Tuesday, April 17, 2012

सिली पचराही के अवशेषों में दिख रहा है प्रदेश का समृद्ध इतिहास

छत्तीसगढ़ शासन के संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग की ओर से यह पहला मौका था जब किसी पुरातात्विक महत्व के स्थल पर देश के प्रमुख विषय विशेषज्ञों को बुलाकर विचार मंथन किया गया। 21 से 23 फरवरी तक ‘छत्तीसगढ़ का पुरातत्व,नवीन उत्खनन एवं अनुसंधान’ विषय पर तीन दिन की राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी के अंतर्गत कवर्धा से 47 किमी दूर स्थित सिली पचराही के महत्व पर तो चर्चा हुई ही, देश भर से आए 50 से ज्यादा पुरातत्वविदों ने अन्य विषयों पर भी अपने शोधपत्र पढ़े। इन पर सहमति-असहमति का दौर भी चला। कुल मिला कर इस संगोष्‍ठी को इस आधार पर मील का पत्थर माना जाना चाहिए कि कम से कम देश भर के पुरातत्वविदों का ध्यान सिली पचराही ने अपनी ओर खींचा तो है।

कई राज़ खुलेंगे पचराही से
2007 से यहां खनन कार्य में लगे प्रभारी निदेशक सोबरन सिंह यादव व उनके सहायक अतुल प्रधान ने संगोष्‍ठी में जो जानकारी दी उसके मुताबिक यहां मुख्यत: प्रागैतिहासिक काल, पूर्व गुप्त काल (पांडुवंशीय-सोमवंशीय), कल्चुरी, फणी नागवंशीय और इस्लामिक काल की निशानियां मिल रही हैं। जिसमें अब तक करोड़ों साल पुराना जीवाश्म, सोना-चांदी और अन्य धातुओं के सिक्के, मंदिर व प्रतिमाएं तथा उनके भग्नावशेष सहित कई पुरावशेष निकल चुके हैं। अभी तक जो संरचनाएं मिली हैं उनके आधार पर यहां का नगर नियोजन का अध्ययन किया जा रहा है। यहां से अन्य शहरों की ओर जाने वाले व्यापार मार्गों की खोजबीन भी जारी है। पिछले अनेक दौर में व्यापार, कला, धर्म और दर्शन के प्रसार में छत्तीसगढ़ के योगदान की भी जानकारी मिलेगी।

करीब 15 करोड़ साल पुराना जीवाश्म मिला
पचराही से उत्खनन के दौरान प्रागैतिहासिक काल का समुद्री जीवाश्म मिला है जो इस अध्ययन के लिए काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है हालांकि इसका कुछ हिस्सा टूटा हुआ है। श्री यादव व श्री प्रधान के मुताबिक प्रथम दृष्ट्या यह जीवाश्म अन्यत्र से आया हुआ लगता है। इसे 10 से 15 करोड़ वर्ष पुराना माना जा रहा है। फिलहाल इसके वृहद अध्यन से यहां की और भी जानकारी हासिल होगी। पुरातत्वविदों के अनुसार समूचे मध्यभारत में यह अपनी तरह पहला जीवाश्म मिला है।

राजगिरि से मेल खाती ईंटों की संरचना
पूर्व गुप्त काल की निशानियों में यहां के प्रक्षेत्र-1 में बड़ी संख्या में ईंटों की दीवारें मिली हैं। यहां की ईंटों की संरचना बिहार के राजगिरि मनियार मठ में मिली पूर्व गुप्त काल की संरचना से मेल खाती है। यहां से इस काल की पार्वती, कार्तिकेय व अन्य की प्रतिमाएं मिली हैं। यहां से पूर्व में मिली इस काल की बहुत सी प्रतिमाएं व और मंदिर के हिस्से अब खैरागढ़ विश्वविद्यालय के संग्रहालय में रखे हुए हैं।

कल्चुरी काल का समृद्ध इतिहास समेटे है यह भू-भाग
संगोष्‍ठी में बताया गया कि यह समूचा क्षेत्र कल्चुरी काल की बेशकीमती निशानियों को समेटे हुए है। यहां से इस काल के मंदिर, मूर्तियां, सिक्के और उत्कीर्ण लेख सहित बहुत कुछ मिला है। यहां एक हिस्से में सात पात्र मिले हैं जिनमें पशुओं की हड्डियां भरी हुई हैं। मंदिरों की संरचनाएं भी यहां से मिली है। सोने के सिक्कों के अलावा 20 से ज्यादा तांबे के सिक्के भी यहां से मिले हैं।

सिक्कों में बोलता इतिहास
यहां फणीनागवंशी काल के चांदी के सिक्के और दूसरे उत्कीर्ण लेख भी मिले हैं जिसमें 7 चांदी के सिक्के श्रीधर देव के काल के और एक चांदी का सिक्का जयत्रपाल के दौर का है। हालांकि इतिहासकार डा. चंद्रशेखर गुप्त के मुताबिक यह जयत्रपाल नहीं बल्कि जगपाल है। चांदी के एक सिक्के परं फणिनागवंश के यशोराज देव का नाम टंकित है, जो समूचे छत्तीसगढ़ में पहली बार मिला है। इस काल की उमा-महेश्वर की भी अनूठी प्रतिमा मिली है।

खिलजी शासनकाल की हिंदी
यहां से मुस्लिम शासनकाल के भी सिक्के मिले हैं। श्री यादव व श्री प्रधान के मुताबिक अब तक 5 सिक्के मिल चुके हैं। इनमें अलाउद्दीन खिलजी के तांबे के दो ऐसे सिक्के हैं जिनकी एक तरफ अलाउद्दीन खिलजी को सुल्तान-उल-आजम और अलाउल दुनिया वल दीन अरबी में तथा दूसरी तरफ नागरी (हिंदी) में श्री सुलतान अलाउद्दीन उत्कीर्ण है जिसमें हिजरी सन् 708 दर्ज है। इस हिसाब से ये सिक्के 1308-09 ईस्वी सन के हैं। वहीं ब्रिटिश काल का एक चांदी का सिक्का भी यहां से मिला है।

कई प्रमुख पुरातत्वविदों की भागीदारी
संगोष्ठी में देश के कई प्रसिद्ध पुरातत्वविदों ने भागीदारी की। छत्तीसगढ़ शासन में रहे और नई दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला संग्रहालय के निदेशक पद से सेवानिवृत्त के. के. चक्रवर्ती और छत्तीसगढ़ में रह चुके सेवानिवृत्त पुराविद् जीएल बादाम, हार्वर्ड विश्वविद्यालय कैंब्रिज के सेवानिवृत्त प्रोफेसर प्रमोद चंद्र, नागपुर से आए डा. चंद्रशेखर गुप्त, जगदलपुर के डा. के.के.झा व इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डा. एएल श्रीवास्तव सहित ढेरों ऐसे नाम थे जिन्होंने उत्खनन के प्रभारी निदेशक एसएस यादव व उनके सहायक अतुल प्रधान से सिली पचराही के संबंध में जानकारी ली और उस पर अपने विचार रखे।

सालों से लुट रहा है खजाना
सिली पचराही को कभी कंकालीन टीला के नाम से जाना जाता है। यहां पुरावशेषों की लूट सालों से चल रही है। खुद मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने ही इस बात की तस्दीक की। डा. सिंह ने बताया कि कवर्धा में घर होने की वजह से वह जानने-समझने की उम्र से यहां आ रहे हैं। उस दौर में भी बुजुर्ग बताते थे कि यहां सालों से लोग ट्रकों, हाथियों और बैलगाडिय़ों में मिट्टी ढो-ढो कर ले जा रहे हैं। डा. सिंह की तरह आस-पास के गांव के लोगों ने भी बताया कि यहां सोने व दूसरी धातु के सिक्के, बेशकीमती मूर्तियां और दूसरे अवशेष सालों से लोग ले जा रहे हैं। अब तक करोड़ों रुपयों की मूर्तियां चोरी जा चुकी हैं और जो बची हैं वे खैरागढ़, कवर्धा व आस-पास के गांवों सहित दूर-दराज के मंदिरों में पूजी जा रही हैं अथवा संग्रहालय में हैं।

उमा-महेश्वर की सबसे विचित्र प्रतिमा
संगोष्‍ठी में पचराही में उत्खनन से निकली उमा-महेश्वर की प्रतिमा के अनूठे पन भी चर्चा हुई। इस प्रतिमा की तस्वीरें देखकर पुरातत्वविद दंग रह गए। अपने शोधपत्र में पुरातत्वविद डा. मंगलानंद झा ने इस बात का खुलासा किया कि शिव-पार्वती की अब तक की मिली प्रतिमा में यह एकमात्र है जिसमें शिव के साथ पार्वती की भी तीसरी आंख दर्शाई है। इसी तरह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डा. एएल श्रीवास्तव के मुताबिक यहां उमा-महेश्वर की प्रतिमाओं में बहुत सी विलक्षण विशेषताएं हैं। यहां उमा को चतुर्भुजी यानि 4 हाथों वाली बताया गया है, जबकि प्रतिमा शास्त्र में इनका प्रावधान नहीं है। डा. श्रीवास्तव के मुताबिक उमा का त्रिनेत्र होना और चतुर्भुजी होना संभवत: उस दौर में स्त्री-पुरूष के समान दर्जे का प्रतीक है इसलिए शिल्पकारों ने उमा को शिव के समकक्ष बनाया है।

पचराही के अलावा उजागर हुए कई राज़
संगोष्‍ठी में सिर्फ पचराही पर चर्चा नहीं हुई बल्कि इससे हट कर अन्य विषयों पर भी शोधपत्र पढ़े गए। विभाग के उपनिदेशक जेआर भगत ने दुर्ग जिले के पाटन के तरीघाट में उत्खनन पर अपनी बात रखी। बस्तर के भैरमगढ़ में तहसीलदार डा. रामविजय शर्मा ने अपने शोध के आधार पर यह बताया कि बीजापुर जिले के मिरतुर में ब्रह्मा की प्रतिमा स्थापित है। डा. शर्मा का कहना है कि पुष्कर (राजस्थान) में प्रचारित ब्रह्मा के एकमात्र मंदिर की अवधारणा को मिरतुर की प्रतिमा तोड़ती नजर आती है। जरूरत शासन-प्रशासन व जनसहयोग से इसे प्रचारित करने की है। इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय के संग्रहालय अध्यक्ष आशुतोष चौरे ने बिलासपुर से 30 किमी दूर स्थित सरगांव के धूमनाथ मंदिर की प्रतिमाओं का उल्लेख करते हुए बताया कि पुरातत्विक महत्व का यह मंदिर एक परिवार के निजी कब्जे में हैं। इस दौरान वरिष्ठï पुरातत्वविद डा. विष्णुसिंह ठाकुर व अन्य लोगों ने इस बात की पुष्टिï करते हुए छत्तीसगढ़ के कई और पुरातात्विक महत्व के स्थलों का उल्लेख किया जो कि अब निजी लोगों के कब्जे में हैं। संगोष्‍ठी में उत्तरप्रदेश और हिमाचल प्रदेश के पुरातात्विक स्थलों पर भी शोधपत्र पढ़े गए।

नाट्य शाला पर असहमति
अंबिकापुर के इतिहासवेत्ता सचिन मंदिलवार ने सरगुजा के ऐतिहासिक व पुराततात्विक महत्व पर अपनी बात रखते हुए रामगढ़ की पहाड़ी में विश्व की प्राचीनतम नाट्यशाला का उल्लेख किया तो पैनल के जज डा. चंद्रशेखर गुप्त ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि उन्होंने स्वयं वह स्थल देखा है। इसे नाट्यशाला कहना उचित नहीं है क्योंकि यहां एक आम आदमी के खड़े होने के बराबर भी ऊंचाई नहीं है। ऐसे में कलाकार अपनी अलग-अलग भाव-भंगिमाएं कैसे दिखाएगा। उन्होंने कहा कि इतनी ऊंचाई पर नाट्य का मंचन संभव नहीं है। हो सकता है कि यह बाल नाट्यशाला रही होगी।

तथ्यों पर आस्था हावी
पचराही में उत्खनन से निकलने वाली प्रतिमाओं की ऐतिहासिकता और प्रमाणिकता देखना पुरातत्व विभाग का काम है। लेकिन जब इन पर आस्था हावी हो जाए तो पुरातत्व विभाग के सामने मौन रहने के अलावा कोई चारा नहीं है। मसलन,यहां खनन स्थल के एक कोने में बहुत सी खंडित प्रतिमाएं पड़ी हुई हैं। ग्रामीण यहां जब भी आते हैं, प्रतिमाओं को सिंदूर टीका लगाकर, नारियल तोडक़र और अगरबत्ती लगा पूजा कर चले जाते हैं। मुख्यमंत्री के आगमन से पहले इकट्ठा हुए बहुत से ग्रामीणों ने इन खंडित प्रतिमाओं की पूजा की। जिज्ञासावश पूछने पर एक ग्रामीण ने बताया कि बड़ी वाली प्रतिमा कंकालीन देवी की है। इसके बाद वहां पूजन के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा। यहां की प्रतिमाओं पर शोध कर चुके पुरातत्वविद डा. मंगलानंद झा ने इसके उपरांत बताया कि ग्रामीण जिस खंडित प्रतिमा को कंकालीन माता मानकर पूज रहे हैं वह दरअसल शिव की प्रतिमा का हिस्सा है। चूंकि ग्रामीण यहां बरसों से पूजा (जबकि खंडित प्रतिमा का पूजन शास्त्र सम्मत नहीं है)कर रहे हैं, इसलिए यहां इतिहास पर आस्था हावी हो चुकी है।

इधर आठवां सुर ....
‘छत्तीसगढ़ का पुरातत्व,नवीन उत्खनन एवं अनुसंधान’ विषय की संगोष्‍ठी में आठवां सुर भी सुनाई दिया। देश भर के पुराविदों के बीच बिंदू महाराज ने अपना शोधपत्र पढ़ा जिसमें पौराणिक आख्यानों के आधार पर उन्होंने राजिम कुंभ को प्रमाणित करने की कोशिश की। इसमें उन्होंने बताया कि देवर्षि नारद ने राजिम कुंभ पर्व पर महानदी के इस संगम पर स्नान किया था। उन्होंने यह भी बताया कि राजिम तेलिन मंदिर में जो शिलालेख है उसमें राजिम तेलिन से मेल खाते कोल्हू का अंकन है। साथ ही सूर्य-चंद्र के साथ एक मटका (कुंभ)भी उत्कीर्ण है। उनकी बातों को पुराविदों ने कितना महत्व दिया, यह अलग बात है। लेकिन ध्यान देने की बात यहां यह थी कि बहुत से लोग इन बिंदू महाराज के बारे में जानना चाह रहे थे। अंगूठों को भी नहीं बख्शती उंगलियों में ढेर सारी अंगूठियां और गले में किलो भर से ज्यादा वजन की कई मालाएं और काले लिबास से जो शख्सियत उभर रही थी उसके पीछे की कहानी कुछ और ही थी। शासन-प्रशासन से लेकर पुरातत्व व संस्कृति विभाग का हर जिम्मेदार इन बिंदू महाराज का चरण स्पर्श करने आतुर था। राज्य अतिथि का दर्जा प्राप्त बिंदू महाराज ने ‘छत्तीसगढ़’ को अपना जो 4 भरे-पूरे पेज का बायोडाटा दिया है उसके अनुसार वे उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के चायल तहसील के त्रिपाठी परिवार में जन्में और बीएएएमएस (आयुर्वेद), बीएएमएस (आल्टरनेटिव मेडिसिन सिस्टम), बीआईएएमएस (इंडो-एलौपैथ), एमडी (आल्टरनेटिव मेडिसिन), आयुर्वेद रत्न व आयुर्वेदाचार्य के डिग्रीधारी हैं। वे पुरातात्विक संग्राहक व संरक्षक हैं तथा उनका अखाड़ा हैदराबाद में हैं। बिंदू महाराज ने ‘छत्तीसगढ़’ को बताया कि वे पिछले 4 वर्षों से राजिम कुंभ आ रहे हैं और इस कुंभ की प्रमाणिकता शास्त्रों से है। बिंदू महाराज की संगोष्‍ठी में तीनों दिन सक्रिय भागादारी रही, यहां तक कि समापन समारोह में मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के साथ उन्हें विशेष अतिथि के रूप में ठीक बाजू में बैठाया गया।

पचराही के दिन फिरेंगे
वर्षों तक कंकालीन टील के नाम से जाने जाते रहे सिली पचराही के दिन फिरने लगे हैं। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की विशेष रूचि के चलते यहां विधिवत खनन शुरू हो पाया है। पहले दिन संगोष्ठïी के उद्घाटन अवसर पर पहुंचे संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने पचराही में विशाल संग्रहालय बनाने की घोषणा की तो आखिरी दिन पचराही पहुंचे मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने आश्वस्त किया कि संग्रहालय के लिए 70 लाख का बजट बना है। अगर इससे ज्यादा भी खर्च होता है तो उसे सरकार वहन करेगी। छत्तीसगढ़ से शामिल पुरातत्वविदों में चर्चा थी कि जिस तरह पचराही को अपना मानकर डा. रमन पहल कर रहे हैं वैसे ही राज्य के दूसरे हिस्सों में बिखरी पुरा-संपदा को सहेजने की पहल सरकार करे तो संभव है छत्तीसगढ़ का पुरातन इतिहास सामने आएगा।

वर्तमान में खुदाई का कार्य एरिया-1,4 और 5 में किया गया है। एरिया-1 से एक मकान की संरचना, कल्चुरी काल के राजाओं में नक्कड़ देव अंकित एक सोने का सिक्का,श्रीधर देव अंकित 7 सोने का सिक्का एक चांदी का सिक्का व प्रताप मल्ल देव अंकित सोने का दो सिक्का मिल चुका है। अब तक 100 से ज्यादा सिक्के निकल चुके हैं। इसके अलावा इस्लामिक इतिहास की गवाही देते अलाउद्दीन खिलजी के दौर का सिक्का भी यहां से निकला है। पचराही के नए साक्ष्य पहली बार 10 से ज्यादा सोने और चांदी के सिक्के यहां से मिल चुके हैं। नक्कड़ देव जहां कल्चुरी राजाओं में 16 वां वंशज था।

इस पर हालांकि बहस किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची लेकिन ज्यादातर पुरातत्वविदों का यह मानना था कि संभवत: यहां पचराही की संस्कृति में स्त्री-पुरूष का दर्जा समान रहा होगा इसलिए दोनों को एक सा दर्शाया गया है। वहीं यशोराज देव पंद्रहवां और धरणीधर देव तीसरा शासक था।

छत्तीसगढ़ के इतिहास की नई इबारत
संगोष्ठी में कई ऐसे स्थानीय पुरातत्वविद थे जो वर्षों से यहां ‘कंकालीन टीला’ देखने आते रहे हैं। इन पुरातत्वविदों की आम राय थी कि छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद जिस तरह इस पुरातन महत्व के क्षेत्र में शासन ने रूचि दिखाई है उससे छत्तीसगढ़ का इतिहास नए आयाम के साथ सामने आएगा। कवर्धा जिला मुख्यालय से 47 किमी दूर घने जंगल में पचराही का क्षेत्र इस कदर गुलजार होगा शायद किसी ने सोचा भी नहीं था। देश भर से आए पुरातत्वविदों ने ना सिर्फ घूम-घूम कर उत्खनन क्षेत्र को देखा बल्कि यहां आस-पास नजर आने वाले बैगा आदिवासियों की टोली से भी रूबरू हुए। 

आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया के पहले डायरेक्टर जनरल अलेक्जेंडर कनिंघम ने इस कंकालीन टीले का 1881-82 में दौरा किया था। अभी तक छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास से संबंधित कई महत्वपूर्ण संभावनाओं की जानकारी यहां की खुदाई से हुई है। यहां से विभिन्न काल के औजार, उपकरण, घरेलु इस्तेमाल की चीजें, मिट्टी के बरतन व अन्य महत्वपूर्ण सामान मिले हैं।

एक स्वर्ण सिक्का नक्कड़ देव, एक चांदी का सिक्का श्रीधर देव, एक सोने का सिक्का रतन देव, दो सोने का सिक्का प्रताप मल्ल देव कल्चुरी काल का और इस्लामिक काल के सिक्के। जंगलों के बीच मैकल पर्वत श्रंखलाओं से घिरा हुआ हाफ नदी के किनारे का टीला पहले कभी महल या किला रहा होगा। महाकौशल इतिहास परिषद के पांच सदस्यों में डा. प्रमोद शर्मा, डा. जवाहर तिवारी ने सामाजिक परिप्रेक्ष्य, डा. केसरपात्र ने औषधिय दृष्टि तथा डा. देवेंद्रनाथ पात्र ने भूगर्भ दृष्टि तथा डा. रमेंद्र नाथ मिश्र ने पुरातात्विक व एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में सर्वेक्षण कर मुख्यमंत्री को प्रतिवेदन दिया था। मृदुभांड, टैराकोटा के कलात्मक अवशेष, भवन, दीवार, ईंट और पत्थर के अवशेष इतिहास के अमूल्य धरोहरों को दर्शा रहे हैं।





पइसा देबे ता फोटो खिंचवाहूं... व्यवसायिक बनते जा रहे हैं बैगा
आप किसी धोखे में मत रहिए कि विश्व की प्राचीनतम जनजातियों में से एक बैगा समुदाय अब भी आज की ‘बाहरी’ दुनिया के असर से अछूता है। कवर्धा जिले के बोड़ला विकासखंड के गांवों में बसने वाले बैगा जनजाति के लोग बदलते दौर के साथ अपने- आप को तेजी से ढाल रहे हैं। बीते दो-तीन दशकों में जब से बैगा समुदाय के बीच बाहरी दुनिया के लोगों, खास कर स्वयंसेवी संगठनों की आमदरफ्त बढ़ी है, तब से इन लोगों ने धीरे-धीरे यह जान लिया है कि स्वयं को भुनाया जा सकता है। हालात अब यह हो गए हैं कि बिना कुछ लिए इस जनजाति के बहुत से लोग अब फोटो खिंचवाने से गुरेज करते हैं। वैसे इस आंशिक व्यवसायिकता के बावजूद इन सब के बीच इनमें से कुछ लोगों का सहज व सौम्य रूप आज भी बरकरार है।

बैगा जनजाति के लोगों का मिला-जुला व्यवहार बोड़ला विकासखंड के अंतर्गत सिली-पचराही में आयोजित तीन दिवसीय संगोष्ठी में देखने को मिला। दलदली गांव से बाक्साइट निकालने वाली बाल्को कंपनी की बदौलत आंशिक तौर पर पक्की सडक़ बन गई है। बाक्साईट भरी ट्रकों की आवाजाही से ये सडक़ें कई जगह से टूटी भी हैं। पचराही के कंकालीन टीले के पास मैदान में पहली बार इतना बड़ा पंडाल देखकर स्वाभाविक तौर पर बैगा समुदाय के लोगों की आवाजाही पहले दिन से शुरू हो चुकी थी। पहले दिन शाम को तीजन बाई की पंडवानी के बाद से गांव-गांव में यहां होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम की खबर पहुंच चुकी थी। लिहाजा दूसरे दिन भी कई बैगा परिवार अपने पंरपरागत आभूषण और वस्त्र पहन कर दोपहर बाद से आना शुरू हो गए थे। सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होने का इंतजार करते बैठे ये लोग देश भर से आए लोगों के कौतूहल के केंद्र थे।

बैगा जनजाति के युवा धीरे-धीरे किस तरह व्यवसायिकता की ओर खींचते चले जा रहे हैं, उसकी झलक दिखी मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के आगमन से कुछ देर पहले। ज्यादातर बैगा युवा अब छत्तीसगढ़ी अच्छी तरह बोलने-समझने लग गए हैं। ऐसे में पास के मैदान में घास चरा रहे पिपरहा गांव के तीन बैगा युवाओं से मिलना दिलचस्प रहा। किसी पौराणिक पात्र की तरह लग रहे तीनों युवा अपने बड़े-बड़े बालों और गले में पहनी मालाओं की वजह से सबसे जुदा लग रहे थे। जिज्ञासावश जैसे ही इस संवाददाता ने कैमरा निकाला, झट से एक के मुंह से निकला-‘‘पइसा देबे ता खिंचवाहूं...।’’

मेरे साथ चल रहे खैरागढ़ के एक पुरातत्वविद ने इन युवाओं को पान-पराग थमाया तब कहीं जाकर इन युवाओं ने फोटो खिंचवाई। लेकिन जैसे ही हम लोगों ने उनका नाम पूछा तो इनमें से एक युवा ने हंस कर कहा-‘‘पइसा देबे के नई...?’’ हम लोगों ने इन्हें ‘पइसा’ तो नहीं दिया लिहाजा इन्होंने अपना नाम भी नहीं बताया। बातों-बातों में कुछ सहज होकर इन युवाओं ने सिर्फ इतना ही बताया कि बड़े होने के बाद बाल कटवाना इनकी जनजाति में वर्जित है। बाल सिर्फ घर में माता या पिता की मृत्यु पर ही उतरवाए जाते हैं। एक ने तो थोड़ी ना-नुकुर के बाद यह भी बताया कि उनके गांव में बिजली नहीं आई है और स्कूल के बच्चों को पास के अमेरा गांव जाना पड़ता है। चलते-चलते नाम नहीं बताने वाले इन तीनों युवाओं में से एक ने जिज्ञासावश हमसे पूछ लिया-रमन सरकार कब तक आही..?

हम लोगों ने बिना ‘पइसा’ लिए उन्हें बता दिया 10 मिनट बाद। इसके बाद तीनों बैगा युवा हंसते हुए हैलीपैड की ओर जाने लगे, आसमान से उतरने वाले उडऩखटोले को देखने की चाहत में।

सांस्कृतिक कार्यक्रम में भरा-पूरा पंडाल
राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी में दिन भर चलने वाले शोधपत्र वाचन से स्थानीय लोगों का तो कुछ भी लेना-देना नहीं था, इसके बावजूद बैगा आदिवासी और आस-पास रहने वाले अन्य ग्रामीण तीनों दिन दोपहर बाद से कार्यक्रम स्थल में पहुंचते थे। सांस्कृतिक कार्यक्रम में पहले दिन तीजन बाई की पंडवानी और दूसरे दिन दीपक चंद्राकर के समूह की प्रस्तुति के दौरान वाटर प्रूफ (एयर प्रूफ भी, जिसमें हवा के आने-जाने कोई जगह नहीं थी) पंडाल में तिल रखने जगह नहीं थी। यहां के स्थानीय लोगों के लिए यह पूरा आयोजन सचमुच ‘जंगल में मंगल’ की तरह था। पहली बार घनघोर जंगल के बीच विशालकाय पंडाल में देश भर के लोगों की मौजूदगी को ग्रामीण कौतूहल से देख रहे थे वहीं देश भर से आए लोग बैगा आदिवासियों को उत्सुकता की नजरों से ।

कवर्धा जिला मुख्यालय से करीब 47 किमी की दूरी पर स्थित सिली पचराही के अन्वेषण के दौरान कई चौकानें वाले तथ्य सामने आए हैं। हाफ नदी के दाहिनी किनारे यह पचराही का क्षेत्र है।

मोहम्मद जाकिर हुसैन

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