब यह खानकाहों  (आश्रम) और दरगाहों तक ही महदूद (सीमित) थी।  बाद में हजरत निजामुद्दीन औलिया ने इसे कव्वाली का नाम दिया। उन्होंने और उनके शागिर्द हजरत अमीर खुसरो ने कव्वाली को खानकाहों-दरगाहों से निकाल कर इसे आम लोगों तक पहुंचाया। उस जमाने के सूफी शायरों ने अपने कलाम फारसी में लिखे थे। तब और आज में बदलाव बहुत सा आया है। तब ताली, ढोलक,तबला और नौबत(डफ) का इस्तेमाल होता था। आज हमनें इसमें सिर्फ हारमोनियम को जोड़ा है। जहां तक फारसी के कलाम की बात है तो आज के दौर के शायरों ने उसे आसान करते हुए उर्दू में लिखा है। वैसे जो बुजुर्गों सूफियों के कलाम है, उनका अपना एक अलग इफेक्ट तो रहता ही है। इस दौर में लोगों ने कुछ और बदलाव भी किए हैं। इसका नाम कव्वाली  ही रखा है लेकिन हम्द (अल्लाह की शान में), नात (नबी की शान में), मनकबत (वलियों की शान में) और  गजल भी इसमें अलग-अलग ढंग से पेश की जाती है। 
कव्वाली पेश करने और सुनने का जो लुत्फ है, उसे आप कैसे बयां करेंगे? 
देखिए, कव्वाली तो सीधे रूहानियत से जुड़ी हुई है। सही जो कव्वाली होती है वो सीधे अल्लाह से मिलाती है। इसलिए हमें हुक्म दिया जाता है कि जब तुम समा (कव्वाली) गाने बैठो तो वजू करके  पाक साफ होकर बैठो। यह सच है कि जब सही कव्वाली गाई जाती है और किसी को वज्द (हाल) आ जाता है तो उसकी रूह सीधे आलमे बरज$ख (ईह लोक) में चली जाती है। अक्सर ऐसा होता है  जब हम देखते हैं कि अल्लाह का कलाम सुन कर किसी को हाल आ रहा है, तो इस हालत में बेखुदी में वो नहीं झूमता बल्कि उसकी रूह झूमती है। हमनें भी बुजुर्गों से सुना है कि अल्लाह ने मिट्टी का पुतला (इंसान) बनाया और रूह को हुक्म दिया कि जा अंदर दाखिल हो जा, तो रूह अंदर जा रही थी और परेशान हो कर बार-बार बाहर आ रही थी। रूह का कहना था कि मेरे मालिक मैं अंदर जा रही हूं तो सब अंधेरा ही अंधेरा दिख रहा है और मेरा दम घुट रहा है। मैं क्या करूं,समझ में नहीं आ रहा है। अंदर समाया नहीं जा रहा है। ऐसे में फिर अल्लाह पाक ने अपने फरिश्तों को हुक्म दिया कि एक लहन (सुर) छेड़ो। जब फरिश्तों ने लहन छेड़ा तो रूह एक दम से मस्ती में आ गई और इंसान के जिस्म में चली गई। तो आज जब अच्छा संगीत या सुर सुनकर जब हममें से किसी को भी एक नशा सा तारी होता है तो वो हममें नहीं बल्कि हमारी रूह में होता है। लोग सुन कर वाह-वाह कहते हैं तो ये हम नहीं करते हमारी रूह करती है। हमारा चाहे सूफी संगीत हो या हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, इसमें दिल और दिमाग दोनों झूमता है। यही हमारी संगीत की परंपरा है। 
आपका ऐसा अपना कोई रूहानी तजुर्बा? 
ये तो उस मालिक का करम है। हम तो यही मानते हैं कि हम कलाम पेश कर रहे हैं तो इबादत कर रहे हैं। ऐसा कई बार होता है कि जब हम ख्वाजा गरीब नवाज अजमेरी के दरबार में कव्वाली पेश कर रहे होते हैं तो ज़ार-ज़ार आंसू बहते रहते हैं। वहां कव्वाली पेश करने के दौरान फिर हमको अपनी भी सुध नहीं रहती। एक अलग किस्म का नशा हम पर तारी हो जाता है। चूंकि ख्वाजा साहब ने ही कव्वाली की शुरूआत की थी, इसलिए उनके दरबार में कव्वाली पेश करना हमेशा एक अलग तरह का रूहानी तजुर्बा रहता है।
..तो क्या ये रूहानी जज्बा आपको सिर्फ कव्वाली से ही हासिल होता है? 
देखिए उसको पुकारना है तो कोई भी जबान में पुकार सकते हैं। हमनें श्याम बेनेगल की  फिल्म ‘मंडी’ में कबीर दास जी का भजन ‘हर में हर को देखा’ गाया था। इसमें देखिए कितनी गहराई है। ‘हर में हर को देखा’ देखा यानि हम सब में वही मौजूद है। अल्लाह ने भी फरमाया है  कि ‘मैं तेरी शहरग़ (गले के पास की एक खास नस) के करीब हूं तू मुझे पहचान’। इसलिए अल्लाह-परमेश्वर तो हम सबके बेहद करीब है। हम सब में वही है और उसने किसी में भेदभाव नहीं किया। इसलिए उसे चाहे कव्वाली से पुकारो या भजन से। पुकार सच्ची होनी चाहिए तो रूहानियत का जज्बा अपने आप उभर आता है।  
वारसी भाइयों की कव्वाली
हिंदुस्तानी फिल्मों की वजह से कव्वाली की भी दो धाराएं हो गईं हैं...क्या आप ऐसा मानते हैं? 
जी, हां बिल्कुल। एक तो मंच की कव्वाली है और दूसरी फिल्मों की। फिल्म इंडस्ट्री तो कव्वाली से हमेशा मुतअस्सिर (प्रभावित) रही है। कई बड़े नाम है जिन्होंने फिल्मों के लिए कव्वाली गाई है। ज्यादातर मामले में तो हम मानते हैं कि फिल्मों ने कव्वाली का बेड़ा गर्क ही किया है। जहां तक दूसरी धारा की बात है तो कव्वाली आज भी मकबूल है। इसका क्रेडिट उन कव्वालों को जाता है, जिन्होंने इसकी पाकीजगी को कायम रखा। जैसे कि हमारे दादा पद्मश्री अजीज अहमद खां वारसी , हाजी गुलाम फरीद साबरी और उस्ताद नुसरत फतेह अली खान सहित और भी दूसरे नाम। जिन्होंने दुबारा से इसे उपर लाया और इसे मकबूलियत दी। आज कव्वाली हिंदुस्तान-पाकिस्तान में तो है ही यूरोप और दुनिया के दूसरे हिस्सों में कव्वाली खूब सुनी जाती है।  
आप को ऐसा क्यों लगता है कि फिल्मों ने कव्वाली का बेड़ा गर्क किया है? 
देखिए ‘परदा है परदा’ को आप क्या कव्वाली कहेंगे..? हमारी नजर में वो सिर्फ एक एंटरटेनमेंट या आज की जबान में आइटम सांग है। हजरत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के दीदार के बाद कहते हैं कि छाप तिलक सब छीन ली। ये रुहानियत में डूबा हुआ कलाम है। वो कहते हैं कि आपने मुझे देखा तो मेरी जितनी भी पहचान और जो छाप थी वो सब छीन ली। वो ‘अपनी सी रंग दीनी’ कहते हैं यानि दुनिया से बेनियाज कर मुझे अल्लाह से मिलवा दिया। लेकिन फिल्म वालों ने क्या किया? ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ फिल्म मे लडक़ी भांग के नशे में झूम रही है और खेत में गा रही है ‘छाप तिलक सब छीन ली’। 
ये बीते दौर की बात हो गई लेकिन आज तो फिल्मों में सूफी खूब चल रहा है..? 
हम पूछना चाहते हैं, आज के ये फिल्म वाले सूफी का मतलब, उसकी अहमियत भी समझते हैं..? सूफी यानि हर चीज से पाक  साफ। अब आज की फिल्मों को देखिए सूफी के नाम पर गीत रचा गया ‘इश्क सूफियाना’। ये फिल्म वाले जानते हैं इन पाक लफ्जों की अहमियत..? अभी शाहरूख खान की एक फिल्म में सूफी के नाम पर गीत रचा गया ‘तेरा सजदा’। इसमें वो औरत को सजदा करवा रहे हैं। ये क्या हो रहा है..? 
लेकिन आप (कव्वाल) लोगों की तरफ से कभी कोई एतराज भी तो सामने नहीं आता है? 
आपका ऐसा कहना गलत है। हमारे हैदराबाद के नागेश कुकनूर ने 2-3 साल पहले ‘इकबाल’ फिल्म बनाई थी। जिसमें सीन रखा कि लोग शराब पी कर बोतल के साथ नाचते हुए ‘आज रंग है हे मां रंग है री’गा रहे हैं। हमने नागेश को बुला कर तुरंत एतराज जताया और उनसे पूछा कि क्या आपको ‘रंग’ का मरतबा या उसके मायने मालूम है..? ये बुजुर्ग सूफी शायर हजरत अमीर खुसरो ने किसलिए लिखा है और इसे क्यों गाया जाता है..? हमनें उनसे कहा कि आइंदा से किसी अच्छे जानकार से मश्विरा लेना फिर कोई सूफी कलाम को रखना। वरना तुम पर ऐसी फिटकार पड़ेगी कि कहीं के भी नहीं रहोगे और ये जितना सब नाम-वाम है,ये सब चले जाएगा। नागेश हमारी बात समझ गए और तुरंत माफी मांगने लगे कि नहीं वारसी साहब हमसे गलती हो गई। 
लेकिन ऐसे माहौल में आपको फिल्मों के ऑफर तो आते होंगे? 
बिल्कुल आते हैं। लेकिन, हम अपना और अपने घराने का नाम खराब नहीं करना चाहते हैं। हमारा साफ कहना है कि जिसमें सूफियाना होगा वहीं गाएंगे। जिसमें अल्लाह का नाम होगा,मौला का नाम होगा हमारे ख्वाजा का नाम होगा वो गाएंगे। अब जैसे हमारे दादा पद्मश्री अजीज अहमद खां वारसी ने ‘मौला सलीम चिश्ती’ गाया था। आज भी आप  देखिए और सुनिए कि कैसा पिक्चराइजेशन है और कैसे अल्फाज हैं ‘घूंघट की लाज रखना इस सर पे ताज रखना’।  अब आज तो फिल्मवाले जो दिल मे आए ठोक देते हैं। इसलिए तब तक हम फिल्मों से दूर ही ठीक हैं।  

Wednesday, November 7, 2012

'चक्रव्यूह' में मजाक बना दी गई छत्तीसगढ़ी...!

भाषाई प्लेटफार्म पर कमजोर साबित होती है प्रकाश झा की नक्सल मुद्दे पर आधारित फिल्म
पहनावा छत्तीसगढ़ी लेकिन भाषा है अटपटी
फिल्मकार प्रकाश झा ने अपनी फिल्म 'चक्रव्यूह' में नक्सलगढ़ का यथार्थ रचने ऐसी छत्तीसगढ़ी का सहारा लिया है, जो छत्तीसगढ़ी जानने वाले को भी रास नहीं आएगी और इसकी मिठास से अंजान दर्शक भी इसे आसानी से पचा नहीं पाएगा। एक परिपक्व निर्देशक के रुप में अलग पहचान बनाने वाले प्रकाश झा ने भाषा के आधार पर अपनी फिल्म को जो बाना पहनाने की कोशिश की है, उससे ज्यादातर दर्शक और छत्तीसगढ़ी  भाषा व संस्कृति के जानकार सहमत नहीं है।
प्रकाश झा ने 'चक्रव्यूह' में नक्सल समस्या को प्रमुखता से उठाया है। फिल्म में नक्सलियों के शीर्ष नेता से लेकर आम लोग जिस अंदाज में छत्तीसगढ़ी बोलते हैं, उसे लेकर छत्तीसगढ़ में व्यापक प्रतिक्रिया है। दरअसल 'चक्रव्यूह' के संवाद इस अंदाज में लिखे गए हैं कि उसमें पहली पंक्ति तो ठेठ छत्तीसगढ़ी की रहती है लेकिन उसके बाद अगली ही पंक्ति हिंदी की आ जाती है। मसलन नक्सल नेता जूही अपने साथियों से कहती है- तुमन ऐला के जावो...मैं चलती हूं। पूरी फिल्म में इसी तरह हिंदी-छत्तीसगढ़ी का बेमेल है। जिससे दर्शक न तो पूरी तरह छत्तीसगढ़ी की मिठास का एहसास कर पाता है ना ही पूरी तरह हिंदी का। छत्तीसगढिय़ा दर्शकों को फिल्म के संवाद इसलिए खटकते हैं, क्योकि इसमें पूरी छत्तीसगढ़ी भी नहीं है और गैर छत्तीसगढिय़ा को इसलिए खटकते हैं, क्योंकि इसमें पूरी तरह हिंदी भी नहीं है। फिर सबसे ज्यादा खटकने वाली बात यह है कि दुनिया भर में रिलीज हुई इस फिल्म की शूटिंग का एक हिस्सा भी भले ही छत्तीसगढ़ में नहीं फिल्माया गया है लेकिन फिल्म देखने से ये साबित तो हो गया कि नक्सलगढ़ में लाल सलाम का नारा लगाने वाले शीर्ष नेतृत्व से लेकर आम नक्सली तक छत्तीसगढ़ी मे बात करते हैं। शायद प्रकाश झा की रिसर्च टीम ने हल्बी, गोड़ी, तेलुगू, मराठी और उडिय़ा मिश्रित नक्सलियों की बातचीत पर कभी गौर ही नहीं किया। यही वजह है कि सीधे-सीधे नक्सलियों को छत्तीसगढिय़ा साबित कर दिया गया है। जबकि उसमें नक्सली पात्र झारखंड, आंध्र और महाराष्ट्र के बताए गए हैं।

क्या कहते हैं जानकार
यह प्रवृत्ति बहुत ही चिंताजनक 
परदेशी राम वर्मा
छत्तीसगढ़ में जिस तरह से गैर जिमेदारी पूर्ण काम हो रहा है उसी का नतीजा है कि छत्तीसगढ़ को सरल सस्ता समझ कर लोग कुछ भी उटपटांग प्रयोग कर लेते हैं। यह प्रवृत्ति छत्तीसगढ़ के लिए बहुत ही चिंताजनक है। किसी भी संस्कृति को समझने के लिए गहराई और गंभीरता जरूरी है। घालमेल करने से भाषा की खुबसूरती सामने नहीं आ पाती है। ये जग जाहिर है कि नक्सलियों के कमांडर और अन्य जिमेदार लोग उड़ीसा और आंध्र के हैं। वहीं छत्तीसगढ़ी बोलने वाले जवान तो नगण्य होंगे। इसके बावजूद यहां कमांडर लोगों को छत्तीसगढ़ी बोलते दिखाया जा रहा है वो सच्चाई के बिल्कुल पलट है। छत्तीसगढ़ी भाषा के संरक्षण के लिए बने आयोग को भी अपनी सक्रियता दिखाना चाहिए और हर छत्तीसगढ़ी को इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना चाहिए। (हिंदी व छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार) 


भाषाई सौंदर्य तो बरकरार रहना ही चाहिए
दानेश्वर शर्मा
उन्होंने फिल्म में किस तरह छत्तीसगढ़ी का प्रयोग किया है, मुझे नहीं मालूम। इतना तो है कि निर्देशक को सिनेमेटिक सेंस के नाम पर छूट तो देनी ही चाहिए। यह सबको मालूम है कि बड़े नक्सली नेता मूल छत्तीसगढ़ी नहीं है बल्कि बंगाल, उड़ीसा, आंध्र व महाराष्ट्र के हैं। हम यह भी नहीं कहते हैं कि बिल्कुल शुद्ध छत्तीसगढ़ी इस्तेमाल हो, क्योंकि यह तो संभव नहीं है। लेकिन भाषाई सौंदर्य तो बरकरार रहना ही चाहिए। घालमेल करने से तारतय टूटता है। साहित्य में पोएटिक लाइसेंस की हम बात करते हैं वैसे ही फिल्म के मामले में भी हमें दृष्टिकोण रखना होगा। 'चक्रव्यूह' में इसलिए घालमेल वाली छत्तीसगढ़ी इस्तेमाल की गई होगी, क्योकि नक्सली छत्तीसगढ़ के तो है ही नहीं। वो चाहते तो हल्बी, गोड़ी, तेलुगू और उडिय़ा मिश्रित भाषा वाले संवाद रख सकते थे। जिससे दर्शक आसानी से फिल्म के साथ तालमेल बिठाता।  (अध्यक्ष छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग)


गंभीरता दिखानी थी भाषा-बोली पर भी 
राहुल सिंह
मैनें पूरी फिल्म देखी नहीं है लेकिन टुकड़ों में जितना देख पाया हूं उससे मेरी धारणा तो यही बनती है कि भाषा के दृष्टिकोण से यह फिल्म फीकी पड़ती है। प्रकाश झा की पहचान एक संवेदनशील फिल्मकार के तौर पर है। उन्होंने ऐसा घालमेल क्यों किया वो तो वही बता सकते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि एक गंभीर विषय के प्रस्तुतिकरण में इस गंभीर पहलू का ध्यान नहीं रखा गया। छत्तीसगढ़ी के जानकार और छत्तीसगढ़ी से अंजान दोनों को फिल्म के संवाद का अधूरापन खटक रहा है। फिल्म की शूटिंग मध्यप्रदेश में हुई है। झा की शोध टीम को बस्तर के नक्सलियों का यथार्थ दिखाने उनके रहन-सहन के साथ भाषा-बोली पर भी गंभीरता दिखानी थी। इसे मैं भाषा के मामले में लापरवाही ही कहूंगा। (छत्तीसगढ़ी संस्कृति के जानकार)

पहले भी हो चुका है छत्तीसगढ़ के साथ मजाक
सद्गति में स्मिता-ओमपुरी
यह पहला मौका नहीं है, जब भाषा के स्तर पर छत्तीसगढ़ को बेहद हल्का मानते हुए अटपटा सा प्रयोग किया गया हो। इसके पहले कुछ कथाकारों और फिल्मकारों ने भी छत्तीसगढ़ की शांत प्रकृति का फायदा उठाया था।
 
सत्यजीत 
जातीय विद्वेष पर आधारित मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'सद्गति' को फिल्माने प्र्रख्यात निर्देशक सत्यजीत राय के छत्तीसगढ़ आने पर भी कई सवाल उठे थे। सत्यजीत रे द्वारा छत्तीसगढ़ की लोकेशन के चयन पर उंगली इस आधार पर उठाई गई थी कि शांत और समरसता वाले प्रदेश में इस तरह की कहानी का फिल्मांकन गलत है।  प्रख्यात उपन्यासकार बिमल मित्र ने 'सुरसतिया' में और साहित्यकार रामशरण जोशी ने 'हंस' में प्रकाशित अपने संस्मरण में छत्तीसगढ़ी महिलाओं के चरित्र को लेकर प्रतिकूल टिप्पणी की थी। जिसका उस दौर में विरोध भी हुआ था।
बिमल मित्र
उपन्यास
बिमल मित्र की पहचान 'साहेब बीवी और गुलाम' उपन्यास से ज्यादा है, जिस पर गुरुदत्त ने फिल्म भी बनाई थी। खुद बिमल मित्र अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव का ज्यादातर बांग्ला साहित्य भिलाई में अपनी बेटी शकुंतला बोस के घर रह कर रचा था, इस वजह से वह छत्तीसगढ़ से अंजान नहीं थे लेकिन उन्होंने छत्तीसगढ़ी महिलाओं पर प्रतिकूल टिप्पणी की और उनका उस दौर में खूब विरोध भी हुआ।
इसी तरह रामशरण जोशी की टिप्पणी के बाद अंचल के प्रख्यात साहित्यकार डॉ. परदेशीराम वर्मा ने इसका प्रतिवाद 'हंस'  में ही लंबा लेख लिख कर किया। जिसके बाद उस पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने लिखित में क्षमा मांगी थी।

रामशरण जोशी
मैनें प्यार किया
कुछ इसी तरह का एक और दुर्लभ उदाहरण राजश्री प्रोडक्शन की 'मैनें प्यार किया' का भी है, जिसमें एक चर्चित गीत छत्तीसगढ़ी मे बिलासपुर मूल के निवासी शैल चतुर्वेदी से लिखवाने के बाद अचानक उसे भोजपुरी में 'कहे तोह से सजना' लाइन से अनुदित करवा दिया गया था। इसके  केंद्र में छत्तीसगढ़ी और हिंदी के  साहित्यकार दानेश्वर शर्मा थे। वाकया 1988 का है, जब फिल्म 'मैनें प्यार किया' बन रही थी और उस दौरान बडज़ात्या परिवार ने कथानक के अनुरूप शैल चतुर्वेदी से 'कइथव तोर से सजना' गीत लिखवाया था। चूंकि श्री चतुर्वेदी लंबे अरसे से बिलासपुर छोड़ मुंबईवासी हो चुके थे, इसलिए श्री चतुर्वेदी की पहल पर ऐसे जानकार को खोजा गया था जो छत्तीसगढ़ी से भली-भांति परिचित हो।
शैल चतुर्वेदी
तब तक श्री शर्मा के छत्तीसगढ़ी गीतों के कई रिकार्ड्स एचएमवी से निकल चुके थे वहीं राजश्री फिल्मस के संस्थापक ताराचंद बडज़ात्या के एक करीबी रिश्तेदार श्री डागा भिलाई सिविक सेंटर में कारोबारी थे। इस तरह राजश्री फिल्मस की ओर से दानेश्वर शर्मा से संपर्क साधा गया। श्री शर्मा ने उस गीत में सुधार भी किए और उसे मुंबई भेज दिया। इसके बाद रिकार्डिंग के दौरान भी श्री शर्मा को आमंत्रित किया गया लेकिन उसी दौरान श्री शर्मा अपनी बेटी की शादी की वजह से नहीं जा सके और फिर उसके बाद क्या हुआ यह खुद दानेश्वर शर्मा भी नहीं जानते। बाद में जब ' मैने प्यार किया ' का संगीत जारी हुआ तो गीत भोजपुरी में था और गीतकार का नाम था असद भोपाली । दानेश्वर शर्मा के पास आज भी इस गीत को लेकर राजश्री परिवार से हुए पत्र व्यवहार के सारे दस्तावेज मौजूद है।

Tuesday, October 23, 2012

रोशनी जाती रही लेकिन हौसला बढ़ता गया

स्कूल के दिनों से आंखों की रोशनी धीरे-धीरे कम होती गई जो कॉलेज पहुंचने तक पूरी तरह बुझ गई लेकिन डॉ. आशीष सिंह ठाकुर का हौसला इसके मुकाबले दुगुनी रफ्तार से बढ़ता गया। महज ऑडियो कैसेट सुन-सुन कर डॉ. ठाकुर ने एमए,जेआरएफ,पीएचडी, सेल टैक्स और आईएएस जैसी सफलता की सीढिय़ां बिना किसी बाधा के और उल्लेखनीय सफलता के हासिल कर ली। आज वह भारतीय डाक सेवा (आईपीएस) के अफसर के नाते 5 जिलों का डाक विभाग बिना किसी बाधा के संभाल रहे हैं।

चर्चा करते हुए डॉ. ठाकुर मंगलवार की दोपहर सिविक सेंटर स्थित अपने दफ्तर में रूटीन का काम-काम भी निपटा रहे थे। फाइलों पर दस्तखत करने उनके सहायक एल्युमिनियम की विशेष पट्टी दस्तखत वाली जगह रख रहे थे और डॉ. ठाकुर बेहद सहज होकर दस्तखत करते हुए लगातार फाइलें भी निपटा रहे थे। बात शुरू करते हुए उन्होंने कहा- मेरा स्टाफ ही मेरी आंखें हैं, इसलिए मुझे कभी भी असहज नहीं लगता। ऑफिस के बाहर परिजनों और दोस्तों ने कभी मेरा हौसला टूटने नहीं दिया। बिलासपुर दैहान पारा के मूल निवासी डॉ. ठाकुर ने बताया कि स्कूल तक तो स्थिति कुछ ठीक थी लेकिन धीरे-धीरे रोशनी कम होती गई। न्यूरो रैटिन्याओरिस की वजह से कॉलेज पहुंचते तक दोनों आंखों की रोशनी जा चुकी थी। इसका थोड़ा अफसोस तो हुआ लेकिन मैने अपना लक्ष्य पहले ही तय कर रखा था। दोस्तों की मदद से मैं पढ़ाई पूरी कर रहा था। दोस्त किताबें पढ़ते तो उन्हें मैं रिकार्ड कर लेता और इस तरह एमए (इतिहास) में दाखिला लिया। गुरू घासीदास विश्वविद्यालय से 2002 में मैने गोल्ड मैडल के साथ एमए किया। इसके पहले एमए प्रिवियस के दौरान यूजीसी का जूनियर रिसर्च फैलो (जेआरएफ)क्लियर कर चुका था। जेआरएफ दूसरी बार भी किया और लगातार दो बार जेआरएफ क्लियर करने वाला मैं देश का पहला युवा हूं। इसके बाद राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा में सेल टैक्स आफिसर के तौर पर चयनित हुआ। इस दौरान आईएएस की तैयारी भी कर रहा था। मैने परीक्षा दी और 2009 में 435 वें रैंक के साथ मुझे आईपीएस दिया गया। इस बीच मैने 2010 में आधुनिक भारतीय इतिहास पर पीएचडी भी पूरी कर ली। डॉ. ठाकुर का कहना है कि यहां 5 जिलों की डाक सेवा का नियंत्रण और संचालन करना कभी भी मुश्किल नहीं रहा, क्योंकि अभ्यास और अनुभव की वजह से अब सब कुछ सहज लगता है।

'टॉक्स' और 'जॉका' ने बनाया आईटी फ्रैंडली
भारतीय खाद्य निगम में प्रबंधक प्रहलाद सिंह ठाकुर और गृहिणी ममता सिंह ठाकुर के पुत्र डॉ. आशीष सिंह ठाकुर ने बताया कि एक सामान्य जीवन जीने में उन्हें दिक्कत नहीं आती। वह मोबाइल और लैपटॉप भी सहजता से इस्तेमाल करते हैं। मोबाइल में 'टॉक्स' और लैपटॉप में 'जॉका' साफ्टवेयर है। इससे मोबाइल-लैपटॉप का कोई भी की-बोर्ड दबाने अथवा स्क्रीन पर कुछ भी डिस्प्ले होने की स्थिति में यह साफ्टवेयर उसे पढ़ देता है। इसलिए कॉल करने और लैपटॉप पर फाइलें पढऩे (सुनने) में कोई दिक्कत नहीं आती।

Sunday, October 21, 2012

भिलाइयन की कंपनी हुई ट्विटर के संग

सॉफ्टवेयर कंपनियों के अंतरराष्ट्रीय बाजार में बड़ी हलचल

'डेजियेंट' की संस्थापक टीम के सदस्य नील दासवानी, अमित रणदिवे और शारिक रिजवी
साफ्टवेयर कंपनियों के अंतरराष्ट्रीय बाजार में इस हफ्ते बड़ी हलचल हुई। दुनिया भर में सर्वाधिक लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग साइट 'ट्विटर' ने अमेरिका की इंटरनेट सिक्यूरिटी कंपनी 'डेजियेंट स्टार्ट अप' का अधिग्रहण कर लिया है। यह अधिग्रहण भारतीय और अमेरिकी मीडिया की सुर्खी बना हुआ है। खास बात यह है कि 'डेजियेंट' का कर्ता-धर्ता भिलाई का होनहार नौजवान शारिक रिजवी है। शारिक अपनी इस उपलब्धि से बेहद खुश है। उन्होंने चर्चा में इस अधिग्रहण की जानकारी देते हुए कहा कि -मर्जर के तुरंत बाद वह और उनकी टीम सैन फ्रांसिस्को में ट्विटर इंजीनियरिंग की टीम ज्वाइन कर चुके हैं।
भिलाई में पले-बढ़े शारिक रिजवी ने 1999 में आईआईटी में देश भर में पांचवां स्थान हासिल करने के बाद आईआईटी मुंबई में दाखिला लिया था। जहां से 2003 में वह यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया एट बर्कले में फैलोशिप के तहत पीएचडी के लिए गए। यहां 2008 में 'डेजियेंट' की रुप रेखा बनीं और अमेरिकन-इंडियन नील दासवानी, अमित रणदिवे और अन्य लोगों के साथ मिलकर 2009 जून में इसकी विधिवत लांचिंग  कर दी। तब से 'डेजियेंटÓ ने वेब स्केल सिक्यूरिटी प्रॉब्लम माल वेयर और दूसरी तरह के  दुरुपयोग से संबंधित समस्याओं को सुलझाने पर ध्यान केंद्रित किया। इसके लिए डेजियेंट ने  बहुत सी नई पहल की, जो आज भी जारी है। शारिक ने बताया कि इस अधिग्रहण के बाद उनकी कंपनी अपनी तकनीक और टीम दुनिया के सबसे बड़े रियल टाइम इन्फरमेशन नेटवर्क 'ट्विटर' के लिए उपलब्ध करा चुकी है। इस अधिग्रहण के महत्व पर उन्होंने बताया कि यह एक बड़ी उपलब्धि इसलिए भी है क्योंकि सिलिकॉन वैली में बहुत सी साफ्टवेयर कंपनियां 'स्टार्ट-अप' तो होती है लेकिन 90 फीसदी से ज्यादा सफल नहीं हो पाती। उनकी टीम खुशकिस्मत है कि न सिर्फ यह सफलतापूर्वक चली बल्कि अब दुनिया की सबसे बड़ी और बहुचर्चित कंपनी का हिस्सा भी बन गई है। अब तक 'डेजियेंट' ने गूगल वेंचर्स, राडार पार्टनर, फ्लड गेट और बेनहामुओ ग्लोबल वेंचर्स जैसी नामचीन कंपनियों को अपनी सेवाएं उपलब्ध कराई हैं। आगे अब 'ट्विटर' का हिस्सा बन कर एक नया आयाम स्थापित करने जा रही है। शारिक ने भिलाई की उत्कृष्ट शिक्षा व्यवस्था को अपने करियर की नींव बताते हुए इसे ही इस सफलता का श्रेय दिया है।
29 जनवरी 2012 (c)

Saturday, October 20, 2012

भिलाई का वैज्ञानिक जुटा है मानव जाति की जड़ें तलाशनें

डार्विन का वंशज भी जुड़ा है इस महाअभियान से 

अजय राय्युरू
 इस्पात नगरी भिलाई का युवा वैज्ञानिक अजय राय्युरू अंतर्राष्टरीय स्तर की एक महत्वपूर्ण परियोजना का नेतृत्व कर रहा है। इस परियोजना के तहत यह पता लगाया जा रहा है कि  मानव जाति के  कहां से कहां तक का सफर करते हुए पूरी दुनिया में फैलते गए। अपनी जड़ों को तलाशने की इस मुहिम से हाल ही में क्रिस डार्विन भी जुड़ चुके हैं। क्रिस दुनिया को अनुवांशिकी का सिद्धांत देने वाले वैज्ञानिक चाल्र्स डार्विन के वंशज हैं। अजय राय्युरू इस महत्वकांक्षी परियोजना को लेकर बेहद उत्साहित हैं।

चर्चा मेअजय राय्युरू ने बताया कि नेशनल ज्योग्राफिक चैनल और आईबीएम संयुक्त रूप यह परियोजना 'जिनोग्राफिक प्रोजेक्ट' के नाम से पिछले 4 साल से चला रहे हैं। इस मुहिम में अब  तक 4 लाख से भी ज्यादा नमूने ले कर उनका विश्लेषण किया जा चुका है। उल्लेखनीय है कि अजय इस परियोजना में आईबीएम की ओर से प्रभारी हैं। जनभागीदारी से चल रही विश्व की सबसे अनूठी और बड़ी परियोजनाओं में से एक 'जिनोग्राफिक प्रोजेक्ट' में किसी भी मनुष्य के गाल के अंदरूनी हिस्से को खुरच कर लार के साथ उसके नमूने लिए जाते हैं। जिनका प्रयोगशाला में विश्लेषण किया जाता है। अजय भिलाई के हैं और सेक्टर-10 सीनियर सेकंडरी स्कूल के पूर्व छात्र रहे हैं इसलिए उन्होंने इस प्रोजेक्ट की शुरूआत में ही अपने सेक्टर-10 स्कूल के एक छात्र के नमूने लेकर भिलाई की भागीदारी भी इस प्रोजेक्ट में दर्ज कर ली थी। अजय ने बताया कि इस प्रोजेक्ट की गतिविधियों से प्रभावित होकर महान वैज्ञानिक चाल्र्स डार्विन के प्रपौत्र के प्रपौत्र (ग्रेट-ग्रेट ग्रैंड सन) क्रिस डार्विन ने भी अपनी भागीदारी दी है।

चाल्र्स डार्विन 
अजय ने बताया कि चाल्र्स डार्विन ने अपनी पुस्तक 'ओरिजिन आफ स्पीशिस' में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि सभी मनुष्य एक ही पूर्वज से आए हैं। चाल्र्स डार्विन के जन्म के दो सौ साल बाद डीएनए टेक्नालॉजी द्वारा इसी अवधारणा की पुष्टिï अब 'जिनोग्राफिक प्रोजेक्ट' में  और बेहतर ढंग से हो है। ब्ल्यू माउंटेन सिडनी में रहने वाले डार्विन के वंशज क्रिस डार्विन ने जिनोग्राफिक पब्लिक पार्टिसिपेशन प्रोजेक्ट के तहत अपने नमूने दिए थे। जिसमे उनके वाई क्रोमोसोम का विश्लेषण किया गया। इससे यह पता चला कि चाल्र्स डार्विन के पूर्वज 45 हजार साल पहले अफ्रीका से निकले थे।

क्रिस डार्विन 
अजय ने बताया कि क्रिस इस परिणाम से बेहद खुश हैं। इसी साल फरवरी में क्रिस से मुलाकात हुई थी।  अजय ने बताया कि क्रिस डार्विन के दिए नमूने के विश्लेषण से यह  निष्कर्ष भी निकला है कि उनके पूर्वजों में पितृत्व की श्रृंखला हैपलो ग्रुप आर वन बी से और उनकी मां की ओर से वह हैपलो ग्रुप 'के' से हैं। उन्होंने बताया कि यूरोप में ज्यादातर हैपलो ग्रुप आर वन बी से हैं। इस समूह का एक भाग अफ्रीका से 40 हजार साल पहले ईरान और दक्षिण मध्य एशिया मे पहुंचा था। उसके बाद 35 हजार साल पहले यूरोप में यह ग्रुप पहुंचा। फिर धीरे-धीरे यह यूरोप मे बसते गए हैं। अजय के मुताबिक यह प्रोजेक्ट बहुत महत्वपूर्ण है इससे सही अनुमान लगाया जा सकता है कि मानव जाति ने एक जगह से दूसरी जगह कैसे प्रवास तय किया। 100 डालर की भागीदारी फीस का भुगतान कर इस महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट से कोई भी जुड़ सकता है। अजय ने बताया कि भारत में इस प्रोजेक्ट के तहत नमूने लेने का काम चल रहा है और मदुरई के प्रोफेसर पिच्चप्पन इसे देख रहे हैं। अभी भारत मे नमूनों का विश्लेषण होना है। इसके उपरांत इसे शोधपत्र में प्रकाशित कराया जाएगा।
भिलाई,15 जून 2010 (C)

 मैं साहिर-शैलेंद्र बनने आया था, मुझे लोग

 'समीर' बनाना चाहते थे: राहत इंदौरी 


हुसैन के मुद्दे पर हिंदुस्तान की पेशानी पर जो तिलक

लगाने की कोशिश कर रहे हैं वो दाग बन जाएगा.....


मुहम्मद ज़ाकिर हुसैन 
भिलाई में 2010 में इंटरव्यू के दौरान रहत इंदौरी 
इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर,शायर और पेंटर डा. राहतुल्लाह कुरैशी से फिल्मों के गीतकार डा. राहत इंदौरी तक का सफर अपने आप में कई दास्तां समेटे हुए है। 
गीतकार राहत इंदौरी चाहते तो बहुत कम बताना हैं लेकिन उनकी बातों में इतनी साफगोई है कि इंटरव्यू के दौरान बहुत सी बातों पर परदा डालने की कोशिश करते हुए भी वह कामयाब नहीं हो पाते हैं। 
एक मुशायरे के सिलसिले में 10 अप्रैल 2010 को भिलाई आए डा.राहत इंदौरी से मेरी लंबी गुफ्तगू हुई थी। शाम का वक्त था और राहत पूरी तरह फुरसत में थे। ऐसे में खुद के फिल्मी सफर नामे से लेकर हाल में मकबूल फिदा हुसैन के देश छोडऩे जैसे मुद्दे पर उन्होंने पूरे इत्मिनान के साथ बात की।
 कई बार कुछ ऐसे सवाल भी आए जिसमें उन्होंने साफ तौर पर यह भी कह दिया कि 'यह सब बताना मेरी कमीनगी होगी' फिर बात की रौ में राहत कुछ ऐसे बह गए कि सब कुछ साफ बयानी के साथ बता दिया। राहत इंदौरी से हुई ये बातचीत बिना ज्यादा काट-छांट के।

इंदौर से मुंबई का रूख क्यों कर हुआ..?

शरीके  हयात के साथ साभार-फेसबुक 
मैं इसलिए गया था कि बंबई वाले भरपूर पैसा देते हैं और साथ में थोड़ी बहुत शोहरत भी दे देते हैं। 
इंदौर में रहते हुए शोहरत मेरे पास पहले से थी फिर बंबई आने के बाद पैसा इतना आ गया कि बस अल्लाह का करम है। 
मैं 10-20 दिन के बाद अपने घर इंदौर जाता हूं तो मेरे पास कितना पैसा होता है, मुझे खुद नहीं मालूम, मैं अपनी बीवी को दे देता हूं देख लेना गिन लो। 
अब पैसा भी मेरा प्राब्लम नहीं रहा और शोहरत भी मेरा प्राब्लम नहीं रहा। मैनें कभी भी फिल्मों में ज्यादा नहीं लिखा और शौकिया ज्यादा लिखा।




...तो ये 'शौकिया' लिखने की शुरूआत कैसे हुई?

 
राहत इंदौरी परिवार के  साथ. साभार फेसबुक पेज 
उन दिनों मैं इंदौर की देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर था।

 टी सीरिज के मालिक गुलशन कुमार ने तब कई फोन काल आए, लोगों ने कहा कि आप उनसे बात कर लीजिए। 
फिर एक बंदा खुद चल कर आया कि खुदा के वास्ते उनसे बात कर लीजिए। गुलशन कुमार एक फिल्म बना रहे थे 'शबनम'। मेरी एक बहुत पुरानी गजल का मतला था -झील अच्छा है, कंवल अच्छा है,जाम अच्छा है,तेरी आंखों के लिए कौन सा नाम अच्छा है।
 उन्होंने पूछा ये आपका है, मैनें कहा-जी हां ये मेरा है। उन्होंने कहा आ जाइए, इस गीत को पूरा कर लीजिए। 
मैनें कहा साहब मैं तो पंजाब जा रहा हूं, मुशायरे लगे हुए हैं। उन्होंने कहा सब छोड़ दीजिए,जो आपके नुकसानात होंगे वह सब हम देंगे। 
मैं सब छोड़ कर चले गया। गुलशन कुमार ने वहां पूछा - राहत भाई हमारे लिए क्या है आपके पास? मैनें कहा, आपके लिए कुछ भी नहीं है मेरे पास, एक लाइन भी नहीं है। 
मैंनें कहा कि अगर आप बता दें, अगर आप बता दें सही-सही और मैं आपकी बात को सही-सही समझ गया तो मुझसे बेहतर कोई लिख ही नहीं सकता। उन्होंने खुद कार ड्राइव करते हुए सड़क पे गाने की सिचुएशन सुनाई।
 फिर दूसरे तीसरे दिन जब मैनें गीत लिख कर दिए तो फिल्म के लिए नहीं बल्कि  उन्होंने ये सभी14 गाने एक साथ एक एलबम 'आशियाना' के लिए अनुराधा पौडवाल-पंकज उधास की आवाज में छह दिन रिकार्ड कर लिए। उन्होंने खूब पैसे दिए। पैसे किसको अच्छे नहीं लगते हैं,लिहाजा मैं भी वहां रूकता गया।
 फिर अन्नू मलिक के साथ मैंनें महेश भट्ट  के लिए 'सर' फिल्म में गीत लिखे और इसके बाद महेश भट्ट,मेरी और अन्नू की ट्यूनिंग सी बन गई। भट्ट कैंप की ज्यादातर फिल्मों में मैनें गीत लिखे।

जैसा आप चाहते थे, फिल्मों में वैसा लिख पाते हैं.?

इंटरव्यू के दौरान 
सच कहूं तो मैं फिल्मी दुनिया में गया था साहिर-शैलेंद्र बनने के लिए लेकिन ये फिल्मवाले मुझे 'समीर' बनाने के चक्कर में लगे रहे। इस वजह से मैं बहुत जगह अनफिट  भी रहा।
 मुझे जब-जब शायरी के लिए बंबई ने पुकारा मैं वहां नजर आया। मैनें विधु विनोद चोपड़ा के लिए 'करीब' फिल्म में जब लिखा कि 'रिश्तों के नीले भंवर कुछ और गहरे हुए गए, तेरे मेरे साए हैं पानी पे ठहरे हुए, जब प्यार का मोती गिरा, बनने लगा दायरा' तो बड़ी तसल्ली हुई।
 'मुन्ना भाई' के गीत लिखने के बाद जब मैं अमेरिका मुशायरे के सिलसिले में गया तो देखा कि वहां कुछ बच्चे गुनगुना रहे हैं-चंदा मामा सो गए सूरज चाचू जागे। 
मैनें आज के सभी टॉप डायरेक्टर महेश भट्ट, राजकुमार संतोषी, अब्बास-मस्तान सहित कई लोगों के लिए लिखा। लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ कि मुझसे  नाच मेरी जान फटाफट, चार फीट की घोड़ी और छह फीट का घोड़ा, टन टना टन, टन टन तारा टाइप के गाने लिखवाने की कोशिश भी की गई, जिस पर मैनें सॉरी बोल इंदौर लौटना मुनासिब समझा। 
फिर एक वक्त आया जब फिल्म वाले भी समझ गए कि वे मुझसे बुरा लिखवाएंगे तो मैं भाग जाऊंगा और भाग के इधर भिलाई आ जाऊंगा मुशायरे में या फिर किसी और शहर चला जाऊंगा। क्योंकि अब पैसा मेरा प्राब्लम नहीं रहा।

क्या वाकई अब पैसा आपका प्राब्लम नहीं रहा और आज फिल्मों में म्यूजिक का ट्रेंड कैसा देखते हैं ?


मेरा खयाल है पिछले 10 बरस में मैनें कोई 3-4 दर्जन सुपर-डुपर हिट फिल्मी गीत दिए। मैंनें गोल्डन जुबली और सिल्वर जुबली फिल्में दी। मैनें मिशन कश्मीर, करीब ,मुन्ना भाई एमबीबीएस जैसी कई हिट फिल्मों मे गीत लिखे।
 मैनें इतना लिखा कि मुझे पैसा बहुत आ जाता है। लाखों का चेक हर साल सितंबर और मार्च में आ जाता है। अगर मैं समीर की तरह गाने लिख देता तो शायद इससे कहीं ज्यादा पैसे आते और मैं तो कभी घर से ही नहीं निकलता। इसलिए वाकई अब मेरा प्राब्लम पैसा नहीं, मेरा प्राब्लम पोएट्री है।
ये बड़ा अजीब मामला है कि आज फिल्मों का जो म्यूजिक है वो प्रोड्यूसर-डायरेक्टर या म्यूजिक डायरेक्टर के भी हाथ में नहीं रहा। वो अब म्यूजिक कंपनी के हाथ में आ गया है।
 गुलशन कुमार ने ये ट्रेंड शुरू किया था कि गाना चाहे कोई भी हो आप रिकार्ड कीजिए,हम बैंक बना देंगे। अब आज ढेर सारी म्यूजिक कंपनियां हैं। जब फिल्म का प्रोजेक्ट जब शुरू होता है तो सबसे पहले प्रोड्यूसर- डायरेक्टर म्यूजिक कंपनी के लोगों को बुलाते हैं ।
 ये म्यूजिक कंपनी वाले बताते हैं कि साहब हम फलां-फलां गाना कर रहे हैं। अब जो डायरेक्टर-प्रोड्यूसर म्यूजिक का अलीफ-बे भी नहीं जानता वो ओके-ओके कह देता है। इस तरह पहले गाने से फिल्म का मुहूर्त भी हो जाता है।

आज फिल्मों में गीतों की कितनी अहमियत रह गई है?

हकीकत ये है कि आज के ज्यादातर गानों का किसी भी फिल्म की कहानी से कोई ताल्लुक नहीं रह गया है। पहले हमारी फिल्म में जो गाने आते थे उनका बाकायदा कहानी से ताल्लुक होता था।
 मसलन आप 'मदर इंडिया' फिल्म से 'मतवाला जिया डोले पिया,झूमे घटा छाए रे बादल' को आप हटा दीजिए, फिल्म की कहानी भटक जाएगी। अब ये होता है कि जब गाना आ जाता है तो कहानी खत्म हो जाती है। उस गाने का उस कहानी से कोई ताल्लुक नहीं  होता है।
 अब ये होता है कि वो गाना इस फिल्म से हटा कर दूसरी फिल्म में रख दिया जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि सिचुएशन एक सी होती है। एक लड़की है और एक लड़का है और बाग में ढेर सारे एक्स्ट्रा के साथ गा रहे हैं। 
तो इस गीत को आप इस फिल्म से हटाकर दूसरी फिल्म में रख लीजिए कोई फर्क नहीं पड़ेगा। कई बार ऐसे गीत हम खुद भी लिख देते हैं, लेकिन हमारे अंदर का शायर हमें इनकार करता है कि ये क्या कर रहे हैं आप कुछ हजार रूपए के चेक के लिए।

ये कैसे मुमकिन है कि फैक्ट्री की तरह हर दूसरी फिल्म में किसी के गीत  लगातार आते रहें ? समीर, इंदीवर हो या आनंद बख्शी....

(बीच में टोकते हुए) आपका ये सवाल जरा मुश्किल है और इसका जवाब भी मुश्किल है। आप सिर्फ समीर या इंदीवर के मुताल्लिक सवाल नहीं कर रहे हैं बल्कि इनका इशारा कर आप उन लोगों की बातें कर रहे हैं जो हमारे सीनियर हैं और बड़े लोग हैं जिसमें शकील, साहिर और हसरत सहित दूसरे लोग भी आ जाएंगे।
 हां, होता है ऐसे लेकिन मेरे साथ ये कभी नहीं हुआ। अगर दूसरों से गीत लिखाने बहुत से बड़े नाम किराए के लोग रखते भी होंगे तो मुझे नहीं मालूम। मैनें तो कभी नहीं रखे। 
जैसा आप कह रहे हैं तो सच है कि  एक जमाना था कि इंदीवर हर दूसरी फिल्म में लिखता था। एक जमाना मेरा भी था कि जब मैनें फिल्म लाइन ज्वाइन की तो हर तीसरी फिल्म मेरी थी। 
सुपर-डुपर फिल्में मैनें लिखी लेकिन मैनें कभी ओढ़ा नहीं फिल्म को। इतराया नहीं मैं कि मैं फिल्म राइटर हूं।

इंडस्ट्री में ये ट्रेंड तो चलता रहा है..?

मैं  इसका जवाब नहीं देना चाहता। आप बार-बार कुरेद रहे हैं उसके बावजूद मैं नाम नहीं लेना चाह रहा हूं क्योंकि ये सब मेरे बड़े हैं मेरे दोस्त हैं।
 अलबत्ता ये जरूर है कि कोई मुखड़ा या गीत का बंद पसंद आ गया डायरेक्टर को। मसलन मुझको यारों माफ करना मैं नशे में हूं। डायरेक्टर जीपी सिप्पी लेकर गए शंकर-जयकिशन साहब के पास।
 उन्होंने पूछा ये किसका है जवाब मिला जिसका भी हो ये अच्छा है और ये मुखड़ा चाहिए। रिकार्ड करो। तो ऐसे काम बहुत हुए हैं इसमें मैं किसी का नाम नहीं लूंगा और लेना भी नहीं चाहिए मुझे।

...तो क्या आपके साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ..?

भिलाई में राहत इंदौरी,पीछे बैठे उस्ताद शायर बदरुल कुरैशी 'बद्र '
कई गाने ऐसे हैं। मैनें मैक्जिमम वर्क किया है अन्नू मलिक के साथ। अन्नू ने कहा कि राहत यार ये मुखड़ा मेरे मामू हसरत (जयपुरी) का है। अब वो बीमार रहते हैं,ये गाना तू कंपलीट कर दे,पैसे तेरे को नहीं मिलेंगे लेकिन उनके पास पहुंच जाएंगे। तो,मुझे खुशी हुई।
वो गाना था फिल्म 'मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी' का 'पास वो आने लगे जरा-जरा..' । आप सीडी उठा कर देखेंगे तो गीतकार की जगह हसरत जयपुरी लिखा हुआ है। कई बार हुआ कि यार, ऐसा कर दो या ऐसा कर दो। तो,मैंनें कई बार कई लोगों के लिए ऐसा काम किया। तो उसके मुझे पैसे भी नहीं मिले, नाम भी किसी और का हुआ। 
ऐसा मैनें कई बार किया। फिर ऐसा भी हुआ कि मैनें गाना लिख लिया लेकिन रिकार्ड हुआ किसी और का लिखा हुआ। मसलन, एक फिल्म महेश भट्ट की ' द जेंटलमैन' थी।
 मुझे सिचुएशन दी गई गीत लिखने। किसी वजह से मैं 3-4 दिन बाद गीत लेकर पहुंचा तो मालूम चला कि वो गीत तो इंदीवर ने लिख भी दिया और रिकार्ड भी हो गया।
ये गीत था 'रूप सुहाना लगता है चांद पुराना लगता है तेरे आगे ओ जानम'। मैंनें सुना तो मुझे धक्का सा लगा। वैसे तो मैं इंदीवर जैसी शख्सियत को मैं आज भी सैल्यूट करता हूं। लेकिन, उस रोज इस गीत को लेकर मेरी इंदीवर से थोड़ी सख्त लहजे में बात हो गई। 
वो इसलिए क्योंकि इस गीत का मुखड़ा इंदीवर ने कैफ भोपाली की लिखी गजल के मतले से उठा लिया था। उनका मतला था-तेरे आगे चांद पुराना लगता है तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है।
तो, मैनें इंदीवर को कहा कि यार, ये तुमने एक फकीर आदमी की लाइनें मार ली। इंदीवर बोले मुझे म्यूजिक डायरेक्टर ने कहा था कि इसको गाना कर ले। ऐसा तो होता रहता है।

यानि इंडस्ट्री में ये सब आम बात है?

देखिए, ये इंडस्ट्री की ये ट्रेजेडी भी रही और ट्रेंड भी रहा। अब बात निकल ही गई  है तो मैं बताऊं,हमारे बुजुर्ग और बड़े बेतकल्लुफ दोस्तों में थे खुमार बाराबंकवी। उन्होंने फिल्मों में अपने लिए और दूसरों के लिए खूब लिखा है। जब वो मूड में हों तो हम लोगों को शराब  भी खूब पिलाते थे। 
ऐसे तो वो फिल्मी दुनिया पर ज्यादा बात नहीं करते थे लेकिन कभी मूड में हो तो हम लोग ही छेड़ देते थे कि खुमार भाई, बताओ आप ने कौन-कौन से गाने दूसरों के लिए लिखे। तो वो गा कर सुनाते लग जाते थे- ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम ना होंगे, हमीं से मोहब्बत हमीं से लड़ाई, अरे मार डाला दुहाई-दुहाई।
 उनके मुंह से ऐसी कड़वी हकीकत सुन कर हम तो पागल हो जाते थे क्योंकि उनके बताए ज्यादातर गाने शकील बदायूंनी के नाम पर है। ऐसा इंडस्ट्री में बहुत हुआ और लोगों ने बहुत किया।

आपके अंदर का शायर कभी फिल्मी गीतकार पर हावी नहीं होता..?

देखिए, दोनों अलग-अलग बातें हैं। मुशायरों में तो राहत इंदौरी ही होता है। मुझे ये कहने वाला कोई नहीं होता कि ये पढऩा है या ये नहीं पढऩा। ये सुनाना है या ये नहीं सुनाना है। 
फिल्मों में मुझे मेरे सर पर मेरा चेक जो है वो मुझे मजबूर करता है कि आपको ये लिखना है और ये नहीं लिखना है। फिल्मों में वो लिखना पड़ता है जो हमसे हमारा डायरेक्टर और प्रोड्यूसर चाहता है। मुशायरे में ये नहीं होता बल्कि हम अपनी मर्जी का सुनाते हैंं।
 अवाम की  तारीफ,उनकी तहसीन,उनकी तालियां मेरे लिए करोड़ों रूपए की जायजाद है। फिल्म का मामला कुछ ऐसा है कि -गिन-गिन के सिक्के हाथ मेरा खुरदुरा हुआ,जाती रही वो हाथ की नरमी, बुरा हुआ। ये शेर मेरा नहीं बल्कि जावेद अख्तर का है।

इन दिनों किन फिल्मों के लिए गीत लिख रहे हैं आप?

मैं शुरू से ही सलेक्टिव लिखने में यकीन रखता रहा हूं। इन दिनों मैं एक बहुत बड़े प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूं। एमएफ हुसैन इन दिनों 'माजरा' बना रहे हैं। जिसके गीत लिखने का मौका उन्होंने मुझे दिया है।
 दरअसल उनकी पिछली दो फिल्मों 'गजगामिनी' और 'मीनाक्षी-ए टेल ऑफ़ थ्री सिटीज़' में भी मैनें ही गीत लिखे थे। फिर जब हुसैन ने अपनी तीसरी फिल्म 'माजरा' पर काम शुरू किया तो उन्होंने मुझे बुलाया। बातचीत के दौरान मैनें पूछ लिया कि-आपकी कास्टिंग क्या है, कौन काम कर रहा है आपकी फिल्म में? तो, उन्होंने मुझे बड़ा दिलचस्प जवाब दिया कि राहत, हमारी फिल्म की जो कास्टिंग है वो है लैंड स्केप, कलर और पोएट्री।
 तो मैं फौरन तैयार हो गया क्योंकि मैं लैंड स्केप भी जानता हूं, कलर्स भी जानता हूं और पोएट्री भी जानता हूं। तो मैं उनकी 'माजरा' के लिए काम कर रहा हूं,छह-सात गाने मैं लिख चुका हूं।
हुसैन के बेटे ओवैस हुसैन की मौजूदगी में इन दिनों कुल्लू मनाली मे फिल्म की शूटिंग भी चल रही है। इस फिल्म के सिलसिले में भी मैं दुबई जाकर हुसैन से मिलता रहता हूं।

हुसैन का कतर की नागरिकता लेना क्या सचमुच इतना गंभीर मसला है?

मुझे खुद समझ नहीं आता कि आखिर हुसैन के नाम पर इतना हौव्वा क्यों खड़ा किया जा रहा है। कोई 8-10 साल पहले अमिताभ बच्चन ने अमेरिका की नागरिकता ले ली थी। अभी भी अमिताभ के पास दोहरी नागरिकता है। कोई अमिताभ से तो कुछ नहीं पूछता।
अब आज ये बात आप मीडिया के लोग भी भूल गए हैं, तो मुझे हैरत है। हमारे एनआरआई लाखों की तादाद में हैं जो अमेरिका,कनाडा,ब्रिटेन और फ्रांस सहित कई मुल्कों में वहां की  नागरिकता रखते हैं, इसके बावजूद वो हिंदुस्तानी भी है।
अभी मैनें अखबार में पढ़ा कि लंदन का शेरिफ हिंदुस्तानी है। तो, इससे क्या फर्क पड़ता है। हां, लेकिन ये अफसोस की बात है कि एक 96 बरस का बूढ़ा पेंटर जो सारी दुनिया में फख्र की नजर से देखा जाता है उसे सिर्फ सियासत की वजह से हिंदुस्तान को छोडऩा पड़ा। 
मेरा कहना है कि अगर 96 बरस का एक बूढ़ा अगर कतर में मर जाता है तो मेरी नजर में ये हिंदुस्तान का सबसे बड़ा सियासी कत्ल होगा।

अपने हिंदुस्तान के बगैर हुसैन किस हाल में हैं वहां?

सच बताऊं तो हिंदुस्तान का जिक्र आते ही हुसैन की आंखें नम हो जाती  है। अभी पिछले महिने लंदन के एक होटल में वो मुझसे मिलने आए। हम लोग खाना खा रहे थे तो भीगी आंखों से कहने लगे, राहत, मैंनें सारी जिंदगी पूरी दुनिया में घूमते-घूमते गुजार दी।
 हमेशा मेरी जेब में अलग-अलग मुल्क के 5 टिकट ,पासपोर्ट वीजा सब कुछ होता है। फिर एयरपोर्ट में जाता हूं तो लगता है कि यहां मत जाओ यार किसी छठें मुल्क में चलों।
 घर में बच्चों से कह कर आता हूं कि शाम में इकट्ठे खाना खाएंगे लेकिन अक्सर यह होता है कि शाम को किसी और मुल्क भी पहुंच जाता हूं मैं। पूरी दुनिया में जिस वक्त चाहूं जा सकता हूं लेकिन मेरी आंख में आंसू आ जाते है कि इन सबके बावजूद मैं अपने मुल्क हिंदुस्तान नहीं जा सकता हूं। हुसैन कहते हैं कि-यार, मैं  यहां मिस कर रहा हूं अपनी दिल्ली, अमरोहा, जैसलमेर बाड़मेर और न जाने कितने हिंदुस्तानी शहर, गांव, बस्ती। जो मेरे ब्रश है मेरे कलर हैं मेरे अपने मुल्क के।

वहां रहते हुए हुसैन की जीवन शैली में बदलाव आया..?

बिल्कुल नहीं। आज भी वह इंसान नंगे पैर पूरी दुनिया नाप रहा है। मेरी हुसैन से लंदन,दुबई और कतर में मुलाकात होते रहती है। मुख्तलिफ मुल्कों में वो जहां होता है एमएफ हुसैन होता है।
 आपको जान कर हैरत होगी कि दुबई में वो बुगादी कार में मुझसे मिलने आए थे। ये कार पूरे मिडिल इस्ट में सिर्फ 4 लोगों के पास है।
 और वो चारों वहां अपने-अपने मुल्क के बादशाह हैं। हम हिंदुस्तानियों को खुश होना चाहिए कि एक आदमी हमारे  देश  का ऐसा है जो इस हाल में है।

....लेकिन क्या  एक इस्लामी मुल्क में हुसैन उतनी ही आजादी से अपने 'घोड़े' दौड़ा पाएंगे ?

वहां हुसैन अपने 'घोड़े' दौड़ा पाएंगे नहीं बल्कि दौड़ा रहे हैं और पूरी आजादी के साथ। जनवरी में जब वो मुझसे मिलने दुबई आए थे तो उन्होंने कहा कि-राहत यार मैं कल कतर जा रहा हूं। वहां के शाह के कहने पर कतर की सौ बरस की तहजीब को पेंट करना है। मैं कल चला जाऊंगा। 
खैर, कुछ दिनों के बाद उन्होंने टेलीफोन किया और बताया कि आजकल वह कांच के घोड़े बना रहे हैं शाह के महल में। फिर एक हफ्ते बाद मैंनें फोन किया तो उन्होंने कहा कि मुझे कतर की सिटीजनशिप आफर की थी और मैंने वह कुबूल कर ली है। 
मुझे एक सदमा सा पहुंचा लेकिन जैसा मैनें पहले ही कहा कि आदमी या तो मजबूरी में फैसले लेता है खौफ में या दबाव में लेता है। तो हुसैन के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला समझिए।

 ...तो क्या हुसैन का हिंदुस्तान छोडऩा वाकई बहुत बड़ा नुकसान है..?

देखिए, सच्चे कलाकार के लिए जमीन या कोई देश या कोई इलाका नहीं होता। रोशनी जहां होगी अपना नूर फैलाएगी। हुसैन जहां रहेंगे अपनी कला बिखेरेंगे। कब तक आप सियासत करेंगे हुसैन के नाम पर। साल, दो साल, चार साल। ये जो हमारी सदियों की तहजीबें हैं। 
जिसे आप कह रहे हो नग्नता है तो ये खजुराहो के मंदिर कहां लेकर जाओगे आप? सुप्रीम कोर्ट में जब हुसैन के खिलाफ मुकद्दमे हटाए गए तो जज ने कहा कि जिन लोगों ने ये मुकद्दमें किए हैं वो जाहिल हैं और समझते ही नहीं है कि आर्ट क्या होता है।
आप अजंता-एलोरा कहां लेकर जाओगे? ये हमारी अपनी तहजीबें हैं,ये खत्म नहीं की जा सकती। आपको मालूम ही नहीं कि हमारे मुल्क की गंदी सियासत की वजह आज के दौर का यह (हुसैन का मुल्क छोडऩा) कितना बड़ा नुकसान है।
यह गैलेलियों और सुकरात की तरह का मामला है। आप इस मामले को लेकर हिंदुस्तान की पेशानी पर जो तिलक लगाने की कोशिश कर रहे हैं वो हमेशा के लिए दाग़ बन जाएगा।

लेकिन, हुसैन ने तो अपना हिंदुस्तानी पासपोर्ट ही लौटा दिया है?

 मेरा कहना है कि आदमी कोई भी फैसला मजबूरी, खौफ या दबाव में लेता है। अब ये  चिदंबरम साहब जो 74 लोगों को मरवा के बैठे हुए हैं इन्होंने क्या कभी बयान दिया कि आप आइए आपकी हिफाजत की गारंटी हम लेते हैं? 
अगर वो दे भी देते तो क्या सचमुच वो ऐसा कर पाएंगे। जब वो खुद हमारे जवानों को नहीं बचा पा रहे हैं तो हुसैन जैसी शख्सियत की क्या बात करें।

खुद हुसैन इस बारे में क्या कहते हैं..?

मैं पिछले तीन  माह में छह मरतबा हुसैन से मिला* हूं। मैं मुशायरे के सिलसिले में लंदन जाऊं या दुबई। उनसे जरूर मुलाकात होती है। हुसैन ने मुझे हाल की मुलाकात में बताया कि-चिदंबरम कह रहे हैं कि हम कोशिश कर रहे हैं कि हम आपकी हिफाजत का इंतजाम करें। हम बहुत जल्दी आपको बुलवाएंगे।
 हुसैन परेशान हैं,उनका कहना है कि मेरा मुल्क है ये मेरी जमीन है ये, आखिर मेरी हिफाजत क्यों नही। इसलिए हुसैन साहब ने वो बयान भी दिया था कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को तो उनके मुहाफिजों ने मारा था। सचिन तेंदुलकर और जावेद अख्तर के घर पर शिवसेना पहुंच जाती है। ऐसे में अपने मुल्क हिंदुस्तान में कौन महफूज है।

...लेकिन 96   बरस की उम्र में हुसैन को अपनी हिफाजत को लेकर इतना खौफ क्यों..?

10 जून 2011 हुसैन का आखिरी सफर लंदन में 
देखिए, सुप्रीम कोर्ट ये फैसला दे चुका है कि हुसैन के उपर कोई केस नहीं है। 
उसके बाद बजरंग दल, आरएसएस और उनकी जमात ये कहती है कि हम कोर्ट को नहीं मानते हैं। 
 वो अगर आएंगे तो हम एहतेजाज (विरोध प्रदर्शन) करेंगे। ऐसा अखबारों में भी छपा। इसके बावजूद हिंदुस्तान की हुकूमत सब चुपचाप देख रही है। आखिर एक 96  बरस के आदमी की ज्यादा से ज्यादा उम्र क्या मान सकते हैं आप? 
आज की तारीख में बहुत हुआ तो साल भर या दो ,तीन, चार साल और। ऐसे में हुसैन का अपनी जमीन से बाहर होना इस दौर की सबसे बड़ी बदकिस्मती होगी।
*नोट -यह इंटरव्यू 10 अप्रैल 2010 का है और तब राहत इंदौरी कुछ अरसा पहले मक़बूल फ़िदा हुसैन से दुबई से मिल कर लौटे थे। क़रीब साल भर बाद 9 जून 2011 को लंदन में हुसैन का इंतेक़ाल हुआ.. إِنَّا لِلّهِ وَإِنَّـا إِلَيْهِ رَاجِعونَ