Saturday, October 20, 2012

 मैं साहिर-शैलेंद्र बनने आया था, मुझे लोग

 'समीर' बनाना चाहते थे: राहत इंदौरी 


हुसैन के मुद्दे पर हिंदुस्तान की पेशानी पर जो तिलक

लगाने की कोशिश कर रहे हैं वो दाग बन जाएगा.....


मुहम्मद ज़ाकिर हुसैन 
भिलाई में 2010 में इंटरव्यू के दौरान रहत इंदौरी 
इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर,शायर और पेंटर डा. राहतुल्लाह कुरैशी से फिल्मों के गीतकार डा. राहत इंदौरी तक का सफर अपने आप में कई दास्तां समेटे हुए है। 
गीतकार राहत इंदौरी चाहते तो बहुत कम बताना हैं लेकिन उनकी बातों में इतनी साफगोई है कि इंटरव्यू के दौरान बहुत सी बातों पर परदा डालने की कोशिश करते हुए भी वह कामयाब नहीं हो पाते हैं। 
एक मुशायरे के सिलसिले में 10 अप्रैल 2010 को भिलाई आए डा.राहत इंदौरी से मेरी लंबी गुफ्तगू हुई थी। शाम का वक्त था और राहत पूरी तरह फुरसत में थे। ऐसे में खुद के फिल्मी सफर नामे से लेकर हाल में मकबूल फिदा हुसैन के देश छोडऩे जैसे मुद्दे पर उन्होंने पूरे इत्मिनान के साथ बात की।
 कई बार कुछ ऐसे सवाल भी आए जिसमें उन्होंने साफ तौर पर यह भी कह दिया कि 'यह सब बताना मेरी कमीनगी होगी' फिर बात की रौ में राहत कुछ ऐसे बह गए कि सब कुछ साफ बयानी के साथ बता दिया। राहत इंदौरी से हुई ये बातचीत बिना ज्यादा काट-छांट के।

इंदौर से मुंबई का रूख क्यों कर हुआ..?

शरीके  हयात के साथ साभार-फेसबुक 
मैं इसलिए गया था कि बंबई वाले भरपूर पैसा देते हैं और साथ में थोड़ी बहुत शोहरत भी दे देते हैं। 
इंदौर में रहते हुए शोहरत मेरे पास पहले से थी फिर बंबई आने के बाद पैसा इतना आ गया कि बस अल्लाह का करम है। 
मैं 10-20 दिन के बाद अपने घर इंदौर जाता हूं तो मेरे पास कितना पैसा होता है, मुझे खुद नहीं मालूम, मैं अपनी बीवी को दे देता हूं देख लेना गिन लो। 
अब पैसा भी मेरा प्राब्लम नहीं रहा और शोहरत भी मेरा प्राब्लम नहीं रहा। मैनें कभी भी फिल्मों में ज्यादा नहीं लिखा और शौकिया ज्यादा लिखा।




...तो ये 'शौकिया' लिखने की शुरूआत कैसे हुई?

 
राहत इंदौरी परिवार के  साथ. साभार फेसबुक पेज 
उन दिनों मैं इंदौर की देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर था।

 टी सीरिज के मालिक गुलशन कुमार ने तब कई फोन काल आए, लोगों ने कहा कि आप उनसे बात कर लीजिए। 
फिर एक बंदा खुद चल कर आया कि खुदा के वास्ते उनसे बात कर लीजिए। गुलशन कुमार एक फिल्म बना रहे थे 'शबनम'। मेरी एक बहुत पुरानी गजल का मतला था -झील अच्छा है, कंवल अच्छा है,जाम अच्छा है,तेरी आंखों के लिए कौन सा नाम अच्छा है।
 उन्होंने पूछा ये आपका है, मैनें कहा-जी हां ये मेरा है। उन्होंने कहा आ जाइए, इस गीत को पूरा कर लीजिए। 
मैनें कहा साहब मैं तो पंजाब जा रहा हूं, मुशायरे लगे हुए हैं। उन्होंने कहा सब छोड़ दीजिए,जो आपके नुकसानात होंगे वह सब हम देंगे। 
मैं सब छोड़ कर चले गया। गुलशन कुमार ने वहां पूछा - राहत भाई हमारे लिए क्या है आपके पास? मैनें कहा, आपके लिए कुछ भी नहीं है मेरे पास, एक लाइन भी नहीं है। 
मैंनें कहा कि अगर आप बता दें, अगर आप बता दें सही-सही और मैं आपकी बात को सही-सही समझ गया तो मुझसे बेहतर कोई लिख ही नहीं सकता। उन्होंने खुद कार ड्राइव करते हुए सड़क पे गाने की सिचुएशन सुनाई।
 फिर दूसरे तीसरे दिन जब मैनें गीत लिख कर दिए तो फिल्म के लिए नहीं बल्कि  उन्होंने ये सभी14 गाने एक साथ एक एलबम 'आशियाना' के लिए अनुराधा पौडवाल-पंकज उधास की आवाज में छह दिन रिकार्ड कर लिए। उन्होंने खूब पैसे दिए। पैसे किसको अच्छे नहीं लगते हैं,लिहाजा मैं भी वहां रूकता गया।
 फिर अन्नू मलिक के साथ मैंनें महेश भट्ट  के लिए 'सर' फिल्म में गीत लिखे और इसके बाद महेश भट्ट,मेरी और अन्नू की ट्यूनिंग सी बन गई। भट्ट कैंप की ज्यादातर फिल्मों में मैनें गीत लिखे।

जैसा आप चाहते थे, फिल्मों में वैसा लिख पाते हैं.?

इंटरव्यू के दौरान 
सच कहूं तो मैं फिल्मी दुनिया में गया था साहिर-शैलेंद्र बनने के लिए लेकिन ये फिल्मवाले मुझे 'समीर' बनाने के चक्कर में लगे रहे। इस वजह से मैं बहुत जगह अनफिट  भी रहा।
 मुझे जब-जब शायरी के लिए बंबई ने पुकारा मैं वहां नजर आया। मैनें विधु विनोद चोपड़ा के लिए 'करीब' फिल्म में जब लिखा कि 'रिश्तों के नीले भंवर कुछ और गहरे हुए गए, तेरे मेरे साए हैं पानी पे ठहरे हुए, जब प्यार का मोती गिरा, बनने लगा दायरा' तो बड़ी तसल्ली हुई।
 'मुन्ना भाई' के गीत लिखने के बाद जब मैं अमेरिका मुशायरे के सिलसिले में गया तो देखा कि वहां कुछ बच्चे गुनगुना रहे हैं-चंदा मामा सो गए सूरज चाचू जागे। 
मैनें आज के सभी टॉप डायरेक्टर महेश भट्ट, राजकुमार संतोषी, अब्बास-मस्तान सहित कई लोगों के लिए लिखा। लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ कि मुझसे  नाच मेरी जान फटाफट, चार फीट की घोड़ी और छह फीट का घोड़ा, टन टना टन, टन टन तारा टाइप के गाने लिखवाने की कोशिश भी की गई, जिस पर मैनें सॉरी बोल इंदौर लौटना मुनासिब समझा। 
फिर एक वक्त आया जब फिल्म वाले भी समझ गए कि वे मुझसे बुरा लिखवाएंगे तो मैं भाग जाऊंगा और भाग के इधर भिलाई आ जाऊंगा मुशायरे में या फिर किसी और शहर चला जाऊंगा। क्योंकि अब पैसा मेरा प्राब्लम नहीं रहा।

क्या वाकई अब पैसा आपका प्राब्लम नहीं रहा और आज फिल्मों में म्यूजिक का ट्रेंड कैसा देखते हैं ?


मेरा खयाल है पिछले 10 बरस में मैनें कोई 3-4 दर्जन सुपर-डुपर हिट फिल्मी गीत दिए। मैंनें गोल्डन जुबली और सिल्वर जुबली फिल्में दी। मैनें मिशन कश्मीर, करीब ,मुन्ना भाई एमबीबीएस जैसी कई हिट फिल्मों मे गीत लिखे।
 मैनें इतना लिखा कि मुझे पैसा बहुत आ जाता है। लाखों का चेक हर साल सितंबर और मार्च में आ जाता है। अगर मैं समीर की तरह गाने लिख देता तो शायद इससे कहीं ज्यादा पैसे आते और मैं तो कभी घर से ही नहीं निकलता। इसलिए वाकई अब मेरा प्राब्लम पैसा नहीं, मेरा प्राब्लम पोएट्री है।
ये बड़ा अजीब मामला है कि आज फिल्मों का जो म्यूजिक है वो प्रोड्यूसर-डायरेक्टर या म्यूजिक डायरेक्टर के भी हाथ में नहीं रहा। वो अब म्यूजिक कंपनी के हाथ में आ गया है।
 गुलशन कुमार ने ये ट्रेंड शुरू किया था कि गाना चाहे कोई भी हो आप रिकार्ड कीजिए,हम बैंक बना देंगे। अब आज ढेर सारी म्यूजिक कंपनियां हैं। जब फिल्म का प्रोजेक्ट जब शुरू होता है तो सबसे पहले प्रोड्यूसर- डायरेक्टर म्यूजिक कंपनी के लोगों को बुलाते हैं ।
 ये म्यूजिक कंपनी वाले बताते हैं कि साहब हम फलां-फलां गाना कर रहे हैं। अब जो डायरेक्टर-प्रोड्यूसर म्यूजिक का अलीफ-बे भी नहीं जानता वो ओके-ओके कह देता है। इस तरह पहले गाने से फिल्म का मुहूर्त भी हो जाता है।

आज फिल्मों में गीतों की कितनी अहमियत रह गई है?

हकीकत ये है कि आज के ज्यादातर गानों का किसी भी फिल्म की कहानी से कोई ताल्लुक नहीं रह गया है। पहले हमारी फिल्म में जो गाने आते थे उनका बाकायदा कहानी से ताल्लुक होता था।
 मसलन आप 'मदर इंडिया' फिल्म से 'मतवाला जिया डोले पिया,झूमे घटा छाए रे बादल' को आप हटा दीजिए, फिल्म की कहानी भटक जाएगी। अब ये होता है कि जब गाना आ जाता है तो कहानी खत्म हो जाती है। उस गाने का उस कहानी से कोई ताल्लुक नहीं  होता है।
 अब ये होता है कि वो गाना इस फिल्म से हटा कर दूसरी फिल्म में रख दिया जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि सिचुएशन एक सी होती है। एक लड़की है और एक लड़का है और बाग में ढेर सारे एक्स्ट्रा के साथ गा रहे हैं। 
तो इस गीत को आप इस फिल्म से हटाकर दूसरी फिल्म में रख लीजिए कोई फर्क नहीं पड़ेगा। कई बार ऐसे गीत हम खुद भी लिख देते हैं, लेकिन हमारे अंदर का शायर हमें इनकार करता है कि ये क्या कर रहे हैं आप कुछ हजार रूपए के चेक के लिए।

ये कैसे मुमकिन है कि फैक्ट्री की तरह हर दूसरी फिल्म में किसी के गीत  लगातार आते रहें ? समीर, इंदीवर हो या आनंद बख्शी....

(बीच में टोकते हुए) आपका ये सवाल जरा मुश्किल है और इसका जवाब भी मुश्किल है। आप सिर्फ समीर या इंदीवर के मुताल्लिक सवाल नहीं कर रहे हैं बल्कि इनका इशारा कर आप उन लोगों की बातें कर रहे हैं जो हमारे सीनियर हैं और बड़े लोग हैं जिसमें शकील, साहिर और हसरत सहित दूसरे लोग भी आ जाएंगे।
 हां, होता है ऐसे लेकिन मेरे साथ ये कभी नहीं हुआ। अगर दूसरों से गीत लिखाने बहुत से बड़े नाम किराए के लोग रखते भी होंगे तो मुझे नहीं मालूम। मैनें तो कभी नहीं रखे। 
जैसा आप कह रहे हैं तो सच है कि  एक जमाना था कि इंदीवर हर दूसरी फिल्म में लिखता था। एक जमाना मेरा भी था कि जब मैनें फिल्म लाइन ज्वाइन की तो हर तीसरी फिल्म मेरी थी। 
सुपर-डुपर फिल्में मैनें लिखी लेकिन मैनें कभी ओढ़ा नहीं फिल्म को। इतराया नहीं मैं कि मैं फिल्म राइटर हूं।

इंडस्ट्री में ये ट्रेंड तो चलता रहा है..?

मैं  इसका जवाब नहीं देना चाहता। आप बार-बार कुरेद रहे हैं उसके बावजूद मैं नाम नहीं लेना चाह रहा हूं क्योंकि ये सब मेरे बड़े हैं मेरे दोस्त हैं।
 अलबत्ता ये जरूर है कि कोई मुखड़ा या गीत का बंद पसंद आ गया डायरेक्टर को। मसलन मुझको यारों माफ करना मैं नशे में हूं। डायरेक्टर जीपी सिप्पी लेकर गए शंकर-जयकिशन साहब के पास।
 उन्होंने पूछा ये किसका है जवाब मिला जिसका भी हो ये अच्छा है और ये मुखड़ा चाहिए। रिकार्ड करो। तो ऐसे काम बहुत हुए हैं इसमें मैं किसी का नाम नहीं लूंगा और लेना भी नहीं चाहिए मुझे।

...तो क्या आपके साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ..?

भिलाई में राहत इंदौरी,पीछे बैठे उस्ताद शायर बदरुल कुरैशी 'बद्र '
कई गाने ऐसे हैं। मैनें मैक्जिमम वर्क किया है अन्नू मलिक के साथ। अन्नू ने कहा कि राहत यार ये मुखड़ा मेरे मामू हसरत (जयपुरी) का है। अब वो बीमार रहते हैं,ये गाना तू कंपलीट कर दे,पैसे तेरे को नहीं मिलेंगे लेकिन उनके पास पहुंच जाएंगे। तो,मुझे खुशी हुई।
वो गाना था फिल्म 'मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी' का 'पास वो आने लगे जरा-जरा..' । आप सीडी उठा कर देखेंगे तो गीतकार की जगह हसरत जयपुरी लिखा हुआ है। कई बार हुआ कि यार, ऐसा कर दो या ऐसा कर दो। तो,मैंनें कई बार कई लोगों के लिए ऐसा काम किया। तो उसके मुझे पैसे भी नहीं मिले, नाम भी किसी और का हुआ। 
ऐसा मैनें कई बार किया। फिर ऐसा भी हुआ कि मैनें गाना लिख लिया लेकिन रिकार्ड हुआ किसी और का लिखा हुआ। मसलन, एक फिल्म महेश भट्ट की ' द जेंटलमैन' थी।
 मुझे सिचुएशन दी गई गीत लिखने। किसी वजह से मैं 3-4 दिन बाद गीत लेकर पहुंचा तो मालूम चला कि वो गीत तो इंदीवर ने लिख भी दिया और रिकार्ड भी हो गया।
ये गीत था 'रूप सुहाना लगता है चांद पुराना लगता है तेरे आगे ओ जानम'। मैंनें सुना तो मुझे धक्का सा लगा। वैसे तो मैं इंदीवर जैसी शख्सियत को मैं आज भी सैल्यूट करता हूं। लेकिन, उस रोज इस गीत को लेकर मेरी इंदीवर से थोड़ी सख्त लहजे में बात हो गई। 
वो इसलिए क्योंकि इस गीत का मुखड़ा इंदीवर ने कैफ भोपाली की लिखी गजल के मतले से उठा लिया था। उनका मतला था-तेरे आगे चांद पुराना लगता है तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है।
तो, मैनें इंदीवर को कहा कि यार, ये तुमने एक फकीर आदमी की लाइनें मार ली। इंदीवर बोले मुझे म्यूजिक डायरेक्टर ने कहा था कि इसको गाना कर ले। ऐसा तो होता रहता है।

यानि इंडस्ट्री में ये सब आम बात है?

देखिए, ये इंडस्ट्री की ये ट्रेजेडी भी रही और ट्रेंड भी रहा। अब बात निकल ही गई  है तो मैं बताऊं,हमारे बुजुर्ग और बड़े बेतकल्लुफ दोस्तों में थे खुमार बाराबंकवी। उन्होंने फिल्मों में अपने लिए और दूसरों के लिए खूब लिखा है। जब वो मूड में हों तो हम लोगों को शराब  भी खूब पिलाते थे। 
ऐसे तो वो फिल्मी दुनिया पर ज्यादा बात नहीं करते थे लेकिन कभी मूड में हो तो हम लोग ही छेड़ देते थे कि खुमार भाई, बताओ आप ने कौन-कौन से गाने दूसरों के लिए लिखे। तो वो गा कर सुनाते लग जाते थे- ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम ना होंगे, हमीं से मोहब्बत हमीं से लड़ाई, अरे मार डाला दुहाई-दुहाई।
 उनके मुंह से ऐसी कड़वी हकीकत सुन कर हम तो पागल हो जाते थे क्योंकि उनके बताए ज्यादातर गाने शकील बदायूंनी के नाम पर है। ऐसा इंडस्ट्री में बहुत हुआ और लोगों ने बहुत किया।

आपके अंदर का शायर कभी फिल्मी गीतकार पर हावी नहीं होता..?

देखिए, दोनों अलग-अलग बातें हैं। मुशायरों में तो राहत इंदौरी ही होता है। मुझे ये कहने वाला कोई नहीं होता कि ये पढऩा है या ये नहीं पढऩा। ये सुनाना है या ये नहीं सुनाना है। 
फिल्मों में मुझे मेरे सर पर मेरा चेक जो है वो मुझे मजबूर करता है कि आपको ये लिखना है और ये नहीं लिखना है। फिल्मों में वो लिखना पड़ता है जो हमसे हमारा डायरेक्टर और प्रोड्यूसर चाहता है। मुशायरे में ये नहीं होता बल्कि हम अपनी मर्जी का सुनाते हैंं।
 अवाम की  तारीफ,उनकी तहसीन,उनकी तालियां मेरे लिए करोड़ों रूपए की जायजाद है। फिल्म का मामला कुछ ऐसा है कि -गिन-गिन के सिक्के हाथ मेरा खुरदुरा हुआ,जाती रही वो हाथ की नरमी, बुरा हुआ। ये शेर मेरा नहीं बल्कि जावेद अख्तर का है।

इन दिनों किन फिल्मों के लिए गीत लिख रहे हैं आप?

मैं शुरू से ही सलेक्टिव लिखने में यकीन रखता रहा हूं। इन दिनों मैं एक बहुत बड़े प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूं। एमएफ हुसैन इन दिनों 'माजरा' बना रहे हैं। जिसके गीत लिखने का मौका उन्होंने मुझे दिया है।
 दरअसल उनकी पिछली दो फिल्मों 'गजगामिनी' और 'मीनाक्षी-ए टेल ऑफ़ थ्री सिटीज़' में भी मैनें ही गीत लिखे थे। फिर जब हुसैन ने अपनी तीसरी फिल्म 'माजरा' पर काम शुरू किया तो उन्होंने मुझे बुलाया। बातचीत के दौरान मैनें पूछ लिया कि-आपकी कास्टिंग क्या है, कौन काम कर रहा है आपकी फिल्म में? तो, उन्होंने मुझे बड़ा दिलचस्प जवाब दिया कि राहत, हमारी फिल्म की जो कास्टिंग है वो है लैंड स्केप, कलर और पोएट्री।
 तो मैं फौरन तैयार हो गया क्योंकि मैं लैंड स्केप भी जानता हूं, कलर्स भी जानता हूं और पोएट्री भी जानता हूं। तो मैं उनकी 'माजरा' के लिए काम कर रहा हूं,छह-सात गाने मैं लिख चुका हूं।
हुसैन के बेटे ओवैस हुसैन की मौजूदगी में इन दिनों कुल्लू मनाली मे फिल्म की शूटिंग भी चल रही है। इस फिल्म के सिलसिले में भी मैं दुबई जाकर हुसैन से मिलता रहता हूं।

हुसैन का कतर की नागरिकता लेना क्या सचमुच इतना गंभीर मसला है?

मुझे खुद समझ नहीं आता कि आखिर हुसैन के नाम पर इतना हौव्वा क्यों खड़ा किया जा रहा है। कोई 8-10 साल पहले अमिताभ बच्चन ने अमेरिका की नागरिकता ले ली थी। अभी भी अमिताभ के पास दोहरी नागरिकता है। कोई अमिताभ से तो कुछ नहीं पूछता।
अब आज ये बात आप मीडिया के लोग भी भूल गए हैं, तो मुझे हैरत है। हमारे एनआरआई लाखों की तादाद में हैं जो अमेरिका,कनाडा,ब्रिटेन और फ्रांस सहित कई मुल्कों में वहां की  नागरिकता रखते हैं, इसके बावजूद वो हिंदुस्तानी भी है।
अभी मैनें अखबार में पढ़ा कि लंदन का शेरिफ हिंदुस्तानी है। तो, इससे क्या फर्क पड़ता है। हां, लेकिन ये अफसोस की बात है कि एक 96 बरस का बूढ़ा पेंटर जो सारी दुनिया में फख्र की नजर से देखा जाता है उसे सिर्फ सियासत की वजह से हिंदुस्तान को छोडऩा पड़ा। 
मेरा कहना है कि अगर 96 बरस का एक बूढ़ा अगर कतर में मर जाता है तो मेरी नजर में ये हिंदुस्तान का सबसे बड़ा सियासी कत्ल होगा।

अपने हिंदुस्तान के बगैर हुसैन किस हाल में हैं वहां?

सच बताऊं तो हिंदुस्तान का जिक्र आते ही हुसैन की आंखें नम हो जाती  है। अभी पिछले महिने लंदन के एक होटल में वो मुझसे मिलने आए। हम लोग खाना खा रहे थे तो भीगी आंखों से कहने लगे, राहत, मैंनें सारी जिंदगी पूरी दुनिया में घूमते-घूमते गुजार दी।
 हमेशा मेरी जेब में अलग-अलग मुल्क के 5 टिकट ,पासपोर्ट वीजा सब कुछ होता है। फिर एयरपोर्ट में जाता हूं तो लगता है कि यहां मत जाओ यार किसी छठें मुल्क में चलों।
 घर में बच्चों से कह कर आता हूं कि शाम में इकट्ठे खाना खाएंगे लेकिन अक्सर यह होता है कि शाम को किसी और मुल्क भी पहुंच जाता हूं मैं। पूरी दुनिया में जिस वक्त चाहूं जा सकता हूं लेकिन मेरी आंख में आंसू आ जाते है कि इन सबके बावजूद मैं अपने मुल्क हिंदुस्तान नहीं जा सकता हूं। हुसैन कहते हैं कि-यार, मैं  यहां मिस कर रहा हूं अपनी दिल्ली, अमरोहा, जैसलमेर बाड़मेर और न जाने कितने हिंदुस्तानी शहर, गांव, बस्ती। जो मेरे ब्रश है मेरे कलर हैं मेरे अपने मुल्क के।

वहां रहते हुए हुसैन की जीवन शैली में बदलाव आया..?

बिल्कुल नहीं। आज भी वह इंसान नंगे पैर पूरी दुनिया नाप रहा है। मेरी हुसैन से लंदन,दुबई और कतर में मुलाकात होते रहती है। मुख्तलिफ मुल्कों में वो जहां होता है एमएफ हुसैन होता है।
 आपको जान कर हैरत होगी कि दुबई में वो बुगादी कार में मुझसे मिलने आए थे। ये कार पूरे मिडिल इस्ट में सिर्फ 4 लोगों के पास है।
 और वो चारों वहां अपने-अपने मुल्क के बादशाह हैं। हम हिंदुस्तानियों को खुश होना चाहिए कि एक आदमी हमारे  देश  का ऐसा है जो इस हाल में है।

....लेकिन क्या  एक इस्लामी मुल्क में हुसैन उतनी ही आजादी से अपने 'घोड़े' दौड़ा पाएंगे ?

वहां हुसैन अपने 'घोड़े' दौड़ा पाएंगे नहीं बल्कि दौड़ा रहे हैं और पूरी आजादी के साथ। जनवरी में जब वो मुझसे मिलने दुबई आए थे तो उन्होंने कहा कि-राहत यार मैं कल कतर जा रहा हूं। वहां के शाह के कहने पर कतर की सौ बरस की तहजीब को पेंट करना है। मैं कल चला जाऊंगा। 
खैर, कुछ दिनों के बाद उन्होंने टेलीफोन किया और बताया कि आजकल वह कांच के घोड़े बना रहे हैं शाह के महल में। फिर एक हफ्ते बाद मैंनें फोन किया तो उन्होंने कहा कि मुझे कतर की सिटीजनशिप आफर की थी और मैंने वह कुबूल कर ली है। 
मुझे एक सदमा सा पहुंचा लेकिन जैसा मैनें पहले ही कहा कि आदमी या तो मजबूरी में फैसले लेता है खौफ में या दबाव में लेता है। तो हुसैन के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला समझिए।

 ...तो क्या हुसैन का हिंदुस्तान छोडऩा वाकई बहुत बड़ा नुकसान है..?

देखिए, सच्चे कलाकार के लिए जमीन या कोई देश या कोई इलाका नहीं होता। रोशनी जहां होगी अपना नूर फैलाएगी। हुसैन जहां रहेंगे अपनी कला बिखेरेंगे। कब तक आप सियासत करेंगे हुसैन के नाम पर। साल, दो साल, चार साल। ये जो हमारी सदियों की तहजीबें हैं। 
जिसे आप कह रहे हो नग्नता है तो ये खजुराहो के मंदिर कहां लेकर जाओगे आप? सुप्रीम कोर्ट में जब हुसैन के खिलाफ मुकद्दमे हटाए गए तो जज ने कहा कि जिन लोगों ने ये मुकद्दमें किए हैं वो जाहिल हैं और समझते ही नहीं है कि आर्ट क्या होता है।
आप अजंता-एलोरा कहां लेकर जाओगे? ये हमारी अपनी तहजीबें हैं,ये खत्म नहीं की जा सकती। आपको मालूम ही नहीं कि हमारे मुल्क की गंदी सियासत की वजह आज के दौर का यह (हुसैन का मुल्क छोडऩा) कितना बड़ा नुकसान है।
यह गैलेलियों और सुकरात की तरह का मामला है। आप इस मामले को लेकर हिंदुस्तान की पेशानी पर जो तिलक लगाने की कोशिश कर रहे हैं वो हमेशा के लिए दाग़ बन जाएगा।

लेकिन, हुसैन ने तो अपना हिंदुस्तानी पासपोर्ट ही लौटा दिया है?

 मेरा कहना है कि आदमी कोई भी फैसला मजबूरी, खौफ या दबाव में लेता है। अब ये  चिदंबरम साहब जो 74 लोगों को मरवा के बैठे हुए हैं इन्होंने क्या कभी बयान दिया कि आप आइए आपकी हिफाजत की गारंटी हम लेते हैं? 
अगर वो दे भी देते तो क्या सचमुच वो ऐसा कर पाएंगे। जब वो खुद हमारे जवानों को नहीं बचा पा रहे हैं तो हुसैन जैसी शख्सियत की क्या बात करें।

खुद हुसैन इस बारे में क्या कहते हैं..?

मैं पिछले तीन  माह में छह मरतबा हुसैन से मिला* हूं। मैं मुशायरे के सिलसिले में लंदन जाऊं या दुबई। उनसे जरूर मुलाकात होती है। हुसैन ने मुझे हाल की मुलाकात में बताया कि-चिदंबरम कह रहे हैं कि हम कोशिश कर रहे हैं कि हम आपकी हिफाजत का इंतजाम करें। हम बहुत जल्दी आपको बुलवाएंगे।
 हुसैन परेशान हैं,उनका कहना है कि मेरा मुल्क है ये मेरी जमीन है ये, आखिर मेरी हिफाजत क्यों नही। इसलिए हुसैन साहब ने वो बयान भी दिया था कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को तो उनके मुहाफिजों ने मारा था। सचिन तेंदुलकर और जावेद अख्तर के घर पर शिवसेना पहुंच जाती है। ऐसे में अपने मुल्क हिंदुस्तान में कौन महफूज है।

...लेकिन 96   बरस की उम्र में हुसैन को अपनी हिफाजत को लेकर इतना खौफ क्यों..?

10 जून 2011 हुसैन का आखिरी सफर लंदन में 
देखिए, सुप्रीम कोर्ट ये फैसला दे चुका है कि हुसैन के उपर कोई केस नहीं है। 
उसके बाद बजरंग दल, आरएसएस और उनकी जमात ये कहती है कि हम कोर्ट को नहीं मानते हैं। 
 वो अगर आएंगे तो हम एहतेजाज (विरोध प्रदर्शन) करेंगे। ऐसा अखबारों में भी छपा। इसके बावजूद हिंदुस्तान की हुकूमत सब चुपचाप देख रही है। आखिर एक 96  बरस के आदमी की ज्यादा से ज्यादा उम्र क्या मान सकते हैं आप? 
आज की तारीख में बहुत हुआ तो साल भर या दो ,तीन, चार साल और। ऐसे में हुसैन का अपनी जमीन से बाहर होना इस दौर की सबसे बड़ी बदकिस्मती होगी।
*नोट -यह इंटरव्यू 10 अप्रैल 2010 का है और तब राहत इंदौरी कुछ अरसा पहले मक़बूल फ़िदा हुसैन से दुबई से मिल कर लौटे थे। क़रीब साल भर बाद 9 जून 2011 को लंदन में हुसैन का इंतेक़ाल हुआ.. إِنَّا لِلّهِ وَإِنَّـا إِلَيْهِ رَاجِعونَ

1 comment:

  1. बहुत बेबाकी से दिए गए जवाब और उतनी खूबी से पूछे गए सवाल। एक शानदार इंटरव्यू, पढ़ने से दिल खुश हो गया। लेकिन आखिरकार राहत साहब की बात कितनी सही निकली कि "हां, लेकिन ये अफसोस की बात है कि एक 96 बरस का बूढ़ा पेंटर जो सारी दुनिया में फख्र की नजर से देखा जाता है उसे सिर्फ सियासत की वजह से हिंदुस्तान को छोडऩा पड़ा। मेरा कहना है कि अगर 96 बरस का एक बूढ़ा अगर कतर में मर जाता है तो मेरी नजर में ये हिंदुस्तान का सबसे बड़ा सियासी कत्ल होगा।"

    क्या कहा जाए....हम खुश हों कि हम भारत में हैं!

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