Wednesday, November 7, 2012

'चक्रव्यूह' में मजाक बना दी गई छत्तीसगढ़ी...!

भाषाई प्लेटफार्म पर कमजोर साबित होती है प्रकाश झा की नक्सल मुद्दे पर आधारित फिल्म
पहनावा छत्तीसगढ़ी लेकिन भाषा है अटपटी
फिल्मकार प्रकाश झा ने अपनी फिल्म 'चक्रव्यूह' में नक्सलगढ़ का यथार्थ रचने ऐसी छत्तीसगढ़ी का सहारा लिया है, जो छत्तीसगढ़ी जानने वाले को भी रास नहीं आएगी और इसकी मिठास से अंजान दर्शक भी इसे आसानी से पचा नहीं पाएगा। एक परिपक्व निर्देशक के रुप में अलग पहचान बनाने वाले प्रकाश झा ने भाषा के आधार पर अपनी फिल्म को जो बाना पहनाने की कोशिश की है, उससे ज्यादातर दर्शक और छत्तीसगढ़ी  भाषा व संस्कृति के जानकार सहमत नहीं है।
प्रकाश झा ने 'चक्रव्यूह' में नक्सल समस्या को प्रमुखता से उठाया है। फिल्म में नक्सलियों के शीर्ष नेता से लेकर आम लोग जिस अंदाज में छत्तीसगढ़ी बोलते हैं, उसे लेकर छत्तीसगढ़ में व्यापक प्रतिक्रिया है। दरअसल 'चक्रव्यूह' के संवाद इस अंदाज में लिखे गए हैं कि उसमें पहली पंक्ति तो ठेठ छत्तीसगढ़ी की रहती है लेकिन उसके बाद अगली ही पंक्ति हिंदी की आ जाती है। मसलन नक्सल नेता जूही अपने साथियों से कहती है- तुमन ऐला के जावो...मैं चलती हूं। पूरी फिल्म में इसी तरह हिंदी-छत्तीसगढ़ी का बेमेल है। जिससे दर्शक न तो पूरी तरह छत्तीसगढ़ी की मिठास का एहसास कर पाता है ना ही पूरी तरह हिंदी का। छत्तीसगढिय़ा दर्शकों को फिल्म के संवाद इसलिए खटकते हैं, क्योकि इसमें पूरी छत्तीसगढ़ी भी नहीं है और गैर छत्तीसगढिय़ा को इसलिए खटकते हैं, क्योंकि इसमें पूरी तरह हिंदी भी नहीं है। फिर सबसे ज्यादा खटकने वाली बात यह है कि दुनिया भर में रिलीज हुई इस फिल्म की शूटिंग का एक हिस्सा भी भले ही छत्तीसगढ़ में नहीं फिल्माया गया है लेकिन फिल्म देखने से ये साबित तो हो गया कि नक्सलगढ़ में लाल सलाम का नारा लगाने वाले शीर्ष नेतृत्व से लेकर आम नक्सली तक छत्तीसगढ़ी मे बात करते हैं। शायद प्रकाश झा की रिसर्च टीम ने हल्बी, गोड़ी, तेलुगू, मराठी और उडिय़ा मिश्रित नक्सलियों की बातचीत पर कभी गौर ही नहीं किया। यही वजह है कि सीधे-सीधे नक्सलियों को छत्तीसगढिय़ा साबित कर दिया गया है। जबकि उसमें नक्सली पात्र झारखंड, आंध्र और महाराष्ट्र के बताए गए हैं।

क्या कहते हैं जानकार
यह प्रवृत्ति बहुत ही चिंताजनक 
परदेशी राम वर्मा
छत्तीसगढ़ में जिस तरह से गैर जिमेदारी पूर्ण काम हो रहा है उसी का नतीजा है कि छत्तीसगढ़ को सरल सस्ता समझ कर लोग कुछ भी उटपटांग प्रयोग कर लेते हैं। यह प्रवृत्ति छत्तीसगढ़ के लिए बहुत ही चिंताजनक है। किसी भी संस्कृति को समझने के लिए गहराई और गंभीरता जरूरी है। घालमेल करने से भाषा की खुबसूरती सामने नहीं आ पाती है। ये जग जाहिर है कि नक्सलियों के कमांडर और अन्य जिमेदार लोग उड़ीसा और आंध्र के हैं। वहीं छत्तीसगढ़ी बोलने वाले जवान तो नगण्य होंगे। इसके बावजूद यहां कमांडर लोगों को छत्तीसगढ़ी बोलते दिखाया जा रहा है वो सच्चाई के बिल्कुल पलट है। छत्तीसगढ़ी भाषा के संरक्षण के लिए बने आयोग को भी अपनी सक्रियता दिखाना चाहिए और हर छत्तीसगढ़ी को इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना चाहिए। (हिंदी व छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार) 


भाषाई सौंदर्य तो बरकरार रहना ही चाहिए
दानेश्वर शर्मा
उन्होंने फिल्म में किस तरह छत्तीसगढ़ी का प्रयोग किया है, मुझे नहीं मालूम। इतना तो है कि निर्देशक को सिनेमेटिक सेंस के नाम पर छूट तो देनी ही चाहिए। यह सबको मालूम है कि बड़े नक्सली नेता मूल छत्तीसगढ़ी नहीं है बल्कि बंगाल, उड़ीसा, आंध्र व महाराष्ट्र के हैं। हम यह भी नहीं कहते हैं कि बिल्कुल शुद्ध छत्तीसगढ़ी इस्तेमाल हो, क्योंकि यह तो संभव नहीं है। लेकिन भाषाई सौंदर्य तो बरकरार रहना ही चाहिए। घालमेल करने से तारतय टूटता है। साहित्य में पोएटिक लाइसेंस की हम बात करते हैं वैसे ही फिल्म के मामले में भी हमें दृष्टिकोण रखना होगा। 'चक्रव्यूह' में इसलिए घालमेल वाली छत्तीसगढ़ी इस्तेमाल की गई होगी, क्योकि नक्सली छत्तीसगढ़ के तो है ही नहीं। वो चाहते तो हल्बी, गोड़ी, तेलुगू और उडिय़ा मिश्रित भाषा वाले संवाद रख सकते थे। जिससे दर्शक आसानी से फिल्म के साथ तालमेल बिठाता।  (अध्यक्ष छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग)


गंभीरता दिखानी थी भाषा-बोली पर भी 
राहुल सिंह
मैनें पूरी फिल्म देखी नहीं है लेकिन टुकड़ों में जितना देख पाया हूं उससे मेरी धारणा तो यही बनती है कि भाषा के दृष्टिकोण से यह फिल्म फीकी पड़ती है। प्रकाश झा की पहचान एक संवेदनशील फिल्मकार के तौर पर है। उन्होंने ऐसा घालमेल क्यों किया वो तो वही बता सकते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि एक गंभीर विषय के प्रस्तुतिकरण में इस गंभीर पहलू का ध्यान नहीं रखा गया। छत्तीसगढ़ी के जानकार और छत्तीसगढ़ी से अंजान दोनों को फिल्म के संवाद का अधूरापन खटक रहा है। फिल्म की शूटिंग मध्यप्रदेश में हुई है। झा की शोध टीम को बस्तर के नक्सलियों का यथार्थ दिखाने उनके रहन-सहन के साथ भाषा-बोली पर भी गंभीरता दिखानी थी। इसे मैं भाषा के मामले में लापरवाही ही कहूंगा। (छत्तीसगढ़ी संस्कृति के जानकार)

पहले भी हो चुका है छत्तीसगढ़ के साथ मजाक
सद्गति में स्मिता-ओमपुरी
यह पहला मौका नहीं है, जब भाषा के स्तर पर छत्तीसगढ़ को बेहद हल्का मानते हुए अटपटा सा प्रयोग किया गया हो। इसके पहले कुछ कथाकारों और फिल्मकारों ने भी छत्तीसगढ़ की शांत प्रकृति का फायदा उठाया था।
 
सत्यजीत 
जातीय विद्वेष पर आधारित मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'सद्गति' को फिल्माने प्र्रख्यात निर्देशक सत्यजीत राय के छत्तीसगढ़ आने पर भी कई सवाल उठे थे। सत्यजीत रे द्वारा छत्तीसगढ़ की लोकेशन के चयन पर उंगली इस आधार पर उठाई गई थी कि शांत और समरसता वाले प्रदेश में इस तरह की कहानी का फिल्मांकन गलत है।  प्रख्यात उपन्यासकार बिमल मित्र ने 'सुरसतिया' में और साहित्यकार रामशरण जोशी ने 'हंस' में प्रकाशित अपने संस्मरण में छत्तीसगढ़ी महिलाओं के चरित्र को लेकर प्रतिकूल टिप्पणी की थी। जिसका उस दौर में विरोध भी हुआ था।
बिमल मित्र
उपन्यास
बिमल मित्र की पहचान 'साहेब बीवी और गुलाम' उपन्यास से ज्यादा है, जिस पर गुरुदत्त ने फिल्म भी बनाई थी। खुद बिमल मित्र अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव का ज्यादातर बांग्ला साहित्य भिलाई में अपनी बेटी शकुंतला बोस के घर रह कर रचा था, इस वजह से वह छत्तीसगढ़ से अंजान नहीं थे लेकिन उन्होंने छत्तीसगढ़ी महिलाओं पर प्रतिकूल टिप्पणी की और उनका उस दौर में खूब विरोध भी हुआ।
इसी तरह रामशरण जोशी की टिप्पणी के बाद अंचल के प्रख्यात साहित्यकार डॉ. परदेशीराम वर्मा ने इसका प्रतिवाद 'हंस'  में ही लंबा लेख लिख कर किया। जिसके बाद उस पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने लिखित में क्षमा मांगी थी।

रामशरण जोशी
मैनें प्यार किया
कुछ इसी तरह का एक और दुर्लभ उदाहरण राजश्री प्रोडक्शन की 'मैनें प्यार किया' का भी है, जिसमें एक चर्चित गीत छत्तीसगढ़ी मे बिलासपुर मूल के निवासी शैल चतुर्वेदी से लिखवाने के बाद अचानक उसे भोजपुरी में 'कहे तोह से सजना' लाइन से अनुदित करवा दिया गया था। इसके  केंद्र में छत्तीसगढ़ी और हिंदी के  साहित्यकार दानेश्वर शर्मा थे। वाकया 1988 का है, जब फिल्म 'मैनें प्यार किया' बन रही थी और उस दौरान बडज़ात्या परिवार ने कथानक के अनुरूप शैल चतुर्वेदी से 'कइथव तोर से सजना' गीत लिखवाया था। चूंकि श्री चतुर्वेदी लंबे अरसे से बिलासपुर छोड़ मुंबईवासी हो चुके थे, इसलिए श्री चतुर्वेदी की पहल पर ऐसे जानकार को खोजा गया था जो छत्तीसगढ़ी से भली-भांति परिचित हो।
शैल चतुर्वेदी
तब तक श्री शर्मा के छत्तीसगढ़ी गीतों के कई रिकार्ड्स एचएमवी से निकल चुके थे वहीं राजश्री फिल्मस के संस्थापक ताराचंद बडज़ात्या के एक करीबी रिश्तेदार श्री डागा भिलाई सिविक सेंटर में कारोबारी थे। इस तरह राजश्री फिल्मस की ओर से दानेश्वर शर्मा से संपर्क साधा गया। श्री शर्मा ने उस गीत में सुधार भी किए और उसे मुंबई भेज दिया। इसके बाद रिकार्डिंग के दौरान भी श्री शर्मा को आमंत्रित किया गया लेकिन उसी दौरान श्री शर्मा अपनी बेटी की शादी की वजह से नहीं जा सके और फिर उसके बाद क्या हुआ यह खुद दानेश्वर शर्मा भी नहीं जानते। बाद में जब ' मैने प्यार किया ' का संगीत जारी हुआ तो गीत भोजपुरी में था और गीतकार का नाम था असद भोपाली । दानेश्वर शर्मा के पास आज भी इस गीत को लेकर राजश्री परिवार से हुए पत्र व्यवहार के सारे दस्तावेज मौजूद है।

1 comment:

  1. बढि़या तथ्‍य, महत्‍वपूर्ण दृष्टिकोण.

    ReplyDelete