Tuesday, April 17, 2012

ये दिल का मामला है... दिल्लगी नहीं...!

जाकिर भाई इस पोस्ट को आप रोमन टाइप करके सुधार देवें (आप रोमन में लिखेंगे तो यहाँ स्पेस के बाद देवनागरी में लिखायेगा )

यह कुछ माह पहले तक की बात है, जब खुशमिजाज शख्सियत की मालिक निकोलिना बेनेडा यानि जीना मल्होत्रा की चुनिंदा सांसकृतिक कार्यक्रमों में उपस्थिति अनिवार्य हुआ करती थे। वे सिर्फ आम दर्शकों की तरह कार्यक्रम में शामिल नहीं होती थी बल्कि पूरे जोश के साथ स्टेज में भी उतर जाती थी। अब कुछ दिनों से यह सब थम सा गया है। वजह, ब्रेन ट्यूमर के सफल ऑपरेशन के बाद अब जीना जातातर वक्त घर पर ही बिताती है। लेकिन, तय मानकर चलिये इस हालत में भी उनकी जिंदादिली कायम है। यही वजह है कि जब मैंने उनक हालचाल जानने के बाद अपने आने का मकसद बताया तो वे बिस्तर से झट ऐसे उठकर बैठक गई मानों उसे कुछ हुआ नहीं। वहीं पार्कसम... जैसी घातक व्याधि से पीडि़त उनके पति व बीएसपी से सेवानिवृत्त प्रमुख धातुकर्मी मोती सागर मल्होत्रा ने जब जीना का उत्साह देखा तो जैसे उनके पुराने दिन लौट आए। कुछ रूकते हुए उन्होंने कहा अब बीतें दिनों की यादें ही बाकी है।

दरअसल मल्होत्रा दम्पति का अतीत रूमानियत से भरपुर है। शायद ज्यादातर लोग यकीन न करें, स्मृति नगर में अपने मकान में जब दोनों ने अपनी किस्सागोई शुरू करते है तो ऐसा लगता है जैसे यश चोपड़ा की कोई फिल्म चल रही है। मल्होत्रा दंपत्ति की एकमात्र बेटी ललिता (लिली) शादी के बाद नागपुर में रह रही है। श्री मल्होत्रा के भाई का परिवार अब पति-पत्नि की देखभाल करता है। खैर इसके पहले कि मैं कुछ पूंछ जीना खूद ही बोल पड़ी। युक्रेन में मकेयेवेका में मेरा घर है। 1960 में मेरी उम्र 21 बरस थी और मैं वहीं के एक अस्पताल में नर्स थी। इंडिया में हमारे यहां स्टील प्लांट में ट्रेनिंग लेने आए लोगों के बारे में मैंने सुन रखा था कि ये लोग बेहद सभ्य व सलीकेदार होते हैं। ऐसे में एक दिन शाम के वक्त मेरी मुलाकात इनसे (पास बैठे श्री मल्होत्रा मुस्कुरा दिए) हो गई। मैंने उन्हें देखा मुझे लगा मैंने हिन्दुस्तानियों को बारे में सही सुना था। फिर हमारी मुलाकातें बढ़ती गई। एक दिन शादी का वायदा करके ये इंडिया लौट गए और मैं यहां उनका इंतजार करती रहीं। जीना की बात चल ही रही थी कि श्री मल्होत्रा भी बोल पड़े। दरअसल वापस आकर मैंने मेरठ में पिताजी को पूरी बात बता दी। पिताजी नाराज तो नहीं हुए लेकिन बोले, अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद ही शादी कर सकते हो। ऐसे में हम दोनों और हमारे परिवार के बीच पत्र व्यवहार चलता रहा। जीना बताती है उन दिनों हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियों के बारे में जानने की मेरी बहुत ईच्छा होती थी। एक दिन एक रूसी पत्रिका में मैंने इंडिया राईटर खुशवंत सिंह का लेख पढ़ा। पता नहीं क्या सुझी, मैंने खुशवंत सिंह को फौरन एक पत्र भेजा की मुझे हिन्दुस्तान के बारे में और जानना है। उनका जवाब आया और उस खत से वापस में मैंने जाना कि भारत कितना महान देश है। इसके बाद 1964 में श्री मल्होत्रा की पढ़ाई पूरी हुई और रूस में हमने रजिस्टर्ड मैरिज कर ली। बात करते हुए शायद जीना को शरात सुझी और वे तपाक से बोल पड़ी मैंने तो दो शादी की। मेरे चौकते ही वह बोली इनसे ही पहले रूस में हुई फिर मेरठ में सनातन धर्म के अनुसार, समझे... ! खैर, उनका रूमानियत भरा किस्सा तो काफी लंबा था इसलिए इसे यही खत्म करते मैंने श्री मल्होत्रा से पूछा यहां भारतीय परंपरा को अपनाने में इन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। इस पर वे बोले शुरू-शुरू में इन्हेें यहां की भाषा, मशालेदार भोजन और साड़ी व सलवार सुट से परेशानी होती थी लेकिन, बात में न उन्होंने हिन्दुस्तानी खाना बनाना सीखा बल्कि हिन्दी भी सीख ली। फिर यहां भिलाई में रहते हुए पंजाबी, उडिय़ा और छत्तीसगढ़ी भी बोलने लग गई। साड़ी और सलवार सुट इनके प्रिय परिधान है। एक आर्थोडक्स क्रिश्चियन परिवार की बेटी जीना से मैंने पूछा हिन्दुस्तान आखिर क्यों पसंद है ? श्री मल्होत्रा की ओर इशारा करके वह बोली, क्योंकि यहां मेरा ‘भगवान’ है। फिर कुछ देर रूक उन्होनें कहा, सच्ची बात बताऊं तो पूरे इंडिया का आध्यात्मिक माहौल भाता है।

आज भी मैंने नियमित पूजा, ईश्वर का ध्यान व भजन करती हूं। मैंने रेकी भी सीख ली है और प्रतिदिन ‘ऊं नमो नारायण’ का जाप किए बिना मुझे चैन नहीं आता। श्री मल्हाोत्रा ने बताया कि भारत आने के बाद जीना बेहद धार्मिक प्रवृत्ति की हो गई। पिछले 40 साल में करीब 5 बार अपने युक्रेन स्थित घर जाकर आ चुकी जीना से मैंने पूछा क्या सोवियत संघ टूटने से कोई फर्क पड़ा ? जीना ने ठंडी सांस लेते हुए कहा लाईफ तो वहां भी पहले नार्मल थी, अब भी नार्मल है। बात खान-पान की निकली तो मैंने पूछा रूस और दुर्ग के पानी में कुछ फर्क लगता है क्या? शायद मेरा सवाल समझने जीना को कुछ वक्त लगा, इसलिए कुछ देर रूक कर वह बोली, पानी एक जैसा है इसलिए तो मैं जी रही हूं। इससे पहले की मैं मल्होत्रा दंपत्ति से इजाजत मांगता जीना थोड़ी गंभीर मुद्रा में आ गई। फिर बोली, अब इस जिंदगी में सिर्फ एक ख्वाहिश। कोकचेताव सिटी में मेरे भाई के दो जुड़वा बेटे है। करीब 18 साल से उन्हें नहीं देखी हूं। मैं चाहती हूं कि अक्टूबर मेें वहां बर्फ बारी (स्त्रोफाल) शुरू होने के पहले एक बार उनसे मिल लूं। कुछ देर तक माहौल गंभीर होते देख जीना ताड़ गई और फौरन खिलखिला कर हॅस पड़ी फिर बोली अगले महिने मैं रसिया जाऊंगी और एयरपोर्ट से अपने दोनों भतिजों को टेलीफोन कर बुलाऊंगी। मैंने उन्हें सुखद यात्रा की शुभकामनाएं दी और उन्होंने मुझे ‘ऊं नमो नारायण’ कह कर विदा किया।

भारत ‘परदेश’ नहीं मेरा घर
अपना घर छोड़ कर परदेश में रहना शायद कष्ट दायक अनुभव होता है। लेकिन भिलाई में सेवा दे रहे रूसी मूल के लोगों से आप मिले तो यह धारणा गलत साबित हो जाएगी। मसलन भिलाई इस्पात संयंत्र में रूसिया के प्रमुख प्रतिनिधि निकोलाई गंशारिख की ही बात लें। गंशारिख को यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि ‘वह अपने ही घर में है’। यही वजह है कि जब मैंने उनसे पूर्व सोवियत संघ, वर्तमान रसिया और भारतीयों के संबंध को लेकर बात करनी चाही तो उन्होंने मेरा आमंत्रण सहर्ष स्वीकार कर लिया।

भिलाई इस्पात संयंत्र में त्याशप्रोम एक्सपोर्ट के अपने दफ्तर में बैठे गंशारिख से मेरा पहला सवाल था कि दूसरे यूरोपियन देशों की तरह क्या आप भी भारत को सांप, बिच्छु और जादू टोने वाला देश समझते है? गंशारिख हॅस पड़े। अपने जन्म स्थान ‘मगीता गोर्सके’ की याद करते हुए वे बीते दिनों में लौट गये। बोले मैं जब छोटा था तो हिन्दुस्तान को किताबों में ही पढ़ता था फिर ‘टीन ऐज’ में मैंने एक न्यूज मेल देखी, जो पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के हमारे शहर के विजिट की थी। इसके बाद युवावस्था में राजकपूर कि बद्यामा (आवास) और गस्पयद्न चितिरिस्को द्ववावचक (श्री 420) देखने मिली। इन सबसे मेरी धारणा पुष्ट हो गई कि भारत एक ऐसा देश है जहां ‘बड़े दिल वाले’ लोग रहते है। जब आज इस उम्र में जबकि मैं भिलाई मे हूं मुझे लगता है मेरी धारणा सही थी। भारत और रूस के संबंधों पर गंशारिख ने संघर्ष होकर कहा कि नेहरू और खक्षव.... से मिलकर जो पौधा रोपा था तो वह दिनों दिन बढ़ेगा। हमें तो खुशी होती है दोंनों देशों की मैत्री बढऩे से। यहां उल्लेखनीय है कि भिलाई में सेवा देने वाले रशियन विशेषज्ञों में फिलहाल गंशारिख सबसे वरिष्ठ है। वे 1970 से 1975 तक बीएसपी में तकनीकी सहायक के रूप में सेवा दे चुके है तथा 1996 में सिंटरिंग प्लांट-3 की शुरूआत पर वे पुन: भिलाई आए। तब से अब तक वे यही है तथा प्रमुख रशियन प्रतिनिधि के रूप में सेवा दे रहे हैं। बातों-बातों में मेरी गंशारिख से पूछा पहले सोवियत संघ और अब रूस दोंनों दौर में कोई बदलाव महसूस करते है? गंशारिख ने अपनी सिगरेट सुलगाई, मुझे तो कोई फर्क नहीं लगता क्योंकि सब कुछ ठीक चल रहा है। जहां तक भारत से संबंध की बात है तो इसमें स्थायित्व है। भारतीय जनता और रूस तथा अलग हुए अन्य देशों के नागरिक आज भी दूसरे देशों के बनिस्बत तक काफी नजदीक है। अंतर्राष्टï्रीय व्यापार की परिस्थितियों का उल्लेख करते हुए मैंने पूछा कि पहले व्यापार के जिन क्षेत्रों में रसिया का एकाधिकार था, अब उनमें काफी प्रतिस्पर्धा आ गई ऐसे आप अपने आप को कहां पाते है? वह बोले यह तो परिवर्तन का दौर है लेकिन प्रतिस्पर्धा बढऩे को मैं इस रूप में देता हूं कि अब हमारे लिए परीक्षा की घड़ी है। गंशारिख को राजनीतिक मसलों पर बात करने से गुरेज नहीं था। लिहाजा मैंने गांधी नेहरू के प्रशंसक इस रशियन प्रतिनिधि ने पूछा आज भारत में आप किसे इन महान नेताओं के कद का मानते है वे तपाक से बोलें आज तो भारत में उस कद का कोई नेता नहीं है। लेकिन आने वाले 6-7 साल में प्रियंका गांधी जबर्दस्त तरीके से नेतृत्वकर्ता के रूप में सामने आएगी। इसके बाद दोनों मुलकों की आबोहवा पर बात छिड़ी तो मैंने उनसे पूछा की रूस में वोल्गा नदी का अपना इतिहास है और वहां दुर्ग जिले में हमारी जीवन दायनी नदी शिवनाथ है। आपने दोनों नदियों का पानी पिया है, क्या दोनों में कुछ फर्क महसूस हुआ? वे चौक गये, फिर रूककर बोले पानी तो पानी होता है फर्क कैसा, वैसे सच्ची बात बताऊं तो वोल्गा की बनिस्तबत शिवनाथ का पानी ज्यादा साफ है।

चलते-चलते मैंने पूछा सोवियत संघ से बिखरने का कोई अफसोस? गंशारिख हॅस पड़े, बोले हमें क्यों अफसोस होगा, यह तो जनता की मांग है हम तो खुश है। हां अफसोस एक इंसान को जरूर हुआ। मेरी तरफ देखकर वे बोले, वेस्ट बंगाल का ज्योति बसू।

तितलियां भी राह भूलीं, महफिल हुई विरान
भिलाई के एकमात्र रशियन काम्पलेक्स की इस्पाती फिजां से गुम हो रही है रूसी तहजीब की खुशबू

कभी यहां रौनक हुआ करती थी। समुचा काम्पलेक्स रशियन परिवारों से आबाद था। सेन्ट्रल एवेन्यु गुजर रहे लोगों के लिए काम्पलेक्स के अंदर खेल मे मशगुल या तितलियां पकड़ते छोटे-छोटे रशिनयन, बच्चों को देखना एक सुखद अनुभूति हुआ करती थी। वहीं काम्पलेक्स मे हर शाम को रूसी संगीत और महफिले सजती थी, पार्टियां होती थी, रोज सिनेमा... और भी बहुत कुछ। लेकिन यह सब अब गुजरे जमाने की बातेें हो गई है। बदली परिस्थिति में आज चंद रूसी विशेषज्ञ ही यहां रहते है और कभी रूसी परिवारों के मनोरंजन व आमोद-प्रामोद के के लिए बीएसपी ने जो निर्माण किया था वह सब बदहाल हो चुका है।

बात सेक्टर-7 की रशियन काम्पलेक्स की है। 70 के दशक मे जब भिलाई इस्पात संयंत्र में ढेर सारी परियोजनाएं शुरू हुई तब अनुबंध के अनुसार भिलाई पहुंचने वाले रशियन विशेषज्ञों व उनके परिवारों के लिए आवास की व्यवस्था के मुद्दे नजर बीएसपी ने इस काम्पलेक्स का निर्माण किया था। काम्लेक्स में रशियन संस्कृति व अभिरूची के अनुसार व्यवस्थाएं की गई थी। लेकिन अब यहां सब कुछ चौपट है। वजह साफ है, पहले पूरा काम्पलेक्स आबाद था, लेकिन कालांतर में भारतीय प्रशिक्षित हो गये और रशियन विशेषज्ञों की संख्या साल दर साल कम होती गई। भले ही यह अविश्वसनीय लगे, लेकिन तथ्य यह है कि कभी यहां 2000 के लगभग रूसी नागरिक थे, आज सिर्फ पांच रूसी विशेषज्ञ निवासरत है। बदली परिस्थितियों में बीएसपी ने काम्पलेक्स में कुछ हिस्सा बाड़ लगाकर रूसी नागरिकों के लिए छोड़ा है, शेष में अधिकारी वर्ग को आवास आबंटित कर दिए गए है। जिस हिस्से में रूसी विशेषज्ञ रहते है। वहां पूर्व के सारे निर्माण है, लेकिन बदहाली में है। यहां क्लब में भारत-रूस के संबंधों को दर्शाता एक म्यूजियम है, जिसमें कुछ दूलर्भ तस्वीरें है। अब इन तस्विरों पर धूल जमी है। यहीं स्वीमिंग पुल भी है लेकिन उनका पानी कभी-कभी बदला जाता है। कभी यहां के सिनेमा हाल में प्रतिदिन रूसी हिन्दी फिल्में दिखाई जाती थी, लेकिन यह भी बंद पड़ा है। यहां के लाईब्रेरी में बेस कीमती रूसी साहित्य भरा पड़ा है लेकिन अब कोई पाठक नहीं रहा, इसलिए यहां भी ताला लगा है। यहीं हाल टेनिसकोर्ट, बिलियर्ड्ïस और दूसरी अन्य सुविधाओं का है। रूस की वाणिज्यिक प्रतिदिन संस्था त्याशप्रोम एक्सपोर्ट के भिलाई प्रमुख इस्माइल एं मजायनेव रहते है। अब यहां पहले जैसे बात नहीं रही, फिर हम लोगों के पास भी इतना आवक नहीं रहता कि एक ओर ध्यान दें। घर मे बीएसपी ने रूसी चैनल देखने सुविधा दी हुई है, इससे वक्त कट जाता है। लेकिन इस्माल की बातों से प्रबंध निदेशक के तकनीकी सलाहकार वी वी कमानदोव इत्तफाक नहीं रखते। जंग लगे टेनिसकोर्ट की ओर ईशारा करते हुए वह कहते है पहले यहां बड़े दिलचस्प मैच होते थे। अब कभी महिने में एकाद बार कोई अतिथि (बीएसपी व जिला पुलिस प्रशासन के अफसर) आ जाये तो हम लोग खेलते है। अन्यथा यहां सन्नाटा रहता है। कमानदोव कहते है खेल का मैदान ऐसा सुना नहीं रहना चाहिए। हम लोग यहां वक्त निकालकर खेल तो सकते है। कमानदोव के सहायक रूसी दुभाषिए कजबेक माइकल अगयेव काम्लेक्स में बेतरतीब नजर आ रही झाडिय़ों की ओर ईशारा करते हुए बीते दशक का दौर याद करते है। वह कहते है पहले यहां साफ-सफाई के लिए हमें कर्मचारी लगते थे। हम शनिवार को हमारे सारे रूसी मर्द, औरतें व बच्चें सामूहिक श्रमदान करते थे और पूरा काम्पलेक्स साफ कर देते थे। कजबेक कहते है अब तो परिस्थितयां बदल गयी है। अब ऐसे में इन झाडिय़ों से निकलकर कोई साथ मेरे कमरों तक आ पहुंचता है तो हैरत नहीं होती।

कोकओवन में सेवारत विशेषज्ञ निकोलाई बुलिगा को यहां के सूनेपन से ज्यादा हैरानी हीं होती। वह कहते है हमें परमानेंट तो यहां रहना नहीं है और जरूरत की सारी चीजें हमें मिल जाती है, इसलिए तकलीफ का सवाल नहीं। फिर घर में इंटरनेट और रूसी चैनल देखने टेलीविजन भी है। बुलिगा के सहयोगी चीफ हीटिंग एक्सपर्ट निकोलाई कुरिलको इन दिनों मास्को गये हुए है। पिछले दिनों जब रशियन काम्पलेक्स पर उनसे बात हो रही थी तो वे बेहद तल्क हो गये, बोले मेरा एसी कई दिनों से खराब पड़ा है, लेकिन शिकायत के बावजूद उसे ठीक नहीं किया गया, क्या आप उसे ठीक करवा सकते है? कुरलिको अपनी नाराजगी छुपा नहीं पाए-वह बोले हम लोग तो यहां मेहमान है लेकिन कभी-कभी हमारे छोटी-छोटी तकलीफो पर ध्यान नहीं दिया जाता तो दुख होता है। इधर इस मुद्दें पर बीएसपी प्रबंधन का कहना है कि रशियन काम्लेक्स में चूंकि अब पहले जैसी आबादी नहीं है इसलिए स्वाभाविक तौर पर कुछ सुविधाएं बंद हो गई है। लेकिन जो चंद रूसी विशेषज्ञ वहां रहते है, उनकी नागरिक जरूरतों का पूरा ख्याल रखा जाता है। यहां गौरतलब है कि भिलाई इस्पात संयंत्र प्रबंधक द्वारा समय-समय पर रशियन विशेषज्ञों की सेवाएं ली जाती है। 70 के दशक जब की बीएसपी में प्लेट मिल, सिंटरिंग प्लांट-2, कोकओवन बैटरी-9 और स्टील मेल्टिंग शॉप-2 जैसी महत्वकांक्षी परियोजनाएं शुरू की गई थी, तब भारी संख्या में रशियन विशेषज्ञों की जरूरत पड़ी थी। स्थिति यह थी कि भिलाई होटल भी उन लोगों की आवास सुविधा के लिहाज से छोटा पड़ रहा था, ऐसे में युद्घ स्तर पर इस काम्लेक्स का निर्माण बीएसपी ने करवाया और 1978 में सारे रशियन विशेषज्ञों को यहां आवास आबंटित किए गए। लेकिन परियोजनाएं पूरी होने पर विशेषज्ञ लौटने लगे और भारतीय भी प्रशिक्षित हो गए। ऐसे में काम्लेक्स खाली होने लगा। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद यह काम्लेक्स पूरी तरह से खाली हो गया। अब सिर्फ बीएसपी के अनुबंध के आधार पर आने वाली चंद रूसी विशेषज्ञों के लिए कुछ आवास रखे गये है।

बाक्स...
अनुशासन कोई इनसे सीखें
आज रशियन काम्पलेक्स में भले ही गिनती के रूसी नागरिक रहते है लेकिन, इनकी जीवन शैली इस कदर अनुशासन बद्घ है कि इनसे काफी कुछ सीखा जा सकता है। वक्त के पाबंद यह सारे रशियन सफाई के मामले में भी बेहद गंभीर रहते है। हर सुबह ठीक 8 बजे इन्हें भिलाई इस्पात संयंत्र जाने अपने वाहन के इंतजार में इनसे देरी नहीं होती। वैसे गौरतलब बात यह है कि यह सारे रशियन अपने-अपने घर में सुबह ठीक पौने 8 बजे निकलते है। इनके सबके हाथ एक बड़ा पॉलिथीन होता है, जिससे वे सबसे पहले दूर रखी एक डस्टबीन में डालकर जात है। दरअसल, रशियन अपने घर और आसपास का कचरा पॉलिथीन में इकट्ठा करते है और हर रोज नियम से ड्ïयूटी जाने के पहले उसे डस्टबीन में डालकर आते है।

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‘ब्लीन’ कहो या ‘चीला’... जायका तो एक है
आप सामने वाली की भाषा न समझ पाए और सामने वाला आपकी भाषा न समझ पाए तो क्या होगा...? शायद माहौल में खामोशी घुलती रहेगी या इशारों में बात होगी। कुछ ऐसा ही वाक्या रूसी मूल की लिखोविस्की दंपत्ति से मुलाकात हुआ। पति-पत्नि अंग्रेजी से इस कदर अनभिज्ञ थे कि जब ‘वाटर’ कहने से बात नहीं बनी तो मुझे इशारा में पानी मंागना पड़ा। हालांकि भाषा के माध्यम से दोनों से संवाद स्थापित करने मुझे करीब पौन घंटे का इंतजार करना पड़ा। लेकिन, उसके पहले रूसी जबान और कुछ इशारो में इस दंपत्ति ने अपनी जिस सहृदयता का परिचय दिया वह सही मायनो मे जिंदगी भर न भूलने वाला अनुभव था।

हुआ यूं ही जब इस एक मात्र रूसी दंपत्ति ने मुझे मिलने का समय दिया तो मैंने इस तथ्य को नजर अंदाज कर दिया कि इन्हें अंग्रेजी आता है या नहीं। क्योंकि खबरें मुझे दूसरे माध्यम से मिली थी। बहरहाल जब मैं उनके घर पहुंचा तो पति-पत्नि रूसी चैनल देख रहे थे। उन्होनें अपनी जबान से मुझे बुलाया और बिठाया तो मैनें अपनी ‘हिन्दुस्तानी अंग्रेजी’ मैं अपने जाने का मक्सद बताया, लेकिन इसका उन पर कोई असर नहीं हुआ। तब मुझे समझ आया कि इन्हेें अंग्रेजी नहीं आती। ऐसे में इशारो में बात शुरू हुई। रूस में मंग्निता गोर्सके रहने वाले लिखोविस्की वसीली लियोनिदोविच और उनकी पत्नि दानिया लिखोविस्की मेरे साथ बैठ गये। उन्होंने अपने पारिवारिक एलबम दिखाने शुरू किए। लिखोविस्की सिर्फ ‘मादाम’ और ‘सन’ ही ठीक से उच्चारित कर पा रहे थे। लेकिन, इन दोनों शब्दों का इस्तमाल कर इशारो में ही अपने पूरे परिवार से मिला दिया। एक फोटो में दरिया में बहता पानी और दूसरी में जमी हुई नदी पर खड़े लोग थे। इसके जरिये उन्होंने यहां-वहां के मौसम फर्क समझाया। उन्होंने बताया कि उनके देश में ठंड में तापमान माईनस 20 हो जाता है और सब कुछ जम जाता है। जबकि यहां तो सामान्य ठंड में भी हमें गर्मी लगती है। इसी दौरान दानिया ने डायनिंग टेबल पर कुछ लाकर रखा साथ में काली चाय और शक्कर भी थी। दोनों ने मुझे खाने के लिए इशारा किया और मुझे लगा जानकारी ले लेना ठीक होगा। मैंने पास ही रहने वाले इना और विवेक चतुर्वेदी को फोन लगाया। सौभाग्य से आपस मेें यह सभी एक दूसरे से अच्छी तरह परिचित थे। इना ने मेरी बातों को सुनने के बाद पति-पत्नि से बात की। फिर मुझे बताया कि उन्होंने रूस का सर्वाधिक प्रचलित व प्रसिद्घ नास्ता ‘ब्लीन’ पेश किया है। जो मैदा, यीस्ट और अंडे से बनता है। मैंने पूछा इसे खाते कैसे है? तो इना ने कहा आप काली चाय के साथ खा सकते है। उसके बाद जब मैं खाने बैठा तो मुझे लगा हमारे यहां छत्तीसगढ़ में चावल के आटे का ‘चीला’ और चाय का मेल ही रूसी ‘ब्लीन’ है। टेलीफोन पर मेरी बातें सुनकर इना भी हॅस पड़ी, बोली आपने ठीक सोचा। मैंने लिखोविस्की दंपत्ति से इशारे में पूछा कि आ लोग नहीं खायेंगे? तो लिखोविस्की ने पेट पर हाथ फिराते हुए दोनों कुछ देर पहले लंच किए है। खैर, मुझे करीब चार ‘ब्लीन’ खिलाने के बाद ही श्रीमती दनिया ने दम दिया। इसके बाद हमारी बातों के माध्यम बने विवेक चतुर्वेदी। मैं टेलीफोन पर विवेक को सवाल बताने लगा और विवेक एक कुशल अनुवादक की तरह टेलीफोन पर ही लिखोविस्की दंपत्ति से बात कर मुझे बताते रहे।

यहां भिलाई स्टील प्लांट के स्टील मेल्टिंग शॉप-1 में प्रमुख रूसी विशेषज्ञ लिखोविस्की से मैंने जब दोनों देश से ‘वर्क कल्चर’ के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा हमारा मंग्निता गोर्सके यूरोप और एशिया का शहर है। जो साइबेरिया में स्थित है। यहां बहुत बड़ा स्टील प्लांट है। मैं पिछले साल से भिलाई में हूं। हमारे यहां कारखाने से लोग नहा-धोकर ‘फ्रेश’ होकर निकलते है, जबकि यहां लोग घर जाकर ‘फ्रेश’ यहां हफ्ते में 6 दिन काम करते है जबकि वहां सिर्फ 5 दिन। बाकी तो सब कुछ समान है। मैंने पूछा भारत को लेकर आपकी क्या धारणा थी? तो उन्होंने कहा जब मैं बहुत छोटा था तो पंडित नेहरू हमारे शहर आए थे। फिर कुछ हिन्दी फिल्में देखी और मैं समझ गया कि भारत सिर्फ किताबों में नहीं सही मायने मेें महान देश है। कुछ ऐसा ही मिलता-जुलता जवाब दानिया का था। मैंने दानिया से पूछा यहां भिलाई में कैसा लगता है? वह बोली भिलाई से पहले मैं इंडिया के बहुत से शहर घुम चुकी हूं। यहां बहुत भले और एक दूसरे के प्रति मददगार लोग है। मुझे यहां सिर्फ गर्मी में परेशानी होती है। वैसे सच बताऊं तो हमारे पूरे रूस में जनसंख्या काफी कम है, लेकिन यहां आने पर चारों तरफ भीड़ देखकर मैं दंग रह गई। मैंने दानिया से पूछा कि यहां कुछ कमी खलती है क्या? वह बोली मुझे गार्डनिंग का बेहद शौक है। वहां रूस में हमारा फार्म हाउस भी है। अब यहां वह शौक पूरा नहीं सकती। फिर यहां मुझे भिलाई घुमने का भी अवसर नहीं मिला। बातों के दौरान दानिया ने बताया ने बताया कि रूस में हिन्दी फिल्में ‘सीता और गीता’ हम दोनों के साथ देखी हुई आखिरी फिल्म है। अब फिल्म देखने का वक्त नहीं मिलता। गंभीर मुद्रा में बैठे लिखोविस्की से मैनें पूछा सोवियत संघ और आज के रूस में क्या बदलाव देखते है? उन्होंने कहा पहले सोवियत संघ था तो हमें भव्ष्यि की चिंता नहीं थी, क्योंकि शिशु के जन्म से लेकर पूरी जिंदगी और अंतिम संस्कार सारी जबावदारी सरकार की होती थी। इसमें लोगों में अनुशासन भी था।

लेकिन 1991 में विघटन के बाद हालात वहां ठीक नहीं है। अब हर आदमी को सिर्फ अपने भविष्य की चिंता रहती है। चूंकि दूसरी तरफ टेलीफोन पर बैठे विवेक को भी जाना था और वहा लिखोविस्की का प्लांट जाने का वक्त हो रहा था। इसलिए चलते-चलते मैंने दोनों पति-पत्नि से पूछा वोलगा और शिवनाथ के पानी में क्या फर्क महसूस हुआ? पहले लिखोविस्की बोलें कुछ खास नहीं, बस यहां शिवनाथ मेरे घर से काफी दूर है लेकिन, पानी यहां का भी जीवन दायक है और वहां का भी। दानिया बोली यहां मुझे पानी हल्का नमकीन सा लगता है। लेकिन, है टेस्टी... और पानी का गिलास दिखाते हुए वह हॅस पड़ी।

.... और मैं गंगा के आगे नतमस्तक हो गई
पिछले हफ्ते लूद्ïमिला कुजमेनको यानि उमा मजुमदार से जब मैंने भारत-रूस की नदियों को लेकर बात शुरू की थी तो मुझे लगा कुछ छुट सा गया है। उमा ने कहा था कि उसकी भारत की नदियों खासकर गंगा पर गहरी आस्था है। एक युक्रेन मूल की महिला से ‘गंगा’ और ‘आस्था’ जैसी बातें सुनकर स्वाभाविक तौर पर मेरी जिज्ञासा हुई कि इस पर अलग बात करू।

मैंने उमा से पूछा की रूस में तो नदियों को पूज्यनीय मानने जैसी नजरिया कभी देखने या सुनने में नहीं आता तो आप यहां...? मेरी बात ही पूरी हुई थी उमा बोल पड़ी आपकी वोल्गा और शिवनाथ की बात की दौरान ही मुझे अचानक 13 साल पहले घटना याद आ गयी थी। यह मेरे जीवन का कभी न भूलने वाला अविस्मरणीय अनुभव था इस वजह से ही यहां की नदियों में मेरी आस्था है। उमा बताने लगी 1990 में इनकी (यानि पति श्री मजुमदार) सेवा निवृत्ति के तत्काल बाद हम बनारस गये। मैं तो हिन्दु धर्म का पूरा पालन करती थी, ऐसे में मैंने पढ़ा व सुना था कि गंगा एक पवित्र नदी है। इसलिए मेरी बड़ी इच्छा थी कि गंगा को जाकर देखूं। लेकिन पिताजी (यानि ससूर जी) ने गंगा की पवित्रता के साथ वहां के प्रदूषण की भी बात बताई थी खैर, मार्च 1990 में हम लोग बनारस पहुंचे वहां जाकर जो गंदगी देखी तो मुझे लगा यहां लोग आखिर आते क्यों है? अपने पति श्री मजुमदार की तरफ इशारा करते हुए बोली उन्होंने गंगा को प्रणाम किया और जल का सेवन भी किया। इन्होंने जब मुझसे ऐसा करने कहा तो एक खबर ही याद आ गयी जिसमें लिखा था कि लोग गंगा जल पीते है। लेकिन, उसमें एक चौथाई मानव अवशेष होते है। क्योंकि आदमी और पशु के शव इसी नदी में बहा दिये जाते है और मैंने गंगा जल पीने से इंकार कर दिया। इस वक्त मैंने का यह तो गंगा नहीं गंदा जल है। फिर मुझे गंगा की लोग पूजा क्यों करते है? सोच कर भी परेशानी हो रही थी। इसी दौरान गंगा में नाव से घुमते हुए मैंने कई जगह लाशें तैरती हुई देखी तो मैं सिहर गयी। शाम के हरिशचंद्र घाट से मणि कर्णिका घाट जा रहे थे वहां मैंने कतार में ढेर सारे शव देखे। उन शवों के पास बैठे लोग में कुछ कचौड़ी खा रहे तो कुछ बतिया रहे थे, लेकिन कोई रो नहीं रहा था। इन्हें देखकर पता नहीं क्यों मुझे अंदर से लगा कि वाकई में यह दुनिया सराय है और हमें तो आगे सफर पर जाना है। इसके बाद मेरा मृत्यु से भय दूर हो गया, लेकिन फिर गंगा की तरफ देखी तो वहीं गंदगी का ध्यान आ गया। घाट पर खड़ी मैं सोच रहीं थी कि नदी पवित्र कतई नहीं हो सकती। पता नहीं क्या हुआ अचानक मुझे लगा कि कोई मुछे पीछे धकेल रहा है। मेरे मुंह से चीख निकल गयी, मैंने नदी में इतनी ऊंची लहरें कभी नहीं देखी थी। मैं चीखती रही ‘होल्ड मी-होल्ड मी’। लेकिन, मेरी आवाज लहरों में गुम हो गई। करीब तीन बार लहरों ने मुझे बड़ी जोर से पीछे किया फिर आगे। घबराहट मेें मैं पसीना-पसीना हो गई। तीसरी बार में जब मैं झुकी तो पल्लु नदी में स्पर्श कर गया और फिर नदी शांत हो गई। आसपास के लोग मुझसे पूछते रहे क्या हुआ, क्या हुआ? लेकिन मंै खुद ही नहीं समझ पा रही थी कि वास्तव में हुआ क्या? दरअसल एक अलौकिक अनुभव था और लहरोंके शांत होते ही मैंने तुरंत हाथ जोडक़र गंगा को प्रणाम किया और उसके जल को माथे लगा लिया। अगले दिन मैंन गंगा में स्नान किया और गंगा जल साथ में लायी। आज भी मेरे घर में मौजूद है। हुडको निवासी उमा ने बताया कि श्री मजुमदार से विवाह के बाद हिन्दुस्तान आने पर भी उनका सही मायनों में धर्म से परिचय हुआ। अपने गले में क्रास दिखाते हुए वह बोली मैं इसे भी पहनती हूं, और मेरे घर राम व कृष्ण जी भी है। क्योंकि मेरा मानना है कि भगवान तो एक ही उसके रूप अलग-अलग है।

बाक्स में...
मैं चीखती रही ‘होल्ड मी-होल्ड मी’। लेकिन, मेरी आवाज लहरों में गुम हो गई। करीब तीन बार लहरों ने मुझे बड़ी जोर से पीछे किया और फिर आगे। घबराहट मे मैं पसीना-पसीना हो गई। तीसरी बार मैं जब मैं झुकी तो पल्लु नदी में स्पर्श कर गया और फिर नदी शांत हो गई। यह एक अलोकिक अनुभव था और लहरों के शांत होते ही मैंने तुरंत हाथ जोडक़र गंगा को प्रणाम किया और उसके जल को माथे से लगा लिया।

मेरे देश में भी है ‘बांसुरी वाला’ जादूगर
हमारे यहां दुर्ग की बिलासपुर से जितनी दूरी है, शायद उससे भी छोटा देश है। उतनी ओसेशिया अलानिया गणराज्य। काला सागर और कैस्पियन सागर के बीच रशिया से लगा हुआ यह देश क्षेत्रफल के लिहाज से भले ही छोटा है, लेकिन हजारों सालों की माननीय सभ्यता का इतिहास अपने में समेटे हुए है। यही वजह है कि बीएसपी ब्लास्ट फर्नेस में रशिनयन प्रतिनिधि अलानिया मूल के कजबेक अगयेव से मेरी बात आज से भारत-रूस संबंधों पर कम और उनके व हमारे देश के पौराणिक मान्यताओं और उसमें सभ्यता को लेकर ज्यादा हुई। वैसे कजबेक से मुलाकात कुछ-कुछ टेढ़ी खीर की तरह थी। दरअसल करीब 10 दिनों से कजबेग बीएसएनएल की ‘भूल’ से शिकार थे। बिल भुगतान के बावजूद ‘नो पेमेंट’ के आधार पर उनका टेलिफोन काट दिया गया था। जब बीएसएनएल ने अपनी यह ‘भूल’ सुधारी तब कही मेरा कजबेक से संपर्क हुआ। इसके बाद आज जब मैं उनके घर पहुंचा तो वे भारतीय दार्शनिक योगानंद की पुस्तक पढ़ रहे थे। उत्सुकता वश मैंने कह दिया लगता है आपकी भारतीय दर्शन में गहरी रूचि है। वह बोल न सिर्फ भारतीय दर्शन बल्कि विभिन्न स्थलों पर मानवीय सभ्यताओं का उद्ïभव, विकास व उनके सभ्यता का अध्ययन करना मुझे पसंद है। इससे पहले की मैं कुछ पूछता वह खुद ही कहने लगे। अगर आप मुझे रूसी मूल का समझ रहे तो आप गलत सोच रहे है। मैं रूस से लगे देश अलानिया गणतंत्र का हूं। काकेशस पर्वत श्रृखंला से घिरे अलानिया की राजधारी बलादीकाफकास में मेरा घर है। आर्य मूल की हमारी ‘ईरान’ सभ्यता का 25000 वर्ष पुराना इतिहास मिलता है। करीब एक हजार वर्ष से हमारे लोग आर्थोडॉक्स ग्रीक चर्च के ईसाई मतावलंबी है। चूंकि कजबेक इस पर विस्तार से बोलना चाह रहे थे और मेरी जिज्ञासा भी थी, लिहाजा मैंने टोका नहीं। वह कहने लगे पूरी दुनिया घुमते रहने के बावजूद बहुत सी ऐसी वजहें है, जिनके आधार पर मुझे हिन्दुस्तानी सभ्यता व संस्कृति से प्रेम है। उन्होंने बताया वैसे तो अब हम सभी रशियन बोलते है। लेकिन, हमारी मूल भाषा ‘ओसेशियन’ है। जिसमेे करीब 150 शब्द संस्कृत के है। मैं चौक गया तो उन्होंने बताया हमारे यहां एक से दस तक गिनती का उच्चारण यू, दो, र्ïथ, चच्यार, फांज, श्आज, आफ्द, आप्ट, नौ और दस। हम ‘आदमी’ को ‘आदम’ कहते है। हमारे पूर्वज अग्नि के उपासक थे। आज भी हमारे यहां जल, वायु और अग्नि को पवित्र माना जाता है। किसी भी त्यौहार या खास अवसर पर हम तीन तह वाली तीन अलग-अलग पाई (गोल बे्रड की तरह पकवान) बनाते है। जिनमें पहली जल, अग्नि व वायु को, दूसरी पिता, माता व संतान को तथा तीसरी भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल को समर्पित करते है। कजबेक ने एक और चौकाने वाला तथ्य एक प्रतिमा की तस्वीर दिखा कर बताया। उन्होंने बताया कि कृति ‘वल्शेब्नया फ्लेता अत्समा$जा’ यानि ‘अत्समा$जा की जादूई बांसरी’ हजारों साल पहले पत्थर व उकेरी गई थी। हमारे यहां मानते है कि आत्समा$जा की बांसुरी में इतना जादू था कि जंगल के जानवर भी खींचे चले आते थे। पत्थर पर बांसुरी बजाते अत्समा$जा के चारों तरफ इसी आधार पर भालू, सांप, भैंसा व अन्य जानवर चित्रित किये गये है। कजबेक की बात सुनकर मेरे मुंह से निकल गया हमारे यहां तो श्रीकृष्ण...? मेरी बात पूरी ही नहीं हुई थी कजबेक ने सहमति से सिर हिला दिया। वह बोले हम लोग एक हजार साल पहले ही ईसाई हो गये लेकिन कुछ परंपराये जड़ों में आज भी मौजूद है। हमारी हजारों साल पूरानी संस्कृति के अनुरूप आज भी हम मानते है कि सारे जगत का पालने वाला एक ही ईश्वर है। इतनी उम्दा जानकारी के बाद अचानक गुम हुए कजबेक जब कीचन से ‘ब्लैक काफी’ वह भुने हुये मेवे लेकर लौटे तो मैंने उनसे पूछा रशिया में रहते हुए आपकी भारत के बारे क्या धारणा थी और यहां आकर आपने क्या महसूस किया? अपनी सिगरेट सुलगाते हुए वह बोले मैं जब बच्चा तो बहुत सी हिन्दी फिल्में देखता था। फिर 15 वर्ष की उम्र में स्कूल में एक प्रतियोगिता के दौरान मुझे दुनिया भर में ‘शांति के लिए आंदोलन’ विषय पर आलेख तैयार करना था। मैंने लियो टालस्टाय को पढ़ा लेकर वह काफी नहीं था, फिर मैंने द ग्रेट महात्मा गांधी (उन्होंने ऐसा ही कहा), ओरबिंदो घोष, कृष्णामूर्ति, रविन्द्रनाथ टैगोर, योगानंद, विवेकानंद और प्रमुख रूप से महात्मा बुद्घ का अध्ययन किया। इन्हें पढऩे के बाद भारत को जानने की मेरी ख्वाहिश बढ़ती गयी। अगस्त 1989 से फरवरी 93 तक भिलाई में तथा अक्टूबर 99 से नवंबर 2000 तक इस्पात ग्रुप की अलीबाग शाखा मुंबई में रहा और फिर जुलाई 2001 से अब तक भिलाई मेें हूं। अब तक मैंने भारत का अधिकांश हिस्सा देखा है। इसके बाद मैं अपने बात पर कायम हूं कि यहां विभिन्न धर्मो व जाति के लोग जिस तरह बिना किसी भेदभाव से मिलते रहते है व लाजवाब है। उन्होंने कहा पूरे भारत में मुझे डोंगरगढ़ बम्लेश्वरी के अलावा पंडित रविशंकर, लता मंगेश्कर व जगजीत सिंह पसंद है। कजबेक से मैंने रूस के हालत के बारे में पूछा तो नकारात्मक पहलु को बताने से उन्होंने परहेज नहीं किया। वह बोले सोवियत संघ के विघटन के बाद 91 में वहां हालत खराब है। वहां का आम आदमी नाखूश है क्योंकि आवश्यक सेवाएं तक अस्त व्यस्त है। दरअसल, 91 से पहले जिस वरिष्ठï नागरिकों ने अपने सुखद भविष्य के लिए बचत की मुद्रा अवमूल्यन के कारण अब किसी काम की नहीं। इन सबके बावजूद हमें सच्चाई को स्वीकार करनी पड़ेगी, लेकिन, मैं आशान्वित हूं कि हम अपने बच्चों को सुखद भविष्य दें सकेंगे। वर्तमान में रूस के औद्योगिक माहौल का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि अब यहां यूनियन बहुत ज्यादा कमजोर हो गई है। इस्पात, खान व गैस से जुड़े उद्योगों में कुछ जगह युनियन प्रभावशाली है। मैंने कजबेक से पूछा यहां की शिवनाथ और वहां वोल्गा से पानी में कोई फर्क महसूस हुआ क्या? एक दार्शनिक के अंदाज में उन्होंने गंभीरता से जवाब दिया पानी तो पानी है, वह जीवन देता है और ठहरना उसकी प्रकृति नहीं। सिर्फ नाम का फर्क हो सकता है, लेकिन, उनकी प्रकृति, किसी भी देश मेें हो, एक रहेगी। कजबेक से जब से मैंने बात शुरू की थी तब से उनके ऊंचे विचार विभिन्न देशों की यात्रा अनुभव सुनकर मेरे जिज्ञासा उनके नाम का अर्थ जानने की हुई। चलते-चलते मैंने आखिरी सवाल उनके नाम को लेकर किया। वह हॅसते हुए बोले काकेशस पर्वत श्रृखंला की दूसरी सबसे ऊंची चोटी का नाम कजबेक है और अगयेव का मतलब सदा घुमने वाला होता है उनका जवाब सुनने के बाद में तफाक से कहा मतलब आप अपने माता पिता के रखे गये नाम को सार्थक कर रहे है? कजबेक हॅस दिये और बोले- यस, अफकोर्स।

मैं जन्म से न सही कर्म से तो हिन्दुस्तानी हूं
जीवन साथी से बिछडऩे का गम क्या होता है, यह श्रीमती गेलिना भटनागर की बातों से समझा जा सकता है। दो वर्ष पूर्व अपने पति एल.आर. भटनागर के बाद वे लगभग वैराग्य का जीवन जी रही है। ऐसे में जब मैंने उनसे चर्चा का मक्सद बताया तो उनकी पहली टिप्पणी थी हमारी तो जिंदगी चली गयी, अब हम क्या बोलेंगे। लेकिन जब बात शुरू हुई तो युक्रेन मूल की गेलिना ने नपे तुले अंदाज में जवाब दिया। उनकी बातों के आधार पर यह यकीन करना मुशकिल था कि गेलिना रूसी महिला है। यह एक आम हिन्दुस्तानी महिला। दरअसल 40 बरस पहले जब गेलिना हिन्दुस्तान आयी थी तो उन्हें यहां की ‘भीड़’ से थोड़ परेशानी हुई थी, लेकिन अब से वे कहती है, मेरा सौभाग्य था कि हिन्दुस्तान जैसी देश की संस्कृति का हिस्सा बनने का मौका मिला। युक्रेन के मकयवक दनियत्सक.... की मूल निवासी मलाशयेवा गेलिना का बचपन बर्मन रूस के साये में बीता लिहाजा, आभावों को जिंदगी का इन्हें कटु अनुभव है। लेकिन उस बचपन को अब वे भूल जाना बेहतर समझती है। वह बताती है युद्घ के बाद जब रूस नये सिरे से अपना वजूद बना रहा था तब बहन बहुत कठिन जिंदगी थी। लेकिन धीरे-धीरे लाईफ नार्मल होती गई। श्री भटनागर से पहली मुलाकात के बारे मेें पूछने पर वह अतीत में खो जाती है। वह बताती है श्री भटनागर भिलाई इस्पात संयंत्र के बतौर टे्रनी 13 अगस्त 1959 को दैनियत्सक आये थे। उन दिनों में मैं टेलीफोन आपरेटर थी। जिसे पहली मुलाकात में मुझे लगा कि जिस महान हिन्दुस्तान को अब तक मैं फिल्मों या किताबों में जानती थी, वहां से साक्षात देवता आया है। खैर हमारी मुलाकातें बढ़ी और हमने शादी का फैसला किया। दैनियत्सक में ही हमारी रजिस्टर्ड मैरीज हुई। यह हम दोंनो के परिवार वालों की सहमति से था। शादी के बाद कुछ दिनों तक यही रहने के बाद 15 अप्रेल 1961 को मैं भारत पहुंची। यहां न सिर्फ श्री भटनागर और उनके परिवार वाले बल्कि आसपास के लोगों ने भी मेरी कदम-कदम पर हौसला अफजाई की। मैंने पूछा क्या शुरूआती दौर में कोई दिक्कत नहीं आई? श्रीमती गेलिना बोली यहां हिन्दुस्तान में लोग इतने मिलनसार और मददगार है कि सारी दिक्कतें कुछ पल की लगी। मुझे हिन्दी सीखने में भी कोई परेशानी नहीं हुई। मैंने पूछा रूस छोडऩे का कोई अफसोस नहीं हुआ? वह बोली- अपने माता-पिता, भाई-बहन और रिश्तेदारों को छोड़ा थोड़ा मुशकिल होता है लेकिन यहां श्री भटनागर व उनके परिवार वालों ने मुझे इतना प्रेम से रखा कि मैं सारे दुख भूल गई। यहां भिलाई में सेक्टर-2, 10 के अलावा अब मैत्रीकुंज रिसाली मे निवासरत श्रीमती गेलिना का भरा पूरा परिवार है। उनका पुत्र संदीप भटनागर एक निजी संस्थान में कम्प्यूटर इंजीनियर है वही पुत्री संगीता विवाह के बाद पूण्ेा में रह रही है। इस भरे पूरे परिवार में उन्हें श्री भटनागर की कमी आज भी खलती है। वह कहती है 25 नवंबर 2001 को अचानक वह हम सबका साथ छोड़ चले गये, मेरे लिए पूरी दुनिया में वही एक भगवान थे। अब तो ऐसे लगता है हमारी भी जिंदगी खत्म हो गई है। उनके घरेलू जीवन पर ज्यादा बात न करते हुए मैंने पूछा सोवियत संघ और अब रूस में क्या फर्क महसूस करती है? वे बोली 40 साल से मैं यहां हूं तो वहां के हालात ज्यादा अच्छे से मालूम नहीं। लेकिन, सोवियत संघ पहले एक महाशक्ति था उनके टुकड़े हुए तो मुझे बेहद अफसोस हुआ। 91 के बाद रूस के हालात काफी बिगड़ गये थे लेकिन अब जैसा अखबारों व टीवी से मुझे पता चलता है, रूस उन हासदों से उबर गया है। मैंने पूछा भारत-रूस मैत्री का भविष्य क्या देखती है? उन्होंने कहा- दोनों देशों के बीच जो आम जनता के आत्मिक संबंध है वह तो कभी टूट नहीं सकते। यह दिनों दिन मजबूत होंगे।

मैंने कहा, लेकिन भिलाई में तो रशियन अब काफी कम हो गये है। गेलिना ने कहा पहले भारत में तकनीकी विशेषज्ञों की कमी थी इसलिए रूस के विशेषज्ञ यहां ज्यादा आते थे, अब तो भारतीय किसी भी मामले में पीछे नहीं है। इसलिए यहां भिलाई में रूसी लोग कम हो गये है। गेलिना से मैंने पूछा, भारत में क्या अच्छा लगा वह थोड़ा सा गंभीर हो गयी फिर बोली, पहले रूस में सिर्फ बुजुर्ग लोग ही धर्म को मानते थे। और युवावर्ग नौकरी पेशा था।

इसलिए मेरा धर्म से कोई रिश्ता नहीं था। यहां आने के बाद मैंने जाना की धर्म का जीवन में क्या महत्व है। आज मैं श्रीराम और श्रीकृष्ण का मानती हूं। यीशू मसीह भी मुझे प्रिय है और कीर्तन व प्रतिदिन ओम नम: शिवाय का जाप करना मुझे आत्मिक सुख प्रदान करता है। इसके बाद वह तपाक से बोली- मैं जन्म से रूसी हूं तो क्या कर्म से तो सौ फीसदी हिन्दुस्तानी हूं। चलते-चलते मैंने पूछा- क्या वोल्गा और शिवनाथ के पानी में फर्क महसूस हुआ? तो देर खामोश रहने के बाद वह बोली वोल्गा तो बहुत और खुबसूरत नदी है। यहां मैंने शिवनाथ के दर्शन नहीं किये है। पानी तो दोंनो का पिया है लेकिन मुझे कोई फर्क महसूस नहीं हुआ।

भारतीय जैसे मददगार लोग दुनिया में कहीं नहीं
अगर बीएसपी के कोक ओवन में कुछ दिक्कत आई और उस उक्त मुख्य रूसी विशेषज्ञ निकोलाई बुलीगा के साथ एक अन्य घोर गंभीर सा रूसी व्यक्तित्व हो तो तय मानिए, लोग राहत की संास लेते है कि अब तो कोई प्राप्बलम ही नहीं है। यह कोई गढ़ी हुई बात नहीं है बल्कि खुद कोक ओवन के हिन्दुस्तानी अफसर व कर्मी इस तथ्य को स्वीकारते है। यकहीन हो तो खुद इनसे पूछ कर देख लीजिए। दरअसल निकोलाई कुरिलको है ही ऐसी शख्सियत। उन्हें सिर्फ अपने काम से मतलब है बाकी दुलियादारी एक तरफ यही वजह है कि मेरे आग्रह को वे आसानी से नहीं स्वीकार कर पाए। मैंने जब उनके ‘बास’ बुलीगा का हवाला दिया तब कही बात बनी।

कोक ओवन में ‘हीटिंग एक्सपर्ट’ निकोलाई कुरिलको भी पिछले वर्ष से भिलाई में है, लेकिन भारत उनके लिए नया नहीं है। फकड़ तबियत के कुरिलको ने सारे भारत का दर्शन सिर्फ इसलिए किया क्योंकि उनमें भारत को जानने की ललक थी। युक्रेन दनियत्सका निवासी कुरिलको स्वीकारते हैं मैंने युक्रेन में रहते हुए भारत को सिर्फ किताबों में जाना था, क्योंकि मैं फिल्में देखता नहीं। किताबी ज्ञान होना एक अलग बात हैं लेकिन व्यावहारिक तौर पर भारत को जानने की मेरी बड़ी जिज्ञासा थी लिहाजा, मैंने पूरे भारत का भ्रमण किया। जिसमें जगन्नााथपुरी व कलकत्ता मुझे पसंद आए। मैंने कुरिलको को टाकते हुए पूछा पूरे भारत घुमने पर क्या खास बात नजर आई? वह बोले ऐसे तो बहुत ज्यादा नहीं बता पाऊंगा, लेकिन भारतीयों का व्यवहार दुनिया के अन्य मूल्क के लोगों के बनिस्बत काफी अच्छा मैंने देखा, लोग मदद के लिए तत्पर रहते है। यहां लोग बड़े दिल वाले है। कुरिलको ने बताया कि वह 1994 में बोकारो इस्पात संयंत्र में भी अपनी सेवाएं दे चुके है। इस पर मेरा एक स्वाभाविक सा सवाल था बोकारो और भिलाई के वर्क कल्चर में कुछ फर्क नजर आया क्या? कुरिलको ने कहा नहीं, दोनों जगह मेहनतकशव जुझारू लोग हैं।

फिर मैंने इसी से मिलता-जुलता सवाल पूछ दिया आपने अपने मूल्क के इस्पात संयंत्र में भी कार्य किया हिन्दुस्तान में भी सेवा दे रहे है क्या फर्क महसूस करते है? नपे तुले अंदाज में उन्होंने कहा भाषा का। मुझे हिन्दी नहीं आती और यहां के कर्मचारियों से संपर्क के लिए मैंने काम चलाऊ अंग्रेजी में काम चलाया। आज भी मैं टुटी-फूटी अंग्रेजी में विभागीय सार्थियों से बात कर लेता हूं। काम के बाद फुर्सत के पल कैसे बीतते है? मेरे इस सवाल पर वे मुस्कुरा दिए, फिर बोले, मुझे स्पोर्ट्ïस बहुत पसंद है और फुटबाल के लिए जूनून सा है। खाली वक्त में अगर मैं फुटबाल नहीं खेल रहा हूं तो आप तय माने की टीवी पर मैं मैच देख रहा होता हूं। मैंने सोवियत संघ और उसके बाद की परस्थितियों पर जब कुरिलको से कुछ पूछना चाहा तो उन्होंने अनमने ढंग से मुंह बनायी मानो वे इसका जवाब देना नहीं चाहते, लेकिन कुरेदने पर उन्होंने कहा भिलाई में ही ऐसे लोग, जो सोवियत संघ वाले जमाने में रूस जाकर आए है, अगर मुझसे मिलते है तो मैं यही कहता हूं कि आप लोग किस्मत वाले है जो रूस का स्वर्ण युग देखकर आ गए है, लेकिन अब वहां हालात बहुत ज्यादा अच्छे नहीं है। मैंने टोक दिया और पूछा तो क्या सोवियत संघ के बिखरने का आपको मलाल है। उसने कहा निश्चित तौर पर।

हमारी बात चल रही थी कि कुरिलको का लौटने का वक्त हो गया चूंकि उनका ड्राइवर आ गया था, इसलिए उन्हें खेद के साथ कहा कि जरूरी काम है, मुझे जाना होगा। मैंने मौके की नजाकत को देखते हुए चलते उनसे आखिरी सवाल पूछ ही लिया कि क्या अपने मूल्क और यहां के पानी में कोई फर्क महसूस किया? वे बोले हां। स्वाद तो एक जैसा है, लेकिन हमारे मूल्क का पानी यहां के बनिस्बत बेहद ठंडा है। ... और कुरिलको गाड़ी में बैठ गए।
खेद...

वोल्का से शिवनाथ तक 6 में भटनागर परिवार की प्रकाशित तस्वीर के कैप्शन में त्रुटिवश बेटी की जगह बहू छप गया है। तस्वीर में स्वर्गीय श्री भटनागर के बाजू में उनकी बेटी संगीता बैठी है। त्रुटिवश बहू प्रकाशित हो गया है जिसका हमें खेद है।

हिन्दुस्तान आकर मैंने जाना धर्म का महत्व
एक अकेला इंजीनियर मशीने सुधारने के अलावा शायद कुछ नहीं कर सकता, लेकिन दो हो जाएं तो...? तय मानिए दिलों का मेल भी हो सकता है। यकिन नहीं आता हो तो जरा चतुर्वेदी दंपत्ति से मिलिए। विवेक यहां मेकेनिकल इंजीनियर है वहीं इना लुब्रोनेंको इलेक्ट्रिक इंजीनियर है। इन्हें अगर आप भारत-रूस मैत्री के युवा प्रतीक तस्दीक करें तो ज्यादा बेहतर होगा। दरअसल ये ऐसे युगल है जिनकी आपकी स्पष्टï सोच है। दोनों अतीत की खुशफहमी में जीना नहीं चाहते बल्कि वर्तमान में जीना और सुखद भविष्य में गढऩा इन्हें ज्यादा पसंद है। वैसे सोवियत संघ के बिखराव से पैदा हुए तल्खिया आज भी इना के जहन में मौजूद है। यही वजह है कि आज के ईरान में उन्हें 91 के सोवियत संघ जैसी समानता दिखती है। वैसे इना की जो खासियतें है और उसमें जो सीखने का गुण है, वह लाजवाब है। यही वजह है कि जब मैंने बात की शुरूआत की तो मेरी शंका का समाधान कुद विवेक ने कर दिया। वे बोले आप इना से हिन्दी में बेझिझक बात कर सकते है। और वाकई युक्रेन मूल की इना की फर्राटेदार हिन्दी सुनकर मैं दंग रह गया। मैंने इना से पूछा एक पेशेवर इंजीनियर से अब आप कुशल गृहणी है, तो अब क्या सोचती है आप? इना बोली मेरा मानना है कि आप अगर ज्यादा सोचेंगे तो कही के नहीं रहेंगे। इसलिए न मुझे पहले का वक्त खराब लगता है न आज का। मैं हमेशा ‘पॉजिटिव’ सोच की हिमायती हूं। इना की बातों पर हामी भरते हुए विवेक भी बोले अगर हमारा नजर सही रहेगा तो सब कुछ ठीक है, नहीं तो हर चीज में बुराई आएगी। दोनों की बात से मुझे लगा कि ‘दर्शनशास्त्र का डोज’ ज्यादा हो जाएगा। इसलिए मैंने टोका टोकते हुए पूछा आप लोग पहली बार कहां मिले? बीएसपी के पूर्व शिक्षा अधिकारी स्वर्गीय आर.सी. चतुर्वेदी के पुत्र विवेक बोले- युके्रन के मशीन बिल्डिंग इंस्टीटॅयूट ज्पारोशिया में मैं इंजीनियर का छात्र था। इना भी वहा पढ़ रही थी। हम मिले, दिल भी मिले और बस हमने शादी का फैसला कर लिया। 25 सितंबर 1985 को हमने रजिस्टर्ड मैरिज की। फिर इना हिन्दुस्तान आ गई। मैंने इना से पूछा हिन्दुस्तान को आपने जाना कैसे? वह बोली विवेक से दोस्ती होने के बाद मुझे हिन्दुस्तान को और ज्यादा जानने की इच्छा हुई। उस दौर में भी रूसी हिन्दी भाई-भाई का नारा बुलंद था तो भारत को जानने मुझे ज्यादा परेशानी नहीं हुई। मैंने पूछा तो क्या भारत आकर दिक्कत नहीं हुई। इना तफाक से बोली कोई दिक्कत नहीं हुई, पहले ही दिन मैंने समोसा बनाना सीख लिया। मैंने पूछा हिन्दी सीखने में कोई दिक्कत...? विवेक बीच में ही बोल पड़े इनका जवाब मैं देता हूं। यहां भिलाई में रहने लगे, उन दिनों दूरदर्शन से दोपहर में साक्षरता पर केन्द्रित कार्यक्रम ‘चौराहा’ आता था। उसका उन्होंने पूरा लाभ उठाया। फिर इना बोली उन दिनों बेटे मॉरीस को ये (विवेक) बोलना सिखाते है, मैं भी सुन सुनकर ‘कैच’ करती थी। हां, शुरू-शुरू में सब्जियों को लेकर दिक्कत होती थी। मैं समझ नहीं पाती थी करेला ‘बायल’ करना है या ‘फ्राई’ अब तो मैं हर तरह की सब्जी बना लेती हूं। जिमी कांदा मुझे सबसे अच्छा लगता है। मैंने थोड़ा रूक कर इना से पूछा आमतौर पर रशियन लोगों को हिन्दी फिल्मों का दीवाना माना जाता है, लेकिन आप फिल्में नहीं देखती, क्यों? इन बोली माफ कीजिये, लेकिन मुझे हिन्दी फिल्में पसंद नहीं आती क्योंकि पिक्चर शुरू होने के दो मिनट बाद मैं बता सकती हूं आगे क्या होगा? थोड़ी देर में डांस, गाना, रोना यह मुझे पसंद नहीं। लेकिन, राज की बात बताऊं मैं शादी के पहले कुछ हिन्दी फिल्में देखी है। उन फिल्मों में मैं नाच-गाना नहीं देखती है बल्कि उसमें हिन्दुस्तान कैसा दिखाई दे रहा है, वहंा परिवार कैसे होते है, वहां लोगों का व्यवहार कैसा होता है, ये सब गौर करती थी। इससे यहां भारत आकर मुझे बहुत सहूलियत हुई। मैंने बातचीत का रूख मोड़ते हुए इना से पूछा सोवियत संघ का बिखराव आपके लिए कैसा अनुभव रखता है? इना थोड़ी उदास हो गई, बोली मुझे तो बहुत खराब लगा। पहले हम सब एक थे। अब हमारा कोई रिश्तेदार रूस में, कोई बेला रूस में और कोई युक्रेन में है तो दुख तो होगा। मैंने टोकते हुए पूछा लेकिन ऐसा कहा जाता है कि वहां की आम जनता की मर्जी से सारे रिपब्लिक अलग हुए? इना ने असहमति जताते हुए वहां सोवियत संघ तो ‘कामन मैन’ के लिए बेहतर था तो लोग अलग होना चाहते। यह तो अमरीका है ना, जो पूरी दुनिया हुक्म चलाना चाहता है। आज ईरान में भी वहां की जनता को सद्दाम विरोधी बताया जाता है, क्योंकि अमरीका दुनिया को नहीं दिखाना चाहता है। कल जो रूस में हुआ वहीं आज ईरान मेें हो रहा है। भारत-रूस मैत्री का भविष्य क्या देखती है? सोवियत संघ और आज के रूस के दौर में भी आम जनता की संबंधों में कोई बदलाव नहीं आया है। वह उतना ही मजबूत है।

मैंने कहा लेकिन, अब इस मैत्री के उत्कृष्टï प्रतीक भिलाई मे भी रशियन काफी कम हो गये है? इना ने कहा ऐसे बात नहीं हैं, यहां अब विशेषज्ञों की उतनी जरूरत नहीं है इसलिए यहां कम है, आप वाइजाग (विशाखापट्टनम) जाकर देखिये आपको रशियन ही रशिनय नजर आएंगे। अब तक समूचा भारत और खासकर चारों धाम के दर्शन कर चुकी इना से मैंने पूछा हिन्दी धर्म को अब तक कितना समझ पाई है आप? इना ने कहा रशिया में तो हमारा कोई धर्म ही नहीं था, हम धर्म शून्य थे। लेकिन, यहां इन्होंने (विवेक) ने मेरा हिन्दु धर्म से परिचय कराया, तब मुझे मालूम हुआ कि कितना महान धर्म है। मैंने पूछा सारे भारत में क्या पसंद आया? वह बोली राजस्थान और बनारस के मंदिर तथा ऐतिहासिक ईमारतें। इसके बाद मैंने अपने ‘पैटेंट’ सवाल पर आ गया। मैंने पूछा आपको वोल्गा और शिवनाथ के पानी में फर्क महसूस हुआ? इना ने सोवियत संघ का नक्शा दिखाते हुए कहा आप वोल्का की बात कर रहे है वह तो बहुत बड़ी नदी है जो प्राचीन रूस और आधुनिक यूरोपियन रूस को विभाजित करती है। लेकिन हमारी युक्रेन की नदी तो द्ïनेपर है जो बहुत महान है।

पानी के लिहाज में मुझे शिवनाथ भी द्ïनेपर जैसी प्रिय है। लेकिन, बरसात में यहां पानी बायल करना पड़ता है। चलते-चलते मैंने पूछा आज का युवा रशियन क्या सोचता है? वह बोली काफी साल से मंै वहां गई नहीं हूं इसलिए निश्चित तौर पर नहीं बता सकती, लेकिन तय मानिये आज की जनरेशन में वह सब नहीं देखा जो हम देख चुके। अब वहां की यंग जनरेशन सपनों की दुनिया में रहती है। मैंने चुटकी ली तो क्या आप भी सपनों की दुनिया में रहती है? वह बोली सिर्फ मैं नहीं हम दोनों, लेकिन हमारे कदम जमीन पर रहते है।

मैंने प्यार किया है हिन्दुस्तानी तहजीब से
कोई ठेठ छत्तीसगढ़ अगर इस गुमान में है कि छत्तीसगढ़ का चप्पा-चप्पा उसे छान मारा है तो वी वी कमानदोव से मिलकर उसे शायद रश्क हो सकता है। एक रूसी मूल का विशेषज्ञ जो महज 10-12 साल से भिलाई में है, उससे आप छत्तीसगढ़ कोई भी जगह पूछ लीजिए, वे झट आपके सामने उस जगह का एलबम निकालकर रख देंगे। उनकी पहली टिप्पणी होगी यहां मैं फला सन, फला तारीख को गया था। दरअसल भिलाई इस्पात संयंत्र के प्रबंध निदेशक के प्रमुख तकनीकी सलाहकार रूसी वी वी कमानदोव सैलानी तबियत के है। उनकी पहली प्राथ्मिकता काम होती और ज्यादा फुर्सत में हो तो कमानदोव को घर में आराम फरमाते नहीं देखा जा सकता। यही वजह है कि जब मैंने उनसे मिलने का वक्त मांगा तो बड़ी मशक्कत के बाद पांचवे प्रयास में सफलता हाथ लगी। खैर, जब मैं उनके घर पहुंचा तो वे किचन में व्यस्त थे। क्योंकि उनकी पत्नी फिलहाल छुट्टिïयों में युक्रेन गई हुई है। उन्हें खाना बनाते हुए बात करने से गुरेज नहीं था। लिहाजा किचन में मैंने किचन की बात शुरू कर दी।

उन्हें आलू ‘फ्राई’ करते देख मैंने पूछा लगता है आपको भारतीय खाना बेहद पसंद है? कमानदोव बोले मैं सभी तरह का खाना पसंद करता हूं। हिन्दुस्तानी खाने में मुझे दक्षिण भारतीय व्यंजन पसंद है। तो क्या इन्हें बनाना भी आता हैं? कमानदोव हंसते हुए बोले थोड़ा-थोड़ा। खैर, उनका खाना पक चुका था, इसलिए वह फ्रेश होकर ‘ड्राइंग रूम’ में आ गए। 65 वर्षीय कमानदोव से मैंने पूछा आपका पहले-पहले भारत से परिचय कैसे हुआ? बीते दिनों को याद करते हुए वह बोले 40 और 50 का दशक सोवियत संघ के लिए काफी कष्टï पूर्ण था। युद्घ की छाया तले हमारा बचपन ‘आभावों’ में बीता, उसके बात जब कुछ जानने समझने की उम्र हुई तो पहली इच्छा भारत को जानने की हुई।

दरअसल प्रसिद्घ रूसी चित्रकार और भारत की मशहूर अभिनेत्री देविका रानी के प्रति निकोलाई रोरिख और उसका भाई यूरी पूरे भारत का भ्रमण कर चुके थे। रोरिख और यूरी से मुझे पता चला कि भारत कितना महान देश है। 50 के दशक में भारत को और गहराई से जानने का मौका राजकपूर की ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ देखकर मिला। युक्रेन में दनियत्सक में रहने वाले कमानदोव ने बताया कि उसने स्टील इंडस्ट्री से ही अपने कैरियर की शुरूआत की है, तो मैंने पूछ लिया रूस और भारत के इस्पात उद्योग का भविष्य क्या देखते हैं? वह बोले भविष्य तो बेहतर है। पहले पूरे सोवियत संघ में 123 ब्लास्ट फर्नेस थे जिनमें अकेले युक्रेन में 50 थे। 91 से 98 का दौर इस्पात उद्योग के लिए पूरे विश्व में मंदी का रहा, जिसका असर भारत-रूस दोनों पर पड़ा। अब उससे रूस भी उबर गया और भारत भी। भिलाई अभी 4.5 मिलियन टन उत्पादन दे रहा है लेकिन, जिस तेजी से यहां आधुनीकरण हो रहा है तय मानिये भविष्य मे हम छ: मिलियन टन भी उत्पादन भी दे सकते है। बात इस्पात उद्योग की चल रही है तो मैंने कमानदोव से पूछा पिछले 12 से ्र13 वर्षो में आपने विभिन्न प्रबंध निदेशकों के साथ काम किया, कैसा अनुभव रहा? जरा सोचिये वे बोले- ई.आर.सी. शेखर के दौर में बीएसपी का आधुनिकीकरण शुरू हुआ। वे बेहद समर्पित व्यक्ति थे। सुब्रवत रे के वक्त ब्लास्ट फर्नेस-7 में कुछ समस्या आ गयी थी उस संकट के दौर में एक मुखिया के रूप में डटे रहे। इसी दौरान सोवियत संघ टूटा। पासपोर्ट वीजा संबंधी औपचारिकताओं के लिए मुझे युक्रेन जाना पड़ा। लौटा तो विक्रांत गुजराल एमडी थे। उसके साथ पूरे आठ वर्ष का शानदार अनुभव रहा। गुजराल ‘मेकनेकिल साईड’ से थे, उनमें काम करने की ताकत गजब थी। उन्होंने न सिर्फ प्लांट बल्कि स्र्पोट्ïस के लिए बहुत किया। वरूण घोषाल के साथ मैं बोकारो में भी काम कर चुका था वे हमेशा बेहतर परिणाम के आकांक्षी थे। उन दिनों वे रोमानिया के एक स्टील प्लांट है। बी.के. सिंह जैसा व्यक्तित्व मैंने दूसरा नहीं देखा। एक जमाने में युक्रेन के मैग्रिता गोसके में हम साथ-साथ काम कर चुके है। वह बहुत जुझारू और मेहनत कश है तथा रिपेयर के विशेषज्ञ है। आप उनके कार्यालय जायेंगे तो उनकी खुर्सी के ठीक पीछे लिखा है कि ‘अगर आप मेरे कक्ष में आए है तो मुझे लगता है आप मुझे नयी चीज बताने आए है’ यह कथन मुझे प्रभावित करता है। वैसे, वे हर व्यक्ति का पूरा और बेहतर उपयोग करना जानते है। भिलाई के प्रबंध निदेशकों पर कमानदोव की राय जानने के बाद मैंने सोवियत संघ और आज के रूस पर का हाल पूछा- मिखाईल और गोर्बाच्योफ की नीतियों से असहमति जताते हुए उन्होंने कहा- गोर्बाच्योफ को भले ही शांति का ‘नोबल प्राइज’ मिला हो, लेकिन उनकी उपयोगिता क्या है? रूस तो बिखर गया न...। द्वितीय विश्व युद्घ के बाद शून्य से शुरू हुआ सोवियत संघ एक महाशक्ति बन गया था। क्योंकि हर रशियन के पास एक लक्ष्य था, देश की तरक्की। अब 91 के बाद क्या हुआ...? सब कुछ बिखर गया निश्चित तौर पर मुझे दुख लगा क्योंकि एक सूत्र में बंधे अनुशासनबद्घ लोगों को अब ‘चेचेन्या’ झेलना पड़ रहा है। मैंने पूछा सोवियत संघ में 91 के पहले के युवाओं को भी आप जानते है और उसके बाद के भी। क्या फर्क महसूस करते है? कमानदोव बोले 91 के पहले युवाओं के पास एक लक्ष्य था और उसे पूरा करने एक ‘फिक्शड प्रोग्राम’। हमारे कुछ आदर्श थे। लेकिन 91 के बाद का रशियन युवा विपरीत परिस्थितियों में हैं। वह अपने लाईफ को बेहतर बनाने डालर के पीछे भाग रहा है। कोई हैरत की बात नहीं कि भविष्य में रूस का नाम ‘युनाईटेड स्टेट ऑफ रशिया’ हो जाए। इसके बाद मैंने पूछा भारत-सोवियत मैत्री का भविष्य क्या देखते है? उन्होंने कहा जनता के स्तर पर तो दिलों का संबंध है। यह दिनों दिन बढ़ेगा कमानदोव के कमरे में बुद्घ, सांई बाबा और जीसस क्राईट्ïस की तस्वीर देखकर मैंने कह दिया आप बेहद धार्मिक लगते है? हंसते हुए उन्होंने कहा ऐसी बात नहीं, मेरा मानना है कि सबसे बड़ी चीज विश्वास है। आपका जिस पर विश्वास है, उसका सम्मान कीजिये। फिर भगवान बाहर नहीं अपने अंदर महसूस होगा। आप जो तस्वीर देख रहे है इन सबको मैं जानने की कोशिश की है जो आज भी जारी है। कमानदोव कुछ हल्के-फुल्के मूड में नजर आए तो मैंने पूछा क्या सिर्फ हिन्दुस्तान में ही दिलफेक आशिक होते है। जिन्होंने रशिया में अपनी जिंदगी ढुंढ ली। लेकिन मुझे ऐसा कोई रशियन नहीं दिखा जिसे भारत में अपनी जिंदगी नजर आयी हो।

उन्होंने कहा अगर आपका मतलब विवाह संबंधों से है तो आप लोग खुशकिस्मत है कि आपकी सरकार विशाल हृदय वाली है जो विदेशी दुलहन लाने की इजाजत देती है लेकिन हमारे यहां रशियन अपनी मुल्क के बाहर जरूर जा सकता है लेकिन वापस किसी को लेकर आ सकता। इसका मतलब आप यह नहीं निकालिये की रशियनों का ‘दिल’ नहीं होता। हम भी इंसान है हमें भी प्यार करना आता है। मुझे अपने देश से प्यार है, हिन्दुस्तानी तहजीब से प्यार है। कमानदो के इस रूमानी मूल को मैं भंग करना नहीं चाहता था, लिहाजा चलते-चलते मैंने पूछा वोल्गा और शिवनाथ के पानी में कोई फर्क नजर आया? मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा जैसी वोल्गा वैसी शिवनाथ। मछलियां वोल्गा में भी ऐसी घूमती है जैसे शिवनाथ में। हां, यह जरूर है कि वोल्गा काफी बड़ी नदी है लेकिन शिवनाथ बड़ी प्यारी नदी है।

ये जिंदगी उसी की है जो किसी का हो गया
मजुमदार दंपत्ति की बातें आप ‘कहानी पूरी फिल्मी है’ कहकर खारिज नहीं कर सकते, क्योंकि यह खालिस हकीकत है। आज यह बातें कुछ अप्रत्याशित लगे, लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत और सुदूर रूस के दो दिल करीब आए और माध्यम बनी एक दूसरे की तस्वीरें। यह दौर था 60 के दशक का जब युक्रेन की लुद्ïमिला कुजमेनेको और भारत के विश्वनाथ नागेश मजुमदार परिणय सूत्र में बंधे। आज लुद्ïमिला का रशियन मूल कहीं खो सा गया है। और अब वह भारतीय धर्म, संस्कृति व परंपरा के प्रति आस्था रखने वाली उमा है। इस आस्था का आलम यह है, कि उम्र के साठवें बसंत में भी वह अपनी सास को दिया हुआ कसम निभा रहीं है। वे न सिर्फ विदेश में बसे बेटे, सेवानिवृत्ति पति का ख्याल रखती है, बल्कि मानसिक रूप से निशक्त अपने 52 वर्षीय देवर की भी पूरी तरह देखभाल करती है। उमा की सेवा भावना के श्री मजुमदार कायल है। उन्हें यह कहने में संकोच नहीं कि अगर उमा की जगह कोई और होती तो एक मानसिक तौर से निशक्त के लिए शायद अपना जीवन होम नहीं करती।

बहरहाल आज जब मैंने मजुमदार दंपत्ति के हुडको स्थित घर में दस्तक दी तो श्रीमती उमा ने देवर विजय मजुमदार (52 वर्षीय) ने दरवाजा खोला। इससे पहले की मैं कुछ बोलूं, श्रीमती उमा ने खुद ही वस्तु स्थिति बताई। मैंने अपनी बात लुद्ïमिला यानि उमा के रूसी मूल और श्री मजुमदार से मुलाकात को लेकर शुरू की। अल सुबह योग व ध्यान से निवृत्त होकर आयी उमा 60 के दशक में लौट गई। उन्होंने बताया कि हम लोगों ने एक दूसरे की तस्वीरें ही देखी थी इनके बाद दोस्ती पनपी लेकिन इसमें एक सीमा थी। हमारे शादी की निर्णय हमारे घर वालों ने तो स्वीकार कर लिया लेकिन कुछ लोग मुझे बहकाने लगे। यह अलग बात है कि मैं बहकावें में नहीं आई। श्री मजुमदार रूस आये और लौट गये लेकिन मेरा पत्र व्यवहार उनके पिता जी से चलता रहा। इसी दौरान श्री मजुमदार भी चर्चा में शामिल हुए। उन्होंने कहा कि 1963 में हमारे शादी में कुछ दिक्कतें आ रही थी। ऐसे में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठï नेता श्रीषाद अमृत डांगे से पिता जी ने चर्चा की। श्री डांगे ने रूस के तत्कालीन राष्‍ट्रपति खुŸचेव से चर्चा की और इस तरह सारी अड़चने दूर हो गयी। 26 नंवबर 1963 को रूस में हमने रजिस्टर्ड मैरिज की। श्रीमती उमा कहती है कि मैं स्थायी वैवाहिक जीवन चाहती थी और किस्मत ने मुझे इनसे मिला दिया। युक्रेन के ज्दानोव (अब मरियोवपोल) के एक आर्थोडोक्स परिवार की बेटी लुद्ïमिला उर्फ उमा से मैंने पूछा हिन्दुतान को आपने कैसे जाना? उमा का चेहरा खिल उठा, बोली मैने बचपन में टैैगोर और पे्रमचंद को खुब पढ़ाथा फिर राजकपूर की फिल्में भी देखी। इसके अलावा मैंने जॉय मुखर्जी की लुबोव शिमले (लव इन शिमला) रूस में करीब सात बार देखी उसमें खुससूरत हिन्दुस्तान देखकर मैं दंग रह गई। मुझे लगा यहीं मेरे सपनों का जहां है। आज रूस के बिखराव के बाद क्या महसूस करती है? मेरे सवाल पर थोड़ी देर चुप रही, फिर बोली, हम 17 रिपब्लिक के लोग एक साथ मिलकर रहते थे। क्रिश्चयन, मुस्लिम या युक्रेनी रूसी मेें कोई भेद नहीं था लेकिन, जब इसके टुकड़े हुए तो मैं सकते में थी। आज भी मुझे इस बात का बेहद अफसोस है। भिलाई में 40 वर्ष से रह रही उमा से यह पूछने पर कि इस शहर में क्या बदलाव महसूस करती है। उन्होंने कहा पहले तो सब कुछ साफ सुथरा और हरियाली से भरपूर था लेकिन, अब लगता है हम भिलाई के लोग ही भिलाई के प्रति ज्यादा लापरवाह हो गये है। भारत में किस राष्टï्रीय नेता ने आपको प्रभावित किया? इस पर श्रीमती उमा बोली, मुझे तो लालबहादुर शास्त्री और अटल बिहारी वाजपेयी प्रिय है। मेरी नजर में दोनों ही देश के लिए गंभीरता अनुकरणीय है। इसके अलावा संजय गांधी में देश के प्रति कुछ करने की बहुत क्षमता थी पर वे असमय मौत के शिकार हुए। उनसे मैंने पूछा की रूस की वोल्गा और दुर्ग की शिवनाथ के पानी कोई फर्क महसूस हुआ क्या? तो वह हंस पड़े। उन्होंने कहा मेरे लिए तो भारत की सारी नदियॉं पूज्यनीय है। वैसे शिवनाथ का पानी मुझे कभी अलग नहीं लगा। नागपुर के श्री मजुमदार के माहरा ........ मैंने बताया कि अब तक वह हिन्दुस्तान का ज्यादातर हिस्सा घुम चुकी है लेकिन, जैसी शांति भिलाई में है कहीं नहीं। उन्होंने बताया कि रूसी भोजन के बनिस्बत भारतीय भोजन और उसमें भी दक्षिण भारतीय भोजन बेहतर लगता है। हिन्दी, अंग्रेजी और रूसी भाषा की जानकार लुद्ïमिला से चलते-चलते मैंने पूछा क्या आप मराठी भी जानती है। उन्होंने अपने लहजे में कहा मला मराठी भाषेत समझू मधे काही परेशाणी नाही होत, बरोबर गोष्ठ नाही करू सकत। और फिर वे खिल खिलाकर कर हंस पड़ी

हिन्दुस्तान मतलब नेहरू, लता और राजकपूर
भिलाई इस्पात संयंत्र में सहायक महाप्रबंधक और रूसी प्रतिनिधि डॉक्टर इस्माईल ए. मजानायेव अगर खामोश बैठे हो तो आप उन्हें काश्मीर क्षेत्र का कोई बाशिंदा समझने की भूल कर सकते है। इनकी खामोशी टूटने पर ही यह राज फाश हो सकता है कि इस्माईल तो रशियन है। वैसे इस्माईल को इस पर नाज है जरा उनकी कैफियत सुनिये भारत-रूस मैत्री के प्रतीक भिलाई में लोग मुझे अपना समझते है, इससे बेहतर बात और क्या होगी। इस्माईल का भिलाई से दो दशक से रिश्ता है। ऐसे में जब मैंने उनके सामने कुछ मुद्दों पर चर्चा करने का प्रस्ताव रखा तो बिना असहज हुए वे खुद ही अपने बारे में बताने लगे।

शुरूवाती चर्चा में उन्होंने अपने भिलाई में बसे रशियन परिवारों के बारे में बताया कि फिलहाल सात परिवार यहां है और महिलाएं व बच्चे अभी छुट्टियों में रूस गए हुए है। मैंने उनसे जानना चाहा कि रशिया में रहते हुए भारत आपके लिए क्या था? एक सांस में उन्होंने कह दिया ‘ग्रीनलैंड और ड्रीमलैंड’। फिर मुस्कुराते हुए बोले बचपन से मेरे लिए भारत का मतलब था बड़े दिल वाले लोग, हरी भरी जगह, पंडित जवाहर लाल नेहरू, लता मंगेश्कर और राजकपूर। बचपन में मैं लता मंगेश्कर का फैन हूं। उनके गाने खूब सुनता था। फिर नेहरू को न्यूजरील में देखा था और राजकपूर का किस्सा तो अलग ही है। मैंने पूछा वो कैसे? इस्माईल बोले, कम्युनिस्ट शासन में ब्रद्ïगाह (अवारा) और गस्पयादीन चितिरिस्को द्वाबचक (श्री 420) जैसी फिल्में बच्चों को देखने की इजाजत नहीं थी। मैंने दोस्तों के साथ किसी तरह छुपते-छुपाते थियेटर में इन फिल्मों को देखने में सफल रहा। फिर दूसरी और भी फिल्में देखी मुझे लगा दुनिया का ग्रीनलैंड और मेरा ड्रीमलैंड भारत ही है। फिल्मों की बात पर मैंने इस्माईल को टोका मैंने कहा- आप जिन फिल्मों की बात कर रहे है उनमें तो भूख, गरीबी, भ्र्रष्टïाचार वाले भारत की तस्वीरें दिखती है, फिर यह आपका ड्रीम लैंड कैसे? इस्माईल हंस पड़े बोले ठीक है, इन फिल्मों यह सब दिखाया गया लेकिन फुटपाथ पर रहने वालों का दिल कितना बड़ा है। लोग एक-दूसरे के कितने मददगार हैं, यह सब भी इन फिल्मों में है ये सारे लोग तो भारतीय है। दरअसल यही भारत की सच्ची तस्वीर हैं। मुझे कुछ कहते नहीं बना, कुछ रूककर मैंने कहा, हमारे देश में भ्रष्टïाचार, बेईमानी है। ऐसा आम आदमी महसूस करता है। आप क्या सोचते है इस्माईल ने असहमति कि मुद्रा में कहा, देखिये यह समस्या सिर्फ मेरे या आपके देश की नहीं यह अतर्राष्‍ट्रीय समस्या है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह आदमी का व्यक्तिगत चरित्र होता है और दूनिया ईमानदार लोगों के दम पर टिकी है। चर्चा के दौरान इस्माईल ने बताया कि वे पहली बार 79 में भिलाई आये थे तब वे दुभाषिए की डिग्री के लिए अध्ययन कर रहे थे उस वक्त प्लेट मिल निर्माणाधीन थी। उसके बाद वापस रशिया गये। अब 1996 से यहां है। पहाड़ों से घिरे क्षेत्र दागस्तान के रहने वाले इस्माईल से मैंने पूछा आपने सोवियत संघ का भी दौर देखा और उसके बाद भी दौर देख रहे है। क्या फर्क महसूस करते है। मेरा सवाल चल ही रहा था कि काफी आ गई। शक्कर के घुलने तक उन्होंने सोचा फिर चुस्कियां लेते हुए बोले भारत के साथ संबंधों पर तो फर्क नहीं पड़ा, इसमें स्थायित्व है। रूस पर भी बहुत फर्क नहीं पड़ा। पहले हम एक थे तो हमारे पास शक्ति थी फिर हम अलग जरूर हुए लेकिन परेशानियों का दौर बीत चुका है। 91 में शून्य से हम लोगों ने फिर शुरूवात की अब हम सभी सत्रह देश आपस में अपने संबंध बेहतर बना चुके है। दागस्तान का उल्लेख करते हुए मैंने पूछा वहां और चेचेन्या में तो काफी अशांति है जिसके इस्लामिक आतंकवाद बताया जाता है। इस्माईल चौक गए, बोले आतंकवाद इस्लामिक या क्रिश्यन नहीं होता। दरअसल मजहब, परंपरा और आतंकवाद ये अलग-अलग बातें है। इनका घोल मेल नहीं करना चाहिए। वैसे दागस्तान में अब सारी स्थिति नियंत्रण में है। क्या भारत के नेता ने आपको प्रभावित किया? इस पर वह बोले महात्मा गांधी को मैंने बहुत ज्यादा पड़ा नहीं लेकिन इतना कह सकता हूं कि वह भारत के ही नहीं अतर्रास्ट्रीय स्तर पर सकारात्मक सोच वाले नेता हूं॥ पंडित नेहरू मेरी नजर में वह सख्सियत है जिन्होंने महात्मा गांधी के विचारों को व्यवहारिक रूप दिया। आज इन दोनों के स्तर का आप किसे मानते है? मेरे पूछने पर उन्होंने दो टूक कहा फिलहाल कोई नहीं इसके बाद हमारी बात खान-पान पर आ गई। जब वे अपनी पसंद बता रहे थे मैंने दूसरे रशियन प्रतिनिधि की तरह उनसे भी पूछ लिया। क्या वोल्गा और शिवनाथ के पानी कोई फर्क महसूस हुआ? तपाक से बोले- वोल्गा तो बहुत बड़ी नदी है न मुझे उसका पानी अलग ना यहां शिवनाथ का।

आज यह मानिए शिवनाथ का पानी नुकसानदायक नहीं है। चलते-चलते मैंने उनसे आखिरी सवाल पूछा- आप दूसरी बार भिलाई आए है छत्तीसगढ़ी संस्कृति को आपने करीब से देखा होगा कैसे लगी हमारी...? मेरी बात पूरी नहीं हुई थी कि उन्होंने मुझे इस अंदाज से देखा कि मैंने कुछ गलत कह दिया। फिर बोले- ये छत्तीसगढ़ी, बंगाली, पंजाबी कल्चर क्या होता है? मैं कल्चर को अलग-अलग नहीं देखता ये सब हिन्दुस्तानी कल्चर है और मुझे हिन्दुस्तानी कल्चर सबसे ज्यादा पसंद है। इस्माईल के इस आंखे खोल देने वाले जवाब के बाद पास माथे का पसीना पोछने के अलावा कोई चारा न था।

बाक्स में....
मैंने इस्माईल से जानना चाहा कि रशिया में रहते हुए भारत को लेकर आपकी क्या धारणा थी? एक सांस में उन्होंने कह दिया ‘ग्रीनलैंड और ड्रीमलैंड’। फिर मुस्कुराते हुए बोले बचपन से मेरे लिए भारत का मतलब था बड़े दिल वाले लोग, हरी भरी जगह, पंडित जवाहर लाल नेहरू, लता मंगेश्कर और राजकपूर। बचपन में मैं लता मंगेश्कर का फैन हूं। पंडित नेहरू व राजकपूर उन्हें बहुत प्रिय है।

भिलाई से मालूम हुई भारत की महानता
भिलाई लौह इस्पात संयंत्र के कोक ओवन विभाग में अगर बेहद ऊंचे कद का कोई शख्स दिखाई पड़े तो खाना-पीना भी भूलकर संजीदगी से अपने काम में जुटा है तो यकीन मानिए यक कोक ओवन के लिए युक्रेन मूल के प्रमुख रूसी विशेषज्ञ निकोलाई बुलिगा है। बुलिगा के लिए काम के आगे भावनाएं ज्यादा महत्व नहीं रखती। इस वजह से उन्हें बातचीत के लिए राजी करना आसान नहीं था। ऐसे में इसके पहले कि मैं मायूस लौटता उनके करीबी एक साथी ने मुझसे कहा आखिर बुलिगा एक इंसान भी तो है। बस फिर क्या था मैंने बुलिगा को अपनी मंशा से अवगत कर दिया। वे बमुश्किल राजी हुए लेकिन, एक शर्त के साथ...। बोले मैं बात करूंगा, लेकिन काम खत्म होने के बाद।
उनकी बात मानने में ही खैर थी, लिहाजा कुछ घंटे के इंतजार के बाद जब उन्होंने मुझे अपने दफ्तर मेें बुलाया तो लगा जैसे बहुत बड़ी सफलता हाथ लग गई।

खैर, फ्रेश होकर बुलिगा बातचीत के मूड में बैठे। मैंने उनसे पूछा, रूस और भारत के वर्ककल्चर में कोई फर्क महसूस करते हैं क्या? बिना किसी लाग लपेट के उन्होंने कहा कि अगर मैं बोलूं कि सिर्फ हमारे देश में ही मेहनतकश लोग है तो यह ज्यादती होगा। दोनों देशों की परिस्थिति और प्रकृति अलग-अलग है, लेकिन मानवीय स्वभाव तो लगभग सभी जगह एक सा रहता है। इसलिए मुझे यहां भी काम के प्रति समर्पित लोग ही नजर आते है। मैंने उन्हें बीच में टोकते हुए कहा लोग हमरे यहां तो हड़ताल, तालाबंदी और कई अन्य कारणों से अक्सर कह देते है कि ‘इस देश को वास्तव में भगवान चला रहा है’ आप इसमें इत्तफाक रखते हैं। बुलिगा ने मुझे इस इंदाज में घूर के देखा मानों मैंने कोई गलत बात कह दी। फिर बोले, मुझे नहीं मालूम आप लोग ये ‘भगवान वाली बात’ क्यों कहते हैं। लेकिन ऐसी प्राब्लम तो पूरी दुनिया में है और प्राब्लम है तो उसका साल्युशन भी है।

मैंने इसे ज्यादा तूल न देते हुए बुलिगा से पूछा आपका पहली बार हिंदुस्तान से परिचय कैसे हुआ? वे बोले, किताबों में मैंने पढ़ा था। फिर 79 में जब भिलाई से इंजीनियरों का बहुत बड़ा दल हमारे दनियास्का आया तो उनसे दोस्ती हो गई। उनमें सीताराम, घोष सहित कई लोग आज भी मेरे साथ भिलाई में हैं। इन लोगों के जरिए और फिर भिलाई व भारत के अन्य हिस्सों से लौटने वाले रूसी मित्रों से मूझे सही मायनों में पता चला कि हिंदुस्तान वाकई में महान देश है। इसके पहले कि मैं कुछ पूछंू, शायद बुलिगा ताड़ गए, खुद ही बोल पड़े, आप शायद फिल्मों के बारे में पूछेंगे, लेकिन मैं फिल्में देखता ही नहीं, इसलिए मैंने हिन्दुस्तान को फिल्मों से नहीं जाना। हां हमारे घर की महिलाएं और खासकर मेरी एक भतीजी को हिन्दी फिल्में बहुत पसंद है क्योंकि उसमें रोना, गाना, खाना सब कुछ रहता है। फिर मैंने पूछा भारत-रूस के संबंधों को लेकर आप क्या सोचते हैं? क्या सोवियत संघ के बिखराव के बाद भी इसमें स्थायित्व है। बुलिगा बोले, 50 के दशक में मैत्री की जो शुरूआत हुई थी उसमें तो स्थायित्व है। जहां तक बिखराव वाली बात है तो 91 के बाद जनता के स्तर पर कोई बदलाव नहीं आया। रूसी और हिंदुस्तानी आज भी भाई-भाई हैं। लेकिन, बदलती अंतर्राष्टï्रीय परिस्थितियों के कारण मैं समझता हूं व्यापारिक संबंधों में कुछ परिवर्तन आए हैं। अब सोवियत संघ के जमाने जैसी व्यापारिक एकाधिकार वाली बात नहीं है। कंपटीशन बढ़ा है तो ठीक ही है। मैंने पूछा आपका काम के प्रति समर्पण लोगों में चर्चा का विषय रहता है, कोई खास वजह? उन्होंने कहा, मुझे यह जानने की जरूरत नहीं महसूस होती कि लोग मेरे बारे में क्या चर्चा करते है, लेकिन मैं गलतियां बर्दास्त नहीं कर सकता। अगर मेरा अधीनस्थ अपना काम ठीक से नहीं कर पा रहा मतलब कमी मुझमें है। तो मंै अपनी गलती पहले देखता हूं बस। पिछले वर्ष सितंबर से भिलाई में रह रहे बुलिगा से मैंने पूछा, इन दस महीनों में छत्तीसगढ़ को कितना जान पाए है? उन्होंने कहा सच बताऊं तो अखबारों में जो छपता है मुझे बस उतना ही मालूम है। मैंने पूछा, क्या हिंदुस्तान की किसी शख्सियत ने आपको प्रभावित किया? वह बोले, नेचुरली गांधी, नेहरू। दरअसल गांधी वह व्यक्ति है जिसे देश की फिक्र थी और नेहरू चुकिं गांधी के फालोअर थे इसलिए उन्होंने भारत के लिए बहुत किया। चलते-चलते मैंने पूछा वहां और यहां के पानी में कोई फर्क महसूस हुआ? मेरा मतलब वोल्गा और शिवनाथ से था और बुलिगा तुरंत समझ गए, बोले दोनों पानी की तासीर अलग-अलग है। वोल्गा बहुत बड़ी नदी है हां शिवनाथ का पानी बहुत साफ है। सच बात तो यह है पानी-पानी में कोई फर्क नहीं। इसके बाद बुलिगा झट से उठ कर खड़े हो गए और घड़ी की तरफ इशारा कर दिया। क्रमश: ...

यहां ट्यूशन व लेटलतीफी से को$फ्त होती है
फैशन डिजाायनिंग और इंजीनियरिंग का दिलों के मेल से क्या संबंध हो सकता है? अगर आप जवाब ढूंढना हो तो सेक्टर-10 निवासी मुखर्जी दंपत्ति से मिलन इसे अच्छी तररह समझा जा सकता है। युक्रेन मूल की फैशन डिजाइनर लुद्ïमिला अरेफयेवा और भिलाई इस्पत संयंत्र के सहायक महप्रबंधक तथा पेशे से इंजीयिर सुब्रत मुखर्जी को आप आधुनिक रूस व आधुनिक भारत का प्रतिनिधि मान कर यदि चर्चा करें तो यह सही मायनों में रोमांचक अनुभव होगा। इन दोनों की बातें में लाग लपेट नहीं थी, इसलिए जब मैंने चर्चा शुरू की तो, लुद्ïमिला बोल पड़ी मेरे पास बताने के लिए सिर्फ ‘पॉजिटिव’ नहीं बल्कि दोनों पहलु है। इससे पहले कि मैं कुछ बोलूं सुब्रत हंसते ह ुए बोले इनकी (लुद्ïमिला) बातें थोड़ी कड़वी भले हो सकती है लेकिन, बुरी नहीं।
बहरहाल, मैंने जब दोनों की पहली मुलाकात के बारे में पूछा तो मुखर्जी दंपत्ति 80 के दशक में लौट गए। सुब्रत बताने लगे-मैं कुछ 1977 से युके्रन अध्ययन के लिए गया था वहां 83 तक रहा। पढ़ाई के दौरान दोस्ती कई लोगों से थी, पर पहली प्राथमिकता ‘कैरियर’ थी। अप्रेल 1980 में इनके स्कूल वालों ने अंतर्राष्टï्रीय युवा दिवस पर युक्रेन में पढ़ रहे 48 देशों के युवाओं का सम्मेलन करवाया था। वहीं हमारी मुलाकात हुई। इस बीच लुद्ïमिला बोल पड़ी हमरी मुलाकातें बढ़ी, लेकिन जहां तक शादी का सवाल है, हम दोनों ने ‘कैरियर’ बनाने के बाद ही शादी करना तय किया था, लिहाजा मेरा फैशन डिजायनिंग का कोर्स और इनकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी होने के बाद 25 सितंबर 1985 को ज़्पारोशिया में हमने रजिस्टर्ड मैरिज कर ली। मैंने लुद्ïमिला से भारत को लेकर उसकी सोच और पहली भारत आगमन के बारे में पूछा, तो वह बोल पड़ी-मैं पहले ‘मैग्जिन’ और ‘लिट्रेचर’ से ही भारत को जानती थी, लेकिन इनसे दोस्ती के बाद मुझे सही तौर पर भारत के बारे मेें जानकारी हासिल हुई। शाली के बाद पासपोर्ट-वीजा आदि औपचारिकताओं में वक्त लगा, इसलिए एक फरवरी 1986 को भारत पहुंच सकी। यहां घर में चूंकि बांग्ल संस्कृति थी इसलिए पहले मैंने बांग्ला सीखी। पूजा पद्घति, खाना बनाना और परिधान आदि में मुझे बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं आई, क्योंकि घर में सभी ने मुझे प्रोत्सााहित किया। मुझे हिंदी पढऩा ठीक से नहीं आता ऐसे मेे अब हमारी बेटी सु$जान्ना मदद करती है। मैंने लुद्ïमिला से पूछा-18 बरस से भिलाई में रहते हुए शहर के प्रति क्या धारणा बनी आपकी? वह तपाक से बोली मुझे तो यह छोटा गांव लगता है। मैंने पूछा क्यों? तो जवाब सुब्रत ने दिया-महानगरवासियों को भिलाई तो गांव ही लगेगा ना। फिर लुद्ïमिला ने कहा-शादी के बाद यहां आने पर मैंने आने आपको हमेशा व्यस्त रखा। पहले मैंने नेहरू नगर में बुटीक खोली उसके बाद अब सेक्टर-10 में बुटीक चला रही हूं। यहां भी सुबह से देर रात तक व्यस्त रहती हूं। इसके अलावा भिलाई में रशियन वाणिज्यिक संस्थान ‘त्याशप्रोम एक्सपोर्ट’ में भी 95-99 में सेवा दे चुकी हूं। क्या कभी घर की याद आती...? मेरे सवाल पर लुद्ïमिला चौकी नहीं बल्कि सीधे तौर पर बोली-मैं हर साल-दो साल में युक्रेन जाते रहती हूं। पिताजी अब नहीं है। मम्मी है, वह बीमार रहती हैं तो उनकी चिंता लगी रहती है। जब बात घर की निकल ही गई थी तो मैंने सोवियत संघ के बिखराव से पहले और अभी तक के हालात के बोर मेें जानना चाहा, इस पर उन्होंने कहा रूस क बिखरना मेरे लिए तो ‘शॉकिंग’ था। गोर्बाच्योफ की नीतियां चाहे जैसे हो, लेकिन उसका प्रतिफल ठीक नहीं रहा। पहले पूरा सोवियत संघ एक था तो अनुशासित जीवन था, हमारा देश एक महाशक्ति था। लेकिन, अब लोगों को ज्यादा आजादी मिल गई है तो मुझे लगता है, इसे वहां ज्यादा बुराई पनप गई है। अब समाजवाद पीछे छूट गया है और लोग पूंजीवाद की तरफ उन्मुख हो चुके हैं। इसके बाद भी मुझे लगता है कि आज का युवा रशियन पहले से ज्यादा ‘इंटेलिजेंट’ हैंं। मैंने लुद्ïमिला से जानना चाहा कि हिन्दुस्तानी माहौल को हर विदेशी पसंद करता हैं, ऐसे में आपको क्या अच्छा लगा? वह बोली-मुझे यहां के लोगों की मिलनसारिता और एक दूसरे को मदद की भावना ने प्रभावित किया लेकिन, यहां के मौसम ने बेहद परेशान किया। आज भी अगर ‘टेम्प्रेचर’ ज्यादा हो तो दिक्कत हो जाती है। फिर कुछ गंभीर होते हुए वह बोली-मुझे यहां सब अच्छा लगता है, लेकिन केजी क्लास से लेकर बड़ी क्लास के बच्चों को ट्ïयूशन के लिए जाते देखती हूं तो मुझे कोफ्त होती है। मुझे लगता है यहां टीचर अपना दायित्व पूरा नहीं निभाते। क्योंकि हमारे यहां अगर कोई बच्चा पढ़ाई में थोड़ा कमजोर हो तो टीचर उसे अलग से बुलाकर उस पर ज्यादा ध्यान देता है, जिसबे पैसे नहीं वसूलता। फिर लुद्ïमिला बोली-दूसरी बात जिससे मुझे रोज रूबरू होना पड़ा है वह है लेट लतीफी। मैं यह नहीं कहती कि यहां वक्त के पाबंद नहीं है लेकिन, ज्यादातर लोग जानबूझकर लेट लतीफी करना पसंद करते है। बीएसपी के आरईडी मेे सीनियर मैंनेजर सुब्रत ने पूछा कि क्या लुद्ïमिला की बातों से इत्तेफाक रखते हैं? उन्होंने कहा कुछ गलत तो नहीं कह रही है वह। मैंने पूछा-क्या आपको अपने मुल्क और यहां के पानी में कोई फर्क महसूस हुआ? वह बोली-पीने का पानी तो यहां भी अच्छा है इसलिए तो मैं यहां रह सकती हूं। अब तक भारत के विभिन्न दर्शनीय स्थल घूम चुकी लुद्ïमिला ने कहा-मेरी यहां के गांवों को देखने की बड़ी इच्छा है।
मैं अक्सर ट्रेन या बस से जाते वक्त वीडियो से गांव के दृश्य ‘शूट’ करके लाती हूं और उन्हें घर में देखती हूं। लुद्ïमिला के भिलाई को गांव कहने वाली बात मेरे जहन में थी, लिहाजा मैंने पूछ ही लिया-आप तो गांव मेे ही रहती हैं ना। वह हंसने लगी बोली-नहीं मुझे इससे भी छोटा और ‘रिमोट एरिया’ का गांव देखना हैं। क्रमश: ...

रूसी-हिंदी भाई-भाई का नारा हम भूल नहीं सकते
दो दिल, दो धर्म, दो संस्कृति का एक छत के नीचे खूबसूरत मेल देखना हो तो वयोवृद्घ काशीनाथ दंपत्ति से मिलिए। 50 के दशक में ट्रेनिंग के लिए रशिया गए काशीनाथ से युक्रेन मूल की आना मलाया नाथ की मुलाकात सिर्फ एक संजोग थी। लेकिन, इस मुलाकात ने दोनों की जिंदगी का सफर साथ-साथ तय कर दिया। आज विवाह के 46 वर्ष बाद भी उनके घर में एक दूसरे के रीति-रिवाज व परंपराओं को ेकर न कभी कोई विवाद हुआ न कोई टकराव। यही वजह है कि हिंदु वणिक समुदाय से संबद्घ काशीनाथ अपनी परंपराओं का पालन करते हैं वहीं आना ग्रीक चर्चा की मान्यताआं का अनुसरण करती है। काशीनाथ कहते हैं जब इनकी क्रिसमस आता है तो मैं इनकी खुशियों में शामिल हो जाता हूं और जब होली-दीवाली हो तो आना पूरे हिंदुस्तानी परिवेश में सब लोगों से घुल मिल जाती हैं। वैसे सुखद बात यह है कि इनके बेटा-बहु भी इन्हीं के नक्शे कददम पर चले रहें है। ऐसे मेें काशीनाथ के घर को आज भारत रूस मैत्री का उत्कृष्टï प्रतीक स्वीकार करें तो यह बेहतर होगी।

काशीनाथ का एकमात्र पुत्र राजकुमार और चेचेन्या मूल की बहू डायना दिल्ली में रहती हैं। ऐसे में एक दूसरे के सुख-दुख के साथी काशीनाथ दंपत्ति बीती यादों के सहारे अपने दिन गुजार रहे हैं। बीएसपी के प्रोडक्शन प्लानिंग कंट्रोल विभाग से सुप्रिटेंडेंट के पद से 1990 में सेवानिवृत्त हुए काशीनाथ से जब मैंने आने का मकसद बताया तो भारत-रूस के संबंधों को लेकर यादों में खो गए। वह बोले-1957 मेें मैं ट्रेनिंग के लिए युक्रे्रन के $ज्पारोशिया गया था। वहीं एक दोस्त के जरिए इनसे मुलाकात हुई। इसी वक्त आना भी किचन से बाहर आ गई। बोली इनकी हेयर स्टाईल बड़ी खूबसूरत थी और जो ये खुशबू का तेल इस्तेमाल करते थे उसकी महक मुझे रोमांचित कर देती थी। तथी काशीनाथ हंसते हुए बोले इनके यहां खुशबू का तेल इस्तेमाल नहीं होता था न तो इन्हें यह अजुबी चीज लगी। खैर, हमारी मुलाकातें बढ़ी और हमने 16 जुलाई 1958 को रजिस्टर्ड मैरिज कर ली। आना जब हमारी बातों में शामिल हुई तो मैंने पूछा-आपने हिंदुस्तान को कैसे जाना? वह बोली-उन दिनों मैं मुल्कराज आनंद और प्रेमचंद को भारतीय लेखक के रूप में जानती थी, उनकी किताबों से मैंने भारत को जाना। फिर राज और रीता मेरे फवरेट थे।

मैंने टोक दिया-राज और रीता कौन है? वह बोली राजकपूर और नर्गिस। ‘आवारा’ में नर्गिस का नाम रीता था तो कई साल उसे रीता के नाम से ही जानती थी। हिंदुस्तान आकर पता लगा कि उसका नाम नर्गिस है। वैसे ाजकपूर से एक मास्को से ताशकंद जाते हुए प्लेन में मुलाकात हुई थी। मैंने राज को भी बताया-तो वह भी हंस पड़े थे। इसके बाद मैंने आना से पूछा-भारत आकर यहां की लाईफ मेें ‘एडजस्त’ होने दिक्कत नहीं आई? वह बोली-हम सेक्टर-2 में रहते थे वहां पड़ोसियों ने मेरी हर तरह से मदद की। मैंने साड़ी पहनना सीखा, यहां का खान-पान भी अपनाया। इसी बीच काशीनाथ बोले हम लोग मिर्च खाते ही नहीं हैं इसलिए उन्हें खाने में ज्यादा दिक्कत नहीं आई। आना ने कहा-मैं हिंदुस्तान आने के बाद से होली-दीवाली मनाती हूं। होली में मुझे ज्यादा रंग पसंद नहीं, थोड़ा गुलाल भर लगवा लेती हूं। मैंने आना से जानना चाहा कि वहां और यहां की जीवन शैली में क्या फर्क देखती है? उन्होंने कहा कि वहां तो बड़ी ‘फास्ट लाईफ’ है जबकि यहां के लोगों को एक दूसरे का दुख-सुख बांटने का वक्त है।

बात सोवियत संघ की निकली तो आना ने कहा-मैं आखरी बार 1988 में रशिया गई थी। वह दौर गोर्बाच्योफ का था। बहुत कुछ बदल रहा था। उसके बाद 1991 में जब रूस टूट गया तो मुझे बेहद अफसोस हुआ, मुझे लगा मेरा परिवार बिखर गया। आज जब रूस और दूसरे रिपब्लिक के खराब हालात सुनती हूं तो पुराने अच्छे दिन आंखों के सामने आ जाते हैं। इसके बाद मैंने भारत-रूस संबंध को लेकर आना की राय जाननी चाही तो उन्होंने यह कहते हुए साफ इंकार कर दिया कि-यह ‘राजनीतिक सवाल’ है। फिर काशीनाथ ने उन्हें समझाया तो वह बोली ‘रिलेशन’ तो अच्छे हैं। आज भी किसी रशियन को आप अपना परिचय देंगे तो वह दूसरे मुल्क वालों की बनिस्बत आपसे ज्यादा गर्मजोशी से मिलेगा। क्योंकि हिंदी-रूसी भाई-भाई का नारा लोग भूले नहीं हैं। यह आज भी लोगों के जहन मेें है।

आना से मैंने पूछा यहां और वहां के पानी में कोई फर्क लगा क्या? वह बोली-यहां का पानी तो मुझे भा गया। यही वजह है कि इस उम्र मेे भी मैं चुस्त दुरूस्त हूं। इसके बाद जब वह हंसने लगी तो मैंने पूछ ही लिया-वैसे उम्र क्या है आपकी? वह बोली-रशिया में हम मानते हैं कि किसी को अपनी उम्र नहीं बतानी चाहिए, इससे उम्र कम होती है।
मैंने पूछ दिया-क्या कम्युनिस्ट रशिया में भी ऐसी दकियानूसी थी? वह शायद ताड़ गई, फिर बोली 40 के दशक में मेरा जन्म हुआ। चलते-चलते मैंने आना से जानना चाहा कि क्या भारत में कभी रूस की याद नहीं आती? वह भावुक हो गई, बोली वहां तो ज्यादा अब संबंध नहीं रही। फिर अब तो यही मेरा घर है, अपना घर छोडक़र मैं कहां जाऊंगी...? कमश:...

अपने ‘संपत’ को दही-बड़ा बेचने की नौबत नहीं आएगी
अब चलते-चलते बात एक खालिस हिन्दुस्तानी की। यह शख़्स इस करदर अनूठा है कि भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना से लेकर आज करीब 46 साल बाद भी वह भिलाई में रहने वाले सी मूल के लोगों के लिए अनिवार्य तत्व हैं। आप किसी भी रशियन से अगर मिलें और बात करना चाहें तो संभव है उसके मुंह से निकले ‘नो विष्णु, नो टॉक’। रूसी भाषा के महारथी इस शख़्स का नाम है विष्णु प्रभाकर तोपखानेवाले। दरअसल विष्णु है ही ऐसी शख़्िसयत कि उनके बिना कई मामलों में ‘पत्ता भी नहीं हिलता’।

विष्णु का किस्सा भी बड़ा रोचक हैं। 1957 से 1990 तक बीएसपी में सेवा देने वाले विष्णु को आप भिलाई की जीवंत इतिहास भी मान सकते हैं। भिलाई में कब क्या हुआ था, आप उनसे पूछ लीजिए, सारा घटनाक्रम वह ‘साइड स्टोरी’ के साथ रोचक ढंग से आपको बता देंगे। खैर, मैंने विष्णु से उनके भिलाई आगमन और रूसी भाषा से परिचय के बरे में जब पूछा तो वह बोले मैं बिलासपुर कोनी में पढ़ रहा था, तभी बीएसपी के पहले जनरल मैनेजर एस एन मेहता ने वहां आकर हमारे पूरे बैच को वार्षिक परीक्षा के बाद कारखाने मेें नौकरी का आमंत्रण दिया। बस, फिर क्या था, 6 फरवरी 1956 को मैं थैले में एक जोड़ा कपड़ा और प्रिसिंपल की चि_ïी लेकर भिलाई आ गया। यहां तो उस वक्त चारों तरफ, रशियन ही रशियन दिखते थे। मुझे बचपन से लोगों की नकल उतारने की आदत थी, लिहाजा मैं दोस्तों के बीच रशियनों के हाव भाव बताता था। फिर कोक-ओवन में उस वक्त के रशियन विशेषज्ञ श्री खखलोवा की पत्नी का सानिध्य मुझे मिला। वह मुझे पुत्रवत स्नेह देती है। उनके साथ रहकर मैं बड़ी आसानी से रशियन सीखने लगा। लेकिन बाहर परिस्थितियां विपरीत थी। दोस्त और सहकर्मी मुझे हतोत्साहित करते थे कि रशियन सीखने में कोई फायदा नहीं होगा। वैसे एक और मजे की बात बताउं उन दिनों देवानंद की ‘जाल’ फिल्म मैंने देखी थी उसमें एक दुभाषिया ‘संपत’ की किरदार जारी वॉकर ने निभाया था। मैं इस कदर से बड़ा प्रभावित था क्योंकि फिल्म में उसका कोई काम नहीं रूकता था और उसके जलवे भी थे। लेकिन अंत में ‘संपत’ को अपनी बेवकूफी की वजह से दही बड़े बेचने पड़े थे। इसलिए मैंने हमेशा इस बात को दिल में बिठाकर रखा था कि मैं संपतगिरी (विष्णु का यह तकिया कलाम है) तो करूंगा लेकिन उस हद तक कि मुझे दही बड़े न बेचना पड़े। बहरहाल ईश्वर का वरदान था कि मैं रूसी भाषा में प्रवीण हो गया। रूसी भाषा के कारण ही भिलाई में सेवा देने आए एन वी गोल्डिन और दिमशित्स सरीखे कई लोगों से परिचय हुआ जो बाद में रूस जाकर इस्पात मंत्री और प्रधानमंत्री जैसे पदों पर बैठे। भिलाई मेंं जब हिन्दुस्तानी अफसरों को भी रशियन सीखना अनिवार्य किया गया तो बीटीआई में मैंने रशियन की क्लास ली । उस दौर के मेरे पढï़ाए हुए छात्रों में आज अधिशासी निदेशक एस बी सिंह सहित कई अधिकारी हैं । फिर मैं कल्याण कालेज में भी रूसी भाषा की कक्षाएं लगता था। मैंने विष्णु से पूछा- इतना सब कुछ करने का आपको नतीजा क्या मिला ? वह बोले -मैंने कभी परिणाम के लिए काम नही किया । हां, रूसी भाषा की बदौलत जिन अच्छे लोगों सें परिचय हुआ वही मेरा सौभाग्य है। विष्णु ने बताया कि 1967, 70 और 72 में उन्होंने रूस के साथ दुनिया के विभिन्न देशों का दौरा किया । इन तीनों दौरे का किस्सा भी रोचक हैं। पहली बार भारत-सोवियत सांस्कृतिक समूह ने मेरा नाम प्रस्तावित किया था, लिहाजा सोवियत संघ सरकार के राजकीय अतिथि के रूप मेें मैं वहा गया। दूसरी बार रूसी भाषा में रिफ्रेशर कोर्स के लिए मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी से मुझे स्कालरशिप मिली। वहां मैं अकेला था तो स्कालरशिप के पैसे जमा करता गया और वहीं से ‘वल्र्ड टूर’ पर स्वीडन, डेनमार्क, अफगानिस्तान, चेकस्लोवाकिया, जर्मनी और पोलैंड घूम आया। फिर रूसी भाषा के शिक्षकों का अंतर्राष्टï्रीय सेमिनार मास्को में हुआ तो तीसरी बार मैं माास्को गया। विष्णु बताने लगे- मैंने वह दौर भी देखा है जब सेक्टर-6 और सेक्टर-7 का रशियन काम्पलेक्स आबाद था और टाउनशिप में अलग-अलग सेक्टरों में भी रशियन रहा करते थे। जब भी किसी रशियन प्रतिनिधिमंडल को भिलाई से बाहर कहीं जाना होता था उनके साथ के लिए पहली प्राथमिकता में था। वर्ष 1990 में कार्मिक विभाग में सहायक प्रबंधक के पद पर सेवानिवृत्त होने तक मैंने रूसी समुदाय को अपनी सेवा दी। लेकिन, उसके बाद जो रशियन आये तो उन्होंने मुझे ही प्राथमिकता दी। इसलिए आज भी मैं दुभाषिए के रूप में अस्थाई तौर पर बीएसपी में सेवा दे रहा हूं। पद्ïमनाभपुर निवासी विष्णु से मैंने पूछा कि इतने लंबे सेवाकाल में कोई अफसोस...? वह बोले-अफसोस तो कुछ नहीं लेकिन, दुख इस बात का है कि बीए, एलएलबी और रशियन भाषा का ज्ञाता होने के बाद भी बीएसपी ने कभी मुझे दुभाषिए के तौर पर पहचान नहीं दी। मेरे सामने के डाक बांटने वालों को भी नेहरू अवार्ड दे दिया गया लेकिन मुझे रशियन अभिजात्य वर्ग में रहने के कारण अपने लोगों से सिर्फ ईष्र्या मिली। यह बताते-बताते विष्णु कुछ खामोश से हो गए फिर बोले-1994 में पत्नी प्रतिभा के असामयिक अवसान के बाद परिवार में मैं और मेरी बेटी अंजली थे। तीन साल पहले अंजली की शादी हुई और अ मैं अकेला हूं। लेकिन मैं बीती बातों का अफसोस ज्यादा नहीं करता। इसलिए मजे में रहता हूं। आज भी हर सुबह ठीक 8.30 बजे बीएसपी की गाड़ी घर आ जाती है। फिर मैं रशियन काम्प्लेक्स से सारे रशियनों को लेकर प्लांट चला जाता हूं। उसके बाद शाम को घर। बस यही दिनचर्या है मेरी। विष्णु से जब मैंने कुछ और पूछना चाहा तो वह बोले-अनुभव तो मेरे पास ढेर सारे हैं अब मैं उसे किताब की शक्ल देने जा रहा हूं। मैंने चुटकी ली-क्या किताब का नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ रखेंगे। वह हंसने लगे। बोले आज मैं पीछे मुडक़र देखता हूं तो सही में लगता है कि वह सब सपना था क्या? इतनी चुनौतियो से निपटने के बाद मैं सोचता हूं कि सही में इस विष्णु ने हजार रूपों में जिंदगी जी हैं। हमारी बातें तो और भी चल सकती थी लेकिन, उसी वक्त विष्णु के ‘मुरीद’ सारे रशियन वहां आ गए। इन सभी लोगों का प्लांट जाने का वक्त हो रहा था। इसलिए विष्णु भी इनके साथ कार में बैठे और आगे बढ़ लिए। मैं वापस लौटते समय सोच रहा था कि वाकई में हमारा संपत कभी दही-बड़े बेच नहीं सकता, उनका जलवा ताउम्र रहेगा।

बाक्स में...
जलवा : दुभाषिये के तौर पर विष्णु तोपखाने वाले का हमेशा महत्व रहा है। पहली तस्वीर 1958 में दुर्ग रेलवे स्टेशन की है। तस्वीर में ढेर सारे रशियनों के बीच खड़ा हिन्दुस्तानी शख्स (बायें से दूसरा) विष्णु है। विष्णु के ठीक बाजू खड़े सज्जन (बेल्ट पहने) उस वक्त के चीफ इंजीनियर एन.वी. गोल्डिन हैं। श्री गोल्डिन के पीछे खड़ी महिला श्रीमती खखलोवा है। इनमें ही विष्णु ने रूसी भाषा सीखी। गौरतलब है कि श्री गोल्डिन रूस जाने के बाद कालांतर में सोवियत संघ के भारी उद्योग व इस्पात मंत्री हुए। श्री गोल्डिन 1975 व 1980 मेें जब भिलाई आए तो उन्होंने विष्णु से मुलाकात की तथा इसी फोटो के पीछे दोनों बार अपने आटोग्राफ दिए। दूसरी तस्वीर में 60 के दशक में कल्याण कालेज में संचालित रूसी भाषा की कक्षा में पढ़ाते नजर आ रहे शख्स विष्णु प्रभाकर हैं।
कनियत्स दुसविदानिया यानि समाप्त... अलविदा...!

बात छिड़़ी भिलाई की, और मिल गए दो दिल
बचपन की यादों को तलाशने भिलाई पहुुंचे युक्रेनी युगल
मोहम्मद जाकीर हुसैन

पूरी दुनिया में इस्पात कारखाने के लिए मशहूर भिलाई शहर क्या दो दिलों को भी करीब ला सकता है? यकीन न हो तो ओलेस्की और यूली की बातों पर गौर करें। इनकी बातों में रूमानियत की खुशबू के साथ बचपन की कई यादें भी है। यही वजह है कि कि करीब 25 बरस बाद भिलाई आए युक्रेन के यह युगल अपनी बचपन की यादों को जीवंत कर आज रोमांचित हो उठे। जरा दोनों की कैफियत सुने, यह तो सिर्फ ‘भिलाई’ का जादू है कि हम दोनों ने अब जिंदगी साथ गुजारने का फैसला कर लिया।

कभी सोवियत संघ का हिस्सा रहे और अब एक स्वतंत्र देश युक्रेन से भिलाई पहुंचे शेवचेंको ओलेस्की और फिनोगेंतोवा यूली के लिए यहां उनके सपनों की दुनिया थी, लिहाजा आज यहां पहुंच कर दोनों अपनी इस दुनिया में जी भर कर घूमे। यूली कहती है-हमने अपने बचपन के दो बरस इस शहर में बिताए हैं, इसलिए पच्चीस बरस बाद यहां पर एक सपने के होने जैसे लगा। ओलेस्की भी इन बातों पर सहमति जताते हुए कहते है- यहां आने पर ऐसा लगा जैसा हमारा बचपन लौट आया।

यूली बताती है, मेरे पिता यूरी पेत्रेंको यहां बीएसपी के प्लेट मिल और ओलेस्की के पिता वसीली शेफचेको स्टील मेल्टिंग शॉप-2 निर्माण के दौरान सोवियत इंजीनियर के रूप में सेवारत थे। 1976 से 1978 तक हम लोग दूसरे अन्य रशियन परिवारों के साथ भिलाई होटल में रहते थे। लेकिन, यहां से अपने मुल्क लौटने के बाद सब कुछ पीछे छुट गया था। फिर अचानक एक दिन सारी यादें जीवंत हो उठी।

हंसते हुए ओलेस्की बताते है- इस साल मई महीने की बात है एक दूसरे से अंजान हम लोग मरियोपुल (पूर्व नाम ज्दानो) शहर के एक कैफे में दोस्तों के साथ बैठे थे। अचानक दुनिया के अलग-अलग शहरों के बारे में कुछ बातेें निकली और यकीन मानिए हम दोनों के मुंह से ‘भिलाई’ का नाम निकला। हैरत भरी नजरों से हमने एक-दूसरे को देखते हुए सवाल किया कि तुम भिलाई को कैसे जानते हो? बस फिर क्या था बातें निकली और भिलाई, दुर्ग, सिविक सेंटर, प्लेटमिल, खरखरा, भिलाई होटल, मैत्रीबाग, भिलाई क्लब.... न जाने और क्या-क्या। कैफे तो अपने वक्त पर बंद हो गया लेकिन, पच्चीस साल पुरानी बचपन की बातें हम दोनों को सारी रात रोमांचित करती रही। अगली सुबह यूली मुझे अपने घर ले गई और भिलाई में बचपन की कई तस्वीरें दिखाई। इसके बाद भिलाई की बातें रोज होने लगी और हमारी दोस्ती प्यार में बदल गयी। अब हम लोगों ने घर बसाने का फैसला कर लिया था तभी हमने यह भी तय कर लिया था कि शादी से पहले एक बार भिलाई-दुर्ग जरूर जाएंगे। लिए आज हम लोग पर्यटक वीजा पर यहां आए है। यूली बताती है- भिलाई होटल के कमरा नं. 20 में हम लोग रहते है। हमारे और भी रशियन दोस्त थे सारा दिन हम लोग धमा-चौकड़ी मचाते थे। अक्सर मम्मी-पापा के साथ हम लोग मैत्रीबाग, बोरिया बाजार, चित्रमंदिर जैसे जगहों पर जाते थे। पच्चीस साल बाद भिलाई में आकर कैसा महसूस हुआ? यह पूछने पर युली थोड़ा सा भावुक होते हुए बोली मैं तो कमरा नं. 20 को काफी देर निहारती रही फिर हम दोनों खरखरा डेम चले गये। क्योंकि यहां अक्सर हम लोग पिकनिक के लिए आते थे। आज हम लोग यहां खूब तैरे, खूब मछलियां पकड़ी लेकिन, फिर उन्हें पानी में छोड़ दिया इसके बाद हम लोगों ने भिलाई आकर अपनी यादों के मुताबिक भिलाई के प्रमुख स्थलों को अपने विडियो कैमरे में कैद किया। ओलेस्की बताते है- हम लोग प्लांट के अंदर भी घुमना चाहते थे लेकिन इसकी प्रवेश प्रक्रिया काफी जटिल होने के कारण सिर्फ मेन गेट को निहार कर हम वापस लौट गए। आज भिलाई कैसा लगा? यह पूछने पर दोनों ने समवेत स्वर में कहा- पहले काफी खुला-खुला दिखाता था अब तो चारों तरफ हरियाली ही हरियाली हैं। यूली बताती है हम यहां से लौट कर अपने-अपने माता-पिता को आज के भिलाई की तस्वीर दिखाएंगे क्योंकि इसका उन्हें बेसब्री से इंतजार है। ओलेस्की बताते है- दोनों के पिता सेवानिवृत्त का जीवन व्यतीत कर रहे है और पेंशन पाते है और वहीं मेरी मम्मी स्वीतलाना और इनकी मम्मी नद्ïयेज्दा आज भी अक्सर भिलाई की बातें करती हैं। यूली बीच में टोकते हुए बोली- आप शायद यकीन न करें लेकिन, हम दिन के लिए भिलाई आए है और हम दोनों के माता-पिता थोड़ी-थोड़ी देर में हमारे मोबाईल फोन पर रिंग कर आज के भिलाई की बातें पूछ रहे है। युली यह बता ही रही थी कि उनका सेल फोन बज उठा। मम्मी से बात कर फिर अपने बचपन की फोटो दिखाते हुए युली बताने लगी यह सारे-सारे के बच्चे आज भी एक ही शहर मरियुपोल में है और हम लोगों ने सबको खोज निकाला है वह बताने लगी इनमें नजर आ रही आन्या, मार्तिनोवा, तुचियाना-क्रिवाको बलीस्का, ओलेग बेलाकोन और आन्या रस्तोव्यस्का अब हमारे पक्के दोस्त है। इस फोटो में हिन्दुस्तानी नृत्य के लिबास में नजर आ रही युली हंसते हुए बोली- मुझे इंडियन कल्चर अच्छा लगता है। अब एक बड़े वाणिज्यिक संस्थान में बतौर प्रतिनिधि कार्यरत यूली और युक्रेन की ही एक फैक्स कंपनी में प्रतिनिधि ओलिस्की ने बताया कि वे भिलाई से अपने बचपन की खुशनुमा यादों को लेकर लौट रहे है। फिर अगली बार भिलाई कब आना होगा? यह पूछने पर दोनों हंसते हुए बोले- अभी तो हम युक्रेन जाकर शादी करेंगे फिर आने वाले कुछ सालों बाद हम जरूर आएंगे, अपने बच्चों के साथ। इसके बाद दोनों युगल सिविक सेंटर की ओर तफरीह के लिए निकल पड़े।

बाजपेयी और मुशर्रफ हमें हमारें ‘घर’ पहुंचा दें
भिलाई। बात 1983 की है, कश्मीर की लालडेल कालोनी (श्रीनगर) में एक मकान की नींव रखी गई। भिलाई इस्पात संयंत्र से सेवानिवïïïृत्त हुए अधिकारी जे.एन. मल्ला की ख्वाहिश थी इस मकान को घर बनाने की, आबाद रखने की। इसलिए भूमि पूजन हुआ, दीवारें खड़ी हुई और तमाम तैयारियों के बाद मल्ला परिवार का ‘सपनों का महल’ बन गया। छह बरस बाद मल्ला परिवार भिलाई को अलविदा कहने की तैयारी में था। कि 1989 में यह घर आतंकवादियों के राकेट लांचर का निशाना बन गया और मल्ला परिवार चाह कर भी अपने घर ना जा पाया। श्री मल्ला कहते है, वह राकेट लांचर सिर्फ हमारे मकान पर ही नहीं गिरा बल्कि उन सपनों पर भी गिरा जो हमने बरसों से संजोए थे। कश्मीर में अपनें कई परिजनों को खोने वाले जे.एन. मल्ला को आज भी अपना पैतृक घर और गलियां भुलती नहीं। छत्तीसगढ़ कश्मीरी पंडित समिति के अध्यक्ष श्री मल्ला कहते है हम इस उम्मीद पर जी रहे हैं कि कश्मीरी पंडित एक ना एक दिन अपने घर जरूर लौटेंगे।

आगामी दिनों में पाकिस्तान राष्टष्टï्र्रपति जनरल परवेज मुशर्र्रफ की भारत यात्रा और भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के साथ होने वाली भारत-पाक शिखर वार्ता को लेकर मल्ला परिवार उत्सुक है। श्री मल्ला की पत्नी श्रीमती एम.एम. मल्ला कहती हैं-वार्ता सिर्फ बातचीत के लिए नहीं होनी चाहिए बल्कि कुछ हल भी निकलना चाहिए। श्रीमती मल्ला बीएसपी शिक्षा विभाग की सेवानिवृत्त प्राचार्य है। वह कहती हैं, हमने जो खोया है वह कोई लौटा तो नहीं सकता फिर भी हमारे प्रधानमंत्री ने जो पहल की है वह स्वागत योग्य है। 74 वर्षीय श्री मल्ला अपनी स्मृति के आधार पर कहते है कश्मीर आज जिस बदहाली में है उसकी शुरूआत 1940 में हुई थ्ीा जब उस वक्त ‘क्विट कश्मीर मूवमेंट’ के अंतर्गत वहां के जमींदारों से जमीन हड़पना शुरू हुई। इसका सबसे ज्यादा नुकसान वहां के कश्मीरी पंडितों को हुआ। बाद में जब बख्शी गुलाम मोहम्मद कश्मीर के सत्ता प्रमुख हुए तो कश्मीरी पंडितों को नौकरियों व अन्य सेवाओं में अवसर कम मिलने लगे और उपेक्षा से त्रस्त होकर हमें देश के विभिन्न भागों में पहुंचकर रोजगार के अवसर तलाशने पड़े। इसी के चलते मैं भी 1957 में भिलाई पहुंचा और अब पता नहं कब अपने कश्मीर जा पाउंगा। यहां दुर्ग आदर्श नगर स्थित अपने घर ‘पम्मोश’ (कमल) में रह रहे मल्ला दंपत्ति की आगामी शिखर वार्ता को लेकर अपनी धारणा है। श्री मल्ला कहते है दोनों देशों में होने वाली उच्च स्तरीय बातचीत से कश्मीर मसले को शांतिपूर्वक हल निकलना चाहिए। वह कहते हैं वार्ता से पूर्व भारत में पाकिस्तान के हाईकमिश्नर ने एक बयान दिया है लाहौर और शिमला समझौते के साथ संयुक्त राष्टï्र के मसौदे को भी पाकिस्तान मानता है जिसमें जनमत संग्रह की बात थी। आज जनमत संग्रह अव्यवहारिक है फिर भी उच्चायुक्त यह मुद्दा उठा रहे हैं इससे ही पाकिस्तान की नीयत पता लग जाती है। ऐसे में वाता का कोई औचित्य नहीं रहेगा। श्री मल्ला कहते है, कश्मीर आज जिस स्थिति में है उसके लिए जिम्मेदार हैं सभी जानते है, कभी इच्छा होती है कि भारत को बलपूर्वक पाक अधिकृत कश्मीर वापस ले लेना चाहिए। लेकिन, ऐसा हमारे हिन्दुस्तानी खून में नहीं है। इसलिए बेहतर यही होगा कि हम वास्तविकता को स्वीकार करें और संयुक्त राष्टï्र संघ की मध्यस्थता से 1947 में बनाई गई वास्तविक नियंत्रण रेखा को भारत और पाकिस्तान के बीच की अंतर्राष्टï्रीय सीमा रेखाा मानें। श्री मल्ला कहते हैं कश्मीर के साथ भारत सरकार को भी देश के अन्य राज्यों की तरह समान व्यवहार करना चाहिए और अगर इस वार्ता की आड़ में पाकिस्तान की मंशा फिर ‘जेहाद’ के नारे को बुलंद करने की है तो भारत को अपनी संप्रभुता की खातिर पाकिस्तान को कड़ा सबक सिखाने तैयार रहना चाहिए।
श्रीमती मल्ला कहती हैं जिस कश्मीर में हमारा बचपन गुजरा, हम बड़े हुए वह हमारे दिल में बसा है कई बार ख्वाईश होती है कि कश्मीर जाएं और उन्हीं वादियों में घूमें लेकिन, फिर हकीकत तो हकीकत है। आज हम अपने घर नहीं जा सकती इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकी है। वह कहती हैं शिखर वार्ता अगर हमें हमारे घर पहुंचा दे तो जनरल मुशर्रफ और अटल बिहारी बाजपेयी के हम जिंदगी भर ऋणी रहेंगे। और मल्ला दंपत्ति की आंख छलक गई। कमश: ...।

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