Tuesday, November 27, 2012

भिलाई स्टील प्रोजेक्ट में सप्लायर 
रहा है दिनेश त्रिवेदी का परिवार
  


दुर्ग गंजपारा व्हाया कोलकाता रेल भवन का सफ़र


रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी 9-10 फरवरी 2012 को अधिकारिक प्रवास पर भिलाई स्टील प्लांट पहुंचे थे। 
यहां सार्वजनिक सभा के दौरान खुद उन्होंने भिलाई से अपने बचपन के लगाव को जाहिर किया, इसके बाद ही लोगों को पता लगा कि उनका छत्तीसगढ़ से भी नाता रहा है। 
भिलाई-दुर्ग के कुछ एक परिवारों को छोड़कर शायद ही किसी को इस बारे में मालूम था। उनके दौरे के दो दिन की कवायद के बाद त्रिवेदी के स्थानीय परिजनों से मिल कर उनके यहां से जुड़ाव के तथ्य मुझे मिले-

दुर्ग-भिलाई में निवासरत त्रिवेदी के परिजन भी खुद नहीं चाहते थे कि यह बात सार्वजनिक हो। यहां तक कि परिजन उनसे मिल कर रायपुर से लौट भी आए लेकिन यहां किसी को खबर नहीं हुई। 11 फरवरी को जब मीडिया में त्रिवेदी का भाषण परिजनों ने देखा तब कहीं परिजन रेलमंत्री के निजी जीवन से जुड़ी बातें शेयर करने तैयार हुए। 

परिजनों ने बताया कि रेलमंत्री त्रिवेदी के पिता स्व. हीरालाल त्रिवेदी कराची से हिंदुस्तान आए थे। स्व. हीरालाल ने जहां कोलकाता में अपना कारोबार जमाया वहीं उनके तीन भाइयों स्व. रतिलाल त्रिवेदी,स्व. प्रताप त्रिवेदी और स्व. महिपत त्रिवेदी ने दुर्ग गंजपारा में कारोबार शुरु किया। 

भिलाई स्टील प्रोजेक्ट शुरु होने पर हीरालाल त्रिवेदी ने 1955-56 में एक सप्लायर के तौर पर अपने भाइयों को भी साथ जोड़ा। स्व. रतिलाल त्रिवेदी की पुत्रवधू आर्य नगर दुर्ग निवासी हर्षा बेन त्रिवेदी ने इस बारे में बताया कि गंज पारा में मध्यभारत मिल स्टोर्स के नाम से परिवार की फर्म शुरु हुई थी। जहां से बीएसपी निर्माण का ठेका लेने वाली हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी (एचसीसी) को सामानों की आपूर्ति की जाती थी। 

गंजपारा में संयुक्त परिवार था और हीरालाल त्रिवेदी कारोबार लगातार बढऩे की वजह से कोलकाता और दुर्ग-भिलाई आते जाते रहते थे वहीं दिनेश भाई के बड़े भाई स्व. प्रवीण भाई और भाभी चंपा बेन त्रिवेदी यहीं दुर्ग में ही रहे। हर्षा बेन के मुताबिक दिनेश भाई की पूरी पढ़ाई कोलकाता और विदेश में हुई लेकिन जब भी छुट्टी लगती तो वो सीधे दुर्ग चले आते थे। 

1975 में जब उनके पिताजी का कारोबार और ज्यादा बढ़ गया तब पूरा परिवार कोलकाता शिफ्ट हो गया। उसके पहले तक हर गर्मी, दशहरा, दीवाली की छुट्टियों में दिनेश त्रिवेदी गंजपारा वाले घर में होते थे। संयुक्त परिवार में जिस तरह का माहौल होता है, ठीक वैसे माहौल हमारे घर में था और दिनेश भाई भी उसमें पूरी तरह रमे रहते थे। 

 रायपुर में मिले आत्मीयता से 

त्रिवेदी के चाचा रतिलाल के पौत्र गौरव त्रिवेदी ने बताया कि सार्वजनिक जीवन में व्यस्त रहने के बावजूद दिनेश भाई अपने परिवार से ई-मेल, फेसबुक और फोन पर संपर्क कायम रखते हैं। 

रायपुर आने की खबर पर गौरव अपनी मां हर्षा बेन, पत्नी उज्जवला त्रिवेदी और नन्हे बेटे नील त्रिवेदी को लेकर रेलमंत्री से मिलने पहुंचे। गौरव के मुताबिक वहां किसी को पता नहीं चला कि हम उनके परिवार से हैं। हम लोगों ने एक पर्ची भिजवाई तो उन्होंने मीडिया को बाहर जाने का आग्रह कर हमें बुला लिया और सबसे पूरी आत्मीयता से मिले। 

इस्पात नगरी के प्रख्यात कथा वाचक उमेश भाई जानी की पत्नी दिव्या भी रेलमंत्री के चाचा रतिलाल त्रिवेदी की पौत्री है। उमेश-दिव्या किसी कारणवश रायपुर नहीं जा पाए। उन्होंने बताया कि अपने प्रवचनों खास कर नशा मुक्ति अभियान की क्लिपिंग जब वह फेसबुक अपलोड करते हैं तो दिनेश भाई के कमेंट सबसे ज्यादा उत्साहवर्धक होते हैं।

Monday, November 26, 2012

भिलाई के जेएलएन हॉस्पिटल से-9 में जन्में चार बच्चे



अपने चारों बच्चों के साथ माता-पिता अस्पताल की आईसीयू  में 
भिलाई स्टील प्लांट के जवाहरलाल नेहरु चिकित्सालय एवं अनुसंधान केन्द्र में 18 नवम्बर 2012 रात करीब 12.30 बजे राजनांदगांव के भरकापारा की रहने वाली प्रियंका शेंडे पति दिवाकर शेंडे ने एक साथ चार बच्चो को जन्म दिया। भिलाई में अपनी तरह का यह पहला मामला है। नार्मल डिलीवरी से हुए इन बच्चो में दो बेटी और दो बेटे हैं। 
इन चारों स्वस्थ बच्चों को 25 नवम्बर को नियोनेटल इकाई से छुट्टी दे दी गई। जन्म के समय कम वजन वाले इन चारों बच्चों का वजन क्रमश: 1.1, 1.2, 1.3 और 1.7 किलोग्राम था। नवजात शिशु  इकाई के डॉक्टरों और स्टॉफ के अथक और गहन प्रयास से अंततः ये शिशु पूरी तरह स्वस्थ हो गए।   
इस संदर्भ में इस इकाई की प्रभारी डॉ मालिनी बताती हैं कि आरंभ में तो इन चारों शिशुओं की देखभाल चुनौतिपूर्ण लगा परंतु नियोनेटल इकाई के स्टॉफ की मिल-जुलकर काम करने की भावना के फलस्वरूप हम यह कार्य पूरी सफलता के साथ कर सके। इन नवजात षिषुओं के माता-पिता भी शुरू मं यह नहीं सोच पा रहे थे कि इन नन्हें षिषुओं की देखभाल कैसे करें। उन्होंने बताया कि इस इकाई में इन्ट्रॉवेनस फ्लूइड्स लेमिनर फ्लो के तहत तैयार किया जाता है। स्तनपान की शीघ्र शुरुआत अत्यंत कम वजन वाले शिशुओं को थोड़ा-थोड़ा कर ट्रौफिक फीड्स रिपिटेड हैंड वाषिंग और षुरुआती दौर में ही खतरे की स्थिति को पहचान लेने के फलस्वरूप इन बच्चों की स्थिति में सुधार के रूप में हमें सफलता नजर आई।
उल्लेखनीय है कि भिलाई के जवाहरलाल नेहरु चिकित्सालय एवं अनुसंधान केन्द्र में नवजात षिषुओं का जीवन दर 99 प्रतिषत से भी ज्यादा है। यह इकाई देष के सर्वश्रेष्ठ इकाइयों में से एक है। चिकित्सालय से जाते समय इन चार शिशुओं के पालकों ने यहाँ के समर्पित नर्सिंग स्टॉफ चिकित्सक और प्रबंधन को भी चिकित्सालय में रहने के दौरान भरपूर सहयोग और देखभाल के लिए अपना आभार प्रदर्षित किया।

रियाज छूट गया और सुर अल्लाह पर छोड़ दिया

105 साल के उस्ताद राशिद खान ने की दिल की बातें 
प्रोग्राम से ठीक पहले ग्रीन रूम में बातचीत करते हुए उस्ताद राशिद खान 
1908 में जन्मे ग्वालियर घराने के उस्ताद राशिद खान का रियाज पिछले 20 साल से छूट गया है लेकिन आज भी सुर सधते हैं तो यकीन करना मुश्किल होता है कि इन बूढ़ी हड्डियों वाले जिस्म में इतना दमदार जिगर मौजूद है। उस्ताद इसे अल्लाह की नेअमत मानते हुए सब कुछ उसी की मर्जी पर छोड़ देते हैं। 

 16 फरवरी 2012 गुरुवार को भिलाई अपना में कार्यक्रम देने आए उस्ताद राशिद खान ने खास बातचीत की, इस दौरान मेरे साथ भिलाई के ही युवा पत्रकार शेखर झा भी थे । उस्ताद ने कहा की -हमारी यह 23 वीं पीढ़ी है। मैने 5 साल की उम्र में उस्तादों की निगहबानी में तालीम शुरू की थी, अब उम्र के 105 वें साल में हूं और  आज मैं कहां तक संगीत सीख पाया हूं या मुझे और कहां तक पहुंचना है, ये सब उस रब्बुल आलमीन को मालूम है। जैसे हर कलाकार की ख्वाहिश होती है वैसे ही मैं भी चाहता हूं कि बस उपर वाला आवाज सलामत रखे और आखिरी सांस तक गाता ही रहूं। 

 रायबरेली में निवासरत और कोलकाता में आईटीसी अकादमी से जुड़े उस्ताद ने कहा कि 20 साल पहले रियाज छोड़ चुका हूं, इसका मतलब यह नहीं कि मैं सब कुछ जान गया। दरअसल शरीर अब साथ नहीं देता। रोजाना मैं पांचों वक्त की नमाज पढ़ता हूं और सुबह कुरआन की तिलावत करता हूं। इससे जो रूहानी ताकत मिलती है उसी की बदौलत अपनी जिंदगी में जो थोड़ा -बहुत संगीत सीखा था, उसे आज की पीढ़ी में बांट रहा हूं। 'रसन पिया' के नाम से मैने 2 हजार से ज्यादा बंदिशें रची है। यही सब कुछ है जो मैं छोड़ जाऊंगा। अपनी विरासत के बारे में उन्होंने कहा कि घर के बच्चे तो गा ही रहे हैं। एक हमारा बच्चा शुभमय भट्टाचार्य है, बहुत अच्छा गाता है। मैं उसे प्यार से शहाबुद्दीन कहता हूं। ऐसे और भी हैं, जिनसे बहुत उम्मीदें हैं। अपनी सेहत और दिनचर्या पर उन्होंने कहा कि दिन भर में सिर्फ रात में एक वक्त खाना खाते हैं। दांत सलामत हैं इसलिए खान-पान में कोई परहेज नहीं है। सुबह भीगा चना और सूखे मेवे लेता हूं।
पैगंबर और सूफियों ने की संगीत से इबादत
एक सवाल के जवाब में उस्ताद ने कहा कि संगीत को लेकर इस्लाम में स्थिति कुछ अलग है। अल्लाह के पैगंबर दाउद अलैहिस्स्लाम 'लहने दाउदी' बड़ी मशहूर है। दाउद अपना कलाम गा कर खुदा की इबादत करते थे तो परिंदे तक भी खींचे चले आते थे। वहीं हमारे सूफियाए किराम ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती , हजरत साबिर शाह और खुद हमारे पीर का ये हाल था कि जब (सूफी कलाम) गाने वाला सामने बैठता था तो इनकी इबादत की मंजिले तय होती थी। दूसरी तरफ पीराने पीर दस्तगीर गौस पाक के यहां गाना शरई एतबार से ममनुअ (मना) था। इसलिए ये इबादत का एक तरीका भी है और आखिरी सांस तक मैं गाता ही रहूं अब ये अल्लाह की मर्जी है वो गवावे चाहे न गवावे।
उस्ताद की दुआए ऑटोग्राफ की शक्ल में 

श्रोताओं को तार सप्तक तक ले गए उस्ताद
गुरुवार की शाम अंचल के शास्त्रीय संगीत के श्रोताओं के लिए एक दुर्लभ मौका लेकर आई। मंच पर ग्वालियर घराने के दिग्गज 105 वर्षीय उस्ताद राशिद खान जब सुर साधने बैठे तो ऑडिटोरियम में  बैठे श्रोता दंग रह गए। उम्र के इस पड़ाव में सुरों को इस ऊंचाई तक ले जाना और गमक की इस कदर सधी हुई ताने लेना किसी जादूगरी से कम नहीं लग रहा था। 
मौका था सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ इंडियन क्लासिकल म्यूजिक  एंड कल्चर अमंग्स्ट यूथ (स्पिक मैके) की ओर से भिलाई इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी (बीआईटी) में उस्ताद राशिद खान की प्रस्तुति का।
 ज्यादातर श्रोता जिज्ञासावश भी आए थे बुजुर्ग उस्ताद की जादूगरी से रूबरू होने। उस्ताद ने किसी को निराश नहीं किया। सरस्वती वंदना के बाद मंच पर बैठते ही गर्म चाय का घूंट लिया और कहा- जो कुछ उसने दिया है, सब आपके सामने। संगत के लिए शुभ मय भट्टाचार्य, असद अली खां, तबले पर बिलाल अहमद और हारमोनियम पर हाफिज अहमद खां थे। शुरुआत हुई राग मधुवंती में बड़ा ख्याल विलंबित एक ताल में और छोटा ख्याल मध्य लय 3 ताल में। इस बंदिश के बोल थे बाबुल मोरे। इसके बाद बारी आई विलुप्त हो रही बंधी ठुमरी की। 'सावरी सूरत मोरा मन बस कर लीनो' बोल पर आज की श्रृंगारिक ठुमरी से कहीं अलग इस बंधी ठुमरी ने समां बांध दिया। कार्यक्रम के बाद अनौपचारिक चर्चा में उस्ताद राशिद खां ने बताया कि बंधी ठुमरी विलुप्त तो नहीं हुई है लेकिन उनके घराने ने कायम रखी है। उन्होंने उस्ताद चांद खां से इसे सीखा था। इसके बाद एक भोजपुरी गीत 'मोरे पिया गइले हो बिदेसवा' को उस्ताद ने अपने शागिर्द शुभ मय के साथ सुनाया। यह गीत राग मांड में निबद्ध था। राजस्थान से आई मांड गायिकी के अक्स में ढले भोजपुरी गीत का अद्भुत मेल सुन कर श्रोता दंग थे।  समापन हुआ गुरु वंदना से। उस्ताद ने जब आंखें बंद कर के 'मेरा रोम हर-हर बोले हरि ऊं' गाना शुरू किया तो पूरा ऑडिटोरियम रूहानियत से भर गया। 
इस उम्र में ऐसी गायिकी..अद्भुत
समापन पर बीआईटी की ओर से आईपी मिश्रा, पीबी देशमुख, पीआरएन पिल्लई, एमके कोवर और डॉ. संजय शर्मा ने उस्ताद और उनके शागिर्दों का सम्मान किया। कार्यक्रम में मौजूद अंचल के वरिष्ठ संगीतज्ञ पं. कीर्ति व्यास ने टिप्पणी करते हुए कहा कि उम्र के इस पड़ाव में गायिकी का ऐसा अद्भुत रुप अपने आप में दुर्लभ है। पं. व्यास के मुताबिक उस्ताद अपनी गायिकी के दौरान तार सप्तक के स्वरों पर जाकर जिस तरह देर तक कायम रह रहे थे, वह बहुत बड़ी बात है। फिर गमक के लिए जो दम लगाना पड़ता है, उसमें ज्यादातर उम्रदराज लोगों को दिक्कत होती है लेकिन उस्ताद राशिद खां यहां भी बेहद सहज थे। कुल मिला कर एक ऐसा दुर्लभ मौका था जो खुशनसीबों को मिलता है।
16 फरवरी 2012 (c)

मोहम्मद लफ्ज से बढ़ कर नहीं है कोई तहरीर

नातिया कलाम की खुशबू फैला रहे हैं प्रो. साकेत रंजन प्रवीर



एक निजी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापक प्रो. साकेत रंजन प्रवीर इस खूबी से पैगंबर हजरत मोहम्मद की शान में नातिया कलाम कहते हैं कि नबी का कोई भी आशिक इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। गैर मुस्लिम पृष्ठभूमि के होने के बावजूद प्रो. साकेत के कलाम का कोई सानी नहीं है।प्रो. प्रवीर ने अपने खयालात का इजहार कुछ इस तरह से किया-
बिहार के सारण जिले में हम छोटा से कस्बे इनायतपुर के रहने वाले हैं। मेरे दादा श्याम किशोर नारायण 'शाम इनायत पुरी' ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से फारसी में एमए थे। पिता मणिशंकर श्रीवास्तव हिंदी साहित्य के समीक्षक-आलोचक रहे हैं। वहीं हम छह भाइयों में सभी शेरों-सुखन से जुड़े हैं। नातिया कलाम यानि पैगंबर हजरत मोहम्मद की शान में लिखी जाने वाली कविता को लेकर जो समझ आई वह पटना में कॉलेज के दिनों की बात है। 
तब स्वामी प्रेम जहीर से अरबी का छंद शास्त्र (इल्मे अरूज), अलंकार शास्त्र (इल्मे बलागत) और मरहूम कौसर सिवानी से रस शास्त्र (इल्मे सलासत) व सौंदर्य शास्त्र (इल्मे फसाहत) हासिल करने की खुशकिस्मती हासिल हुई। क्योंकि इसके बिना उर्दू शायरी में परफेक्शन आ नहीं सकता था। वहीं पटना में सुल्तान अख्तर, सत्यनारायण और रविंद्र राजहंस जैसे आला दर्जे के नातख्वां से भी सीखने मिला।
नातिया कलाम मेरे लिए  खालिस तौर पर नबी से मुहब्बत ही है। पैगंबर किसी कौम तक महदूद नहीं है। कुरआन में जब उसे रब्बुल आलमीन कहा गया है तो उस रब्बुल आलमीन का भेजा रसूल बेशक सारे आलम के लिए रसूल है। दुनिया में जितनी कौम हैं सबने अपने-अपने अंदाज और लफ्जों-जुबान में हजरते रसूल की प्रशंसा की है।
 इसमें आप अहमद रजा बरेलवी, कृष्ण बिहारी नूर, पंडित दयाशंकर नसीम से लेकर छत्तीसगढ़ में स्व. पं. गया प्रसाद खुदी और आलोक नारंग तक ढेरों नाम है। आज नबी की शान में कुछ कह लेता हूं, ये उन्हीं का करम है। हाल ही में मेरे अजीज दोस्त फजल फारूकी  खाना-ए-काबा (मक्का) में थे। वहां उन्होंने मेरा लिखा एक कलाम वहां एक महफिल में पढ़ा। जब उनका फोन आया तो यकीन मानिए, लगा सारी आरजू पूरी हो गई। चलते-चलते ईद मिलादुन्नबी के मौके पर एक शेर-बेमिस्ल जमाने में है ये  लफ्जे मोहम्मद, इस लफ्ज से बढ़ कर कोई तहरीर नहीं है, हर काम है जागीर इसी लफ्ज की प्यारे, ये लफ्ज किसी कौम की जागीर नहीं है। 4 फरवरी 2012 (c)

Thursday, November 22, 2012

आज के फिल्मवाले ‘सूफी’ का मतलब भी समझते हैं क्या..?


जाने-माने कव्वाल वारसी भाइयों से खास मुलाकात


 स्टील क्लब में  नजीर अहमद खान वारसी और नसीर अहमद खान वारसी 
कव्वाली की 850 साल की विरासत को सहेजने वाले हैदराबाद के वारसी घराने के प्रतिनिधि नजीर अहमद खान वारसी और नसीर अहमद खान वारसी को हिंदी फिल्मों में कव्वाली पेश करने के अंदाज पर एतराज है।  2010 में उपराष्ट्रपति मुहम्मद हामिद अंसारी के हाथों संगीत नाटक अकादमी अवार्ड पा चुके और देश-विदेश के कई प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी कव्वाली पेश करने वाले दोनो भाई फिल्मों में सिर्फ वहीं कलाम गाना चाहते हैं जहां पेश करने का अंदाज भी सलीके का हो। स्पिक मैके के कार्यक्रम में 5 नवंबर 2012 को भिलाई आए वारसी भाइयों ने स्टील क्लब में अपने प्रोग्राम से ठीक पहले की दिल की बातें।  
आपके खानदान में कव्वाली का साथ कब से है? 
हमारे खानदान में कव्वाली का चलन ख्वाजा गरीब नवाज अजमेरी के दौर यानि करीब 850 साल से चल रहा है। हजरत अमीर खुसरो ने जो अपने शागिर्दों को सिखाया, हमारा घराना उन्हीं शागिर्दों की पीढ़ी से ताल्लुक रखता है। उन्ही के शिष्यों की औलादों में हम लोग हैं। हमारे बड़े बुजुर्ग दरगाहों-खानकाहों में भी गाते थे और बादशाहों के पास भी रूहानियत की महफिल सजाते थे। हमारे पूर्वजों मे बड़े दादा मियां एतमाद-उल-मुल्क तानरस खां साहब हुए हैं। उन्हें तानरस का खिताब मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़ऱ ने दिया था। वो हजरत निजामुद्दीन औलिया में गाते भी थे। हमारे ही खानदान के अल्लामा-ए-मौसिक़ी मुहम्मद सिद्दीक खान साहब हैदराबाद के निजाम के शाही गायक थे। हमारे खानदान में सूफी और क्लासिकल दोनों की रिवायत है। हमारे दादा पद्मश्री अजीज अहमद खां वारसी अपने दौर के बड़े सूफी कव्वाल हुए हैं। वहीं हमारे वालिद उस्ताद जहीर अहमद खां वारसी ने भी कव्वाली को नई ऊंचाइयां बख्शी। आज हम दोनों भाई इस दौर की नुमाइंदगी कर रहे हैं। हम अपने तौर पर और स्पिक मैके की ओर से नई जनरेशन को पूरे हिंदुस्तान में घूम-घूम कर अपनी मिट्टी की तहजीब से रूबरू करा रहे हैं। 
आप कव्वाली की जिस 850 साल की रिवायत की बात कर रहे हैं, उसमें आज कितना बदलाव देखते हैं? 
देखिए आज जिसे हम कव्वाली कहते हैं, वो हिंदुस्तान में ही जन्मी है। इसकी शुरूआत 850 साल पहले ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेरी रहमतुल्लाह अलैहि ने की थी। कव्वाली शब्द बना है कौल से, जिसके मायने है दोहराना। जो अल्लाह ने और सरकारे दो आलम मोहम्मद मुस्तफा ने कहा उसको दोहराने का नाम ही है कव्वाली। लेकिन शुरूआती दौर में कव्वाली को महफिले समा और गाने वाले को मुतरिब कहते थे। तब यह खानकाहों  (आश्रम) और दरगाहों तक ही महदूद (सीमित) थी।  बाद में हजरत निजामुद्दीन औलिया ने इसे कव्वाली का नाम दिया। उन्होंने और उनके शागिर्द हजरत अमीर खुसरो ने कव्वाली को खानकाहों-दरगाहों से निकाल कर इसे आम लोगों तक पहुंचाया। उस जमाने के सूफी शायरों ने अपने कलाम फारसी में लिखे थे। तब और आज में बदलाव बहुत सा आया है। तब ताली, ढोलक,तबला और नौबत(डफ) का इस्तेमाल होता था। आज हमनें इसमें सिर्फ हारमोनियम को जोड़ा है। जहां तक फारसी के कलाम की बात है तो आज के दौर के शायरों ने उसे आसान करते हुए उर्दू में लिखा है। वैसे जो बुजुर्गों सूफियों के कलाम है, उनका अपना एक अलग इफेक्ट तो रहता ही है। इस दौर में लोगों ने कुछ और बदलाव भी किए हैं। इसका नाम कव्वाली  ही रखा है लेकिन हम्द (अल्लाह की शान में), नात (नबी की शान में), मनकबत (वलियों की शान में) और  गजल भी इसमें अलग-अलग ढंग से पेश की जाती है। 
कव्वाली पेश करने और सुनने का जो लुत्फ है, उसे आप कैसे बयां करेंगे? 
देखिए, कव्वाली तो सीधे रूहानियत से जुड़ी हुई है। सही जो कव्वाली होती है वो सीधे अल्लाह से मिलाती है। इसलिए हमें हुक्म दिया जाता है कि जब तुम समा (कव्वाली) गाने बैठो तो वजू करके  पाक साफ होकर बैठो। यह सच है कि जब सही कव्वाली गाई जाती है और किसी को वज्द (हाल) आ जाता है तो उसकी रूह सीधे आलमे बरज$ख (ईह लोक) में चली जाती है। अक्सर ऐसा होता है  जब हम देखते हैं कि अल्लाह का कलाम सुन कर किसी को हाल आ रहा है, तो इस हालत में बेखुदी में वो नहीं झूमता बल्कि उसकी रूह झूमती है। हमनें भी बुजुर्गों से सुना है कि अल्लाह ने मिट्टी का पुतला (इंसान) बनाया और रूह को हुक्म दिया कि जा अंदर दाखिल हो जा, तो रूह अंदर जा रही थी और परेशान हो कर बार-बार बाहर आ रही थी। रूह का कहना था कि मेरे मालिक मैं अंदर जा रही हूं तो सब अंधेरा ही अंधेरा दिख रहा है और मेरा दम घुट रहा है। मैं क्या करूं,समझ में नहीं आ रहा है। अंदर समाया नहीं जा रहा है। ऐसे में फिर अल्लाह पाक ने अपने फरिश्तों को हुक्म दिया कि एक लहन (सुर) छेड़ो। जब फरिश्तों ने लहन छेड़ा तो रूह एक दम से मस्ती में आ गई और इंसान के जिस्म में चली गई। तो आज जब अच्छा संगीत या सुर सुनकर जब हममें से किसी को भी एक नशा सा तारी होता है तो वो हममें नहीं बल्कि हमारी रूह में होता है। लोग सुन कर वाह-वाह कहते हैं तो ये हम नहीं करते हमारी रूह करती है। हमारा चाहे सूफी संगीत हो या हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, इसमें दिल और दिमाग दोनों झूमता है। यही हमारी संगीत की परंपरा है। 
आपका ऐसा अपना कोई रूहानी तजुर्बा? 
ये तो उस मालिक का करम है। हम तो यही मानते हैं कि हम कलाम पेश कर रहे हैं तो इबादत कर रहे हैं। ऐसा कई बार होता है कि जब हम ख्वाजा गरीब नवाज अजमेरी के दरबार में कव्वाली पेश कर रहे होते हैं तो ज़ार-ज़ार आंसू बहते रहते हैं। वहां कव्वाली पेश करने के दौरान फिर हमको अपनी भी सुध नहीं रहती। एक अलग किस्म का नशा हम पर तारी हो जाता है। चूंकि ख्वाजा साहब ने ही कव्वाली की शुरूआत की थी, इसलिए उनके दरबार में कव्वाली पेश करना हमेशा एक अलग तरह का रूहानी तजुर्बा रहता है।
..तो क्या ये रूहानी जज्बा आपको सिर्फ कव्वाली से ही हासिल होता है? 
देखिए उसको पुकारना है तो कोई भी जबान में पुकार सकते हैं। हमनें श्याम बेनेगल की  फिल्म ‘मंडी’ में कबीर दास जी का भजन ‘हर में हर को देखा’ गाया था। इसमें देखिए कितनी गहराई है। ‘हर में हर को देखा’ देखा यानि हम सब में वही मौजूद है। अल्लाह ने भी फरमाया है  कि ‘मैं तेरी शहरग़ (गले के पास की एक खास नस) के करीब हूं तू मुझे पहचान’। इसलिए अल्लाह-परमेश्वर तो हम सबके बेहद करीब है। हम सब में वही है और उसने किसी में भेदभाव नहीं किया। इसलिए उसे चाहे कव्वाली से पुकारो या भजन से। पुकार सच्ची होनी चाहिए तो रूहानियत का जज्बा अपने आप उभर आता है।  
वारसी भाइयों की कव्वाली
हिंदुस्तानी फिल्मों की वजह से कव्वाली की भी दो धाराएं हो गईं हैं...क्या आप ऐसा मानते हैं? 
जी, हां बिल्कुल। एक तो मंच की कव्वाली है और दूसरी फिल्मों की। फिल्म इंडस्ट्री तो कव्वाली से हमेशा मुतअस्सिर (प्रभावित) रही है। कई बड़े नाम है जिन्होंने फिल्मों के लिए कव्वाली गाई है। ज्यादातर मामले में तो हम मानते हैं कि फिल्मों ने कव्वाली का बेड़ा गर्क ही किया है। जहां तक दूसरी धारा की बात है तो कव्वाली आज भी मकबूल है। इसका क्रेडिट उन कव्वालों को जाता है, जिन्होंने इसकी पाकीजगी को कायम रखा। जैसे कि हमारे दादा पद्मश्री अजीज अहमद खां वारसी , हाजी गुलाम फरीद साबरी और उस्ताद नुसरत फतेह अली खान सहित और भी दूसरे नाम। जिन्होंने दुबारा से इसे उपर लाया और इसे मकबूलियत दी। आज कव्वाली हिंदुस्तान-पाकिस्तान में तो है ही यूरोप और दुनिया के दूसरे हिस्सों में कव्वाली खूब सुनी जाती है।  
आप को ऐसा क्यों लगता है कि फिल्मों ने कव्वाली का बेड़ा गर्क किया है? 
देखिए ‘परदा है परदा’ को आप क्या कव्वाली कहेंगे..? हमारी नजर में वो सिर्फ एक एंटरटेनमेंट या आज की जबान में आइटम सांग है। हजरत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के दीदार के बाद कहते हैं कि छाप तिलक सब छीन ली। ये रुहानियत में डूबा हुआ कलाम है। वो कहते हैं कि आपने मुझे देखा तो मेरी जितनी भी पहचान और जो छाप थी वो सब छीन ली। वो ‘अपनी सी रंग दीनी’ कहते हैं यानि दुनिया से बेनियाज कर मुझे अल्लाह से मिलवा दिया। लेकिन फिल्म वालों ने क्या किया? ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ फिल्म मे लडक़ी भांग के नशे में झूम रही है और खेत में गा रही है ‘छाप तिलक सब छीन ली’। 
ये बीते दौर की बात हो गई लेकिन आज तो फिल्मों में सूफी खूब चल रहा है..? 
हम पूछना चाहते हैं, आज के ये फिल्म वाले सूफी का मतलब, उसकी अहमियत भी समझते हैं..? सूफी यानि हर चीज से पाक  साफ। अब आज की फिल्मों को देखिए सूफी के नाम पर गीत रचा गया ‘इश्क सूफियाना’। ये फिल्म वाले जानते हैं इन पाक लफ्जों की अहमियत..? अभी शाहरूख खान की एक फिल्म में सूफी के नाम पर गीत रचा गया ‘तेरा सजदा’। इसमें वो औरत को सजदा करवा रहे हैं। ये क्या हो रहा है..? 
लेकिन आप (कव्वाल) लोगों की तरफ से कभी कोई एतराज भी तो सामने नहीं आता है? 
आपका ऐसा कहना गलत है। हमारे हैदराबाद के नागेश कुकनूर ने 2-3 साल पहले ‘इकबाल’ फिल्म बनाई थी। जिसमें सीन रखा कि लोग शराब पी कर बोतल के साथ नाचते हुए ‘आज रंग है हे मां रंग है री’गा रहे हैं। हमने नागेश को बुला कर तुरंत एतराज जताया और उनसे पूछा कि क्या आपको ‘रंग’ का मरतबा या उसके मायने मालूम है..? ये बुजुर्ग सूफी शायर हजरत अमीर खुसरो ने किसलिए लिखा है और इसे क्यों गाया जाता है..? हमनें उनसे कहा कि आइंदा से किसी अच्छे जानकार से मश्विरा लेना फिर कोई सूफी कलाम को रखना। वरना तुम पर ऐसी फिटकार पड़ेगी कि कहीं के भी नहीं रहोगे और ये जितना सब नाम-वाम है,ये सब चले जाएगा। नागेश हमारी बात समझ गए और तुरंत माफी मांगने लगे कि नहीं वारसी साहब हमसे गलती हो गई। 
लेकिन ऐसे माहौल में आपको फिल्मों के ऑफर तो आते होंगे? 
बिल्कुल आते हैं। लेकिन, हम अपना और अपने घराने का नाम खराब नहीं करना चाहते हैं। हमारा साफ कहना है कि जिसमें सूफियाना होगा वहीं गाएंगे। जिसमें अल्लाह का नाम होगा,मौला का नाम होगा हमारे ख्वाजा का नाम होगा वो गाएंगे। अब जैसे हमारे दादा पद्मश्री अजीज अहमद खां वारसी ने ‘मौला सलीम चिश्ती’ गाया था। आज भी आप  देखिए और सुनिए कि कैसा पिक्चराइजेशन है और कैसे अल्फाज हैं ‘घूंघट की लाज रखना इस सर पे ताज रखना’।  अब आज तो फिल्मवाले जो दिल मे आए ठोक देते हैं। इसलिए तब तक हम फिल्मों से दूर ही ठीक हैं।  

Wednesday, November 7, 2012

'चक्रव्यूह' में मजाक बना दी गई छत्तीसगढ़ी...!

भाषाई प्लेटफार्म पर कमजोर साबित होती है प्रकाश झा की नक्सल मुद्दे पर आधारित फिल्म
पहनावा छत्तीसगढ़ी लेकिन भाषा है अटपटी
फिल्मकार प्रकाश झा ने अपनी फिल्म 'चक्रव्यूह' में नक्सलगढ़ का यथार्थ रचने ऐसी छत्तीसगढ़ी का सहारा लिया है, जो छत्तीसगढ़ी जानने वाले को भी रास नहीं आएगी और इसकी मिठास से अंजान दर्शक भी इसे आसानी से पचा नहीं पाएगा। एक परिपक्व निर्देशक के रुप में अलग पहचान बनाने वाले प्रकाश झा ने भाषा के आधार पर अपनी फिल्म को जो बाना पहनाने की कोशिश की है, उससे ज्यादातर दर्शक और छत्तीसगढ़ी  भाषा व संस्कृति के जानकार सहमत नहीं है।
प्रकाश झा ने 'चक्रव्यूह' में नक्सल समस्या को प्रमुखता से उठाया है। फिल्म में नक्सलियों के शीर्ष नेता से लेकर आम लोग जिस अंदाज में छत्तीसगढ़ी बोलते हैं, उसे लेकर छत्तीसगढ़ में व्यापक प्रतिक्रिया है। दरअसल 'चक्रव्यूह' के संवाद इस अंदाज में लिखे गए हैं कि उसमें पहली पंक्ति तो ठेठ छत्तीसगढ़ी की रहती है लेकिन उसके बाद अगली ही पंक्ति हिंदी की आ जाती है। मसलन नक्सल नेता जूही अपने साथियों से कहती है- तुमन ऐला के जावो...मैं चलती हूं। पूरी फिल्म में इसी तरह हिंदी-छत्तीसगढ़ी का बेमेल है। जिससे दर्शक न तो पूरी तरह छत्तीसगढ़ी की मिठास का एहसास कर पाता है ना ही पूरी तरह हिंदी का। छत्तीसगढिय़ा दर्शकों को फिल्म के संवाद इसलिए खटकते हैं, क्योकि इसमें पूरी छत्तीसगढ़ी भी नहीं है और गैर छत्तीसगढिय़ा को इसलिए खटकते हैं, क्योंकि इसमें पूरी तरह हिंदी भी नहीं है। फिर सबसे ज्यादा खटकने वाली बात यह है कि दुनिया भर में रिलीज हुई इस फिल्म की शूटिंग का एक हिस्सा भी भले ही छत्तीसगढ़ में नहीं फिल्माया गया है लेकिन फिल्म देखने से ये साबित तो हो गया कि नक्सलगढ़ में लाल सलाम का नारा लगाने वाले शीर्ष नेतृत्व से लेकर आम नक्सली तक छत्तीसगढ़ी मे बात करते हैं। शायद प्रकाश झा की रिसर्च टीम ने हल्बी, गोड़ी, तेलुगू, मराठी और उडिय़ा मिश्रित नक्सलियों की बातचीत पर कभी गौर ही नहीं किया। यही वजह है कि सीधे-सीधे नक्सलियों को छत्तीसगढिय़ा साबित कर दिया गया है। जबकि उसमें नक्सली पात्र झारखंड, आंध्र और महाराष्ट्र के बताए गए हैं।

क्या कहते हैं जानकार
यह प्रवृत्ति बहुत ही चिंताजनक 
परदेशी राम वर्मा
छत्तीसगढ़ में जिस तरह से गैर जिमेदारी पूर्ण काम हो रहा है उसी का नतीजा है कि छत्तीसगढ़ को सरल सस्ता समझ कर लोग कुछ भी उटपटांग प्रयोग कर लेते हैं। यह प्रवृत्ति छत्तीसगढ़ के लिए बहुत ही चिंताजनक है। किसी भी संस्कृति को समझने के लिए गहराई और गंभीरता जरूरी है। घालमेल करने से भाषा की खुबसूरती सामने नहीं आ पाती है। ये जग जाहिर है कि नक्सलियों के कमांडर और अन्य जिमेदार लोग उड़ीसा और आंध्र के हैं। वहीं छत्तीसगढ़ी बोलने वाले जवान तो नगण्य होंगे। इसके बावजूद यहां कमांडर लोगों को छत्तीसगढ़ी बोलते दिखाया जा रहा है वो सच्चाई के बिल्कुल पलट है। छत्तीसगढ़ी भाषा के संरक्षण के लिए बने आयोग को भी अपनी सक्रियता दिखाना चाहिए और हर छत्तीसगढ़ी को इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना चाहिए। (हिंदी व छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार) 


भाषाई सौंदर्य तो बरकरार रहना ही चाहिए
दानेश्वर शर्मा
उन्होंने फिल्म में किस तरह छत्तीसगढ़ी का प्रयोग किया है, मुझे नहीं मालूम। इतना तो है कि निर्देशक को सिनेमेटिक सेंस के नाम पर छूट तो देनी ही चाहिए। यह सबको मालूम है कि बड़े नक्सली नेता मूल छत्तीसगढ़ी नहीं है बल्कि बंगाल, उड़ीसा, आंध्र व महाराष्ट्र के हैं। हम यह भी नहीं कहते हैं कि बिल्कुल शुद्ध छत्तीसगढ़ी इस्तेमाल हो, क्योंकि यह तो संभव नहीं है। लेकिन भाषाई सौंदर्य तो बरकरार रहना ही चाहिए। घालमेल करने से तारतय टूटता है। साहित्य में पोएटिक लाइसेंस की हम बात करते हैं वैसे ही फिल्म के मामले में भी हमें दृष्टिकोण रखना होगा। 'चक्रव्यूह' में इसलिए घालमेल वाली छत्तीसगढ़ी इस्तेमाल की गई होगी, क्योकि नक्सली छत्तीसगढ़ के तो है ही नहीं। वो चाहते तो हल्बी, गोड़ी, तेलुगू और उडिय़ा मिश्रित भाषा वाले संवाद रख सकते थे। जिससे दर्शक आसानी से फिल्म के साथ तालमेल बिठाता।  (अध्यक्ष छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग)


गंभीरता दिखानी थी भाषा-बोली पर भी 
राहुल सिंह
मैनें पूरी फिल्म देखी नहीं है लेकिन टुकड़ों में जितना देख पाया हूं उससे मेरी धारणा तो यही बनती है कि भाषा के दृष्टिकोण से यह फिल्म फीकी पड़ती है। प्रकाश झा की पहचान एक संवेदनशील फिल्मकार के तौर पर है। उन्होंने ऐसा घालमेल क्यों किया वो तो वही बता सकते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि एक गंभीर विषय के प्रस्तुतिकरण में इस गंभीर पहलू का ध्यान नहीं रखा गया। छत्तीसगढ़ी के जानकार और छत्तीसगढ़ी से अंजान दोनों को फिल्म के संवाद का अधूरापन खटक रहा है। फिल्म की शूटिंग मध्यप्रदेश में हुई है। झा की शोध टीम को बस्तर के नक्सलियों का यथार्थ दिखाने उनके रहन-सहन के साथ भाषा-बोली पर भी गंभीरता दिखानी थी। इसे मैं भाषा के मामले में लापरवाही ही कहूंगा। (छत्तीसगढ़ी संस्कृति के जानकार)

पहले भी हो चुका है छत्तीसगढ़ के साथ मजाक
सद्गति में स्मिता-ओमपुरी
यह पहला मौका नहीं है, जब भाषा के स्तर पर छत्तीसगढ़ को बेहद हल्का मानते हुए अटपटा सा प्रयोग किया गया हो। इसके पहले कुछ कथाकारों और फिल्मकारों ने भी छत्तीसगढ़ की शांत प्रकृति का फायदा उठाया था।
 
सत्यजीत 
जातीय विद्वेष पर आधारित मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'सद्गति' को फिल्माने प्र्रख्यात निर्देशक सत्यजीत राय के छत्तीसगढ़ आने पर भी कई सवाल उठे थे। सत्यजीत रे द्वारा छत्तीसगढ़ की लोकेशन के चयन पर उंगली इस आधार पर उठाई गई थी कि शांत और समरसता वाले प्रदेश में इस तरह की कहानी का फिल्मांकन गलत है।  प्रख्यात उपन्यासकार बिमल मित्र ने 'सुरसतिया' में और साहित्यकार रामशरण जोशी ने 'हंस' में प्रकाशित अपने संस्मरण में छत्तीसगढ़ी महिलाओं के चरित्र को लेकर प्रतिकूल टिप्पणी की थी। जिसका उस दौर में विरोध भी हुआ था।
बिमल मित्र
उपन्यास
बिमल मित्र की पहचान 'साहेब बीवी और गुलाम' उपन्यास से ज्यादा है, जिस पर गुरुदत्त ने फिल्म भी बनाई थी। खुद बिमल मित्र अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव का ज्यादातर बांग्ला साहित्य भिलाई में अपनी बेटी शकुंतला बोस के घर रह कर रचा था, इस वजह से वह छत्तीसगढ़ से अंजान नहीं थे लेकिन उन्होंने छत्तीसगढ़ी महिलाओं पर प्रतिकूल टिप्पणी की और उनका उस दौर में खूब विरोध भी हुआ।
इसी तरह रामशरण जोशी की टिप्पणी के बाद अंचल के प्रख्यात साहित्यकार डॉ. परदेशीराम वर्मा ने इसका प्रतिवाद 'हंस'  में ही लंबा लेख लिख कर किया। जिसके बाद उस पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने लिखित में क्षमा मांगी थी।

रामशरण जोशी
मैनें प्यार किया
कुछ इसी तरह का एक और दुर्लभ उदाहरण राजश्री प्रोडक्शन की 'मैनें प्यार किया' का भी है, जिसमें एक चर्चित गीत छत्तीसगढ़ी मे बिलासपुर मूल के निवासी शैल चतुर्वेदी से लिखवाने के बाद अचानक उसे भोजपुरी में 'कहे तोह से सजना' लाइन से अनुदित करवा दिया गया था। इसके  केंद्र में छत्तीसगढ़ी और हिंदी के  साहित्यकार दानेश्वर शर्मा थे। वाकया 1988 का है, जब फिल्म 'मैनें प्यार किया' बन रही थी और उस दौरान बडज़ात्या परिवार ने कथानक के अनुरूप शैल चतुर्वेदी से 'कइथव तोर से सजना' गीत लिखवाया था। चूंकि श्री चतुर्वेदी लंबे अरसे से बिलासपुर छोड़ मुंबईवासी हो चुके थे, इसलिए श्री चतुर्वेदी की पहल पर ऐसे जानकार को खोजा गया था जो छत्तीसगढ़ी से भली-भांति परिचित हो।
शैल चतुर्वेदी
तब तक श्री शर्मा के छत्तीसगढ़ी गीतों के कई रिकार्ड्स एचएमवी से निकल चुके थे वहीं राजश्री फिल्मस के संस्थापक ताराचंद बडज़ात्या के एक करीबी रिश्तेदार श्री डागा भिलाई सिविक सेंटर में कारोबारी थे। इस तरह राजश्री फिल्मस की ओर से दानेश्वर शर्मा से संपर्क साधा गया। श्री शर्मा ने उस गीत में सुधार भी किए और उसे मुंबई भेज दिया। इसके बाद रिकार्डिंग के दौरान भी श्री शर्मा को आमंत्रित किया गया लेकिन उसी दौरान श्री शर्मा अपनी बेटी की शादी की वजह से नहीं जा सके और फिर उसके बाद क्या हुआ यह खुद दानेश्वर शर्मा भी नहीं जानते। बाद में जब ' मैने प्यार किया ' का संगीत जारी हुआ तो गीत भोजपुरी में था और गीतकार का नाम था असद भोपाली । दानेश्वर शर्मा के पास आज भी इस गीत को लेकर राजश्री परिवार से हुए पत्र व्यवहार के सारे दस्तावेज मौजूद है।